तुमने अब तक ऐसा कुछ नहीं कहा
जो पहली बार कहा गया हो
ऐसा तब है-
जब कहते हो कि तुम मेरा पहला प्यार हो
तुमने चांद क्या देखा कि
खूबसूरत लगने लगा
गुलाब के फूलों के मतलब समझ गए
नदियों की धारा में संगीत सुनने लगे
जबकि तुमने इन्हें पहली बार देखा था
पृथ्वी पर जब पहली बार रेलगाड़ी दौड़ी
तो पहले रोमांच में
थके हुए शब्द नहीं थे
थके हुए अर्थ भी नहीं थे
कितने भोलेपन के साथ
तुमने कहा था-
बेपनाह प्यार करता हूं
सच कह रही हूं
इन थके शब्दों के थके अर्थों की
बोझ वाली तुम्हारी भंगिमाओं से मैं भी थक जाती हूं
Wednesday, May 18, 2011
Thursday, November 25, 2010
पटना मतलब लगातार प्रदूषित होती एक राजधानी
कहा जा रहा है कि पटना देश के उन शहरों में से एक है जिसका पिछले चार सालों में कायापलट हो गया है। खास करके नीतीश कुमार के आने के बाद। हमारे देश और समाज में कायापलट की जो अवधारणा बनी है उसमें कई विसंगितयों को देखा जा सकता है। कायापलट का मतलब है कितने आलीसान होटल बने, कितने मॉल, मल्टीप्लेक्स, रेस्तरां और सड़क पर कितनी महंगी गाड़ियां भाग रही हैं व कितनी संख्या में। फास्ट फूड़ की कितनी दुकाने चमक रही हैं, शराब की कितनी मांगें बढीं, कितने ब्रैंडेड शोरुम खुलें और जो भी हो सकता है घोर उपभोक्तावादी समाज के लिए। हद तो यह हो गई है कि लोग बिसलेरी का पानी पी रहे हैं तो इसे भी घोर सकारात्मक बदलाव के रूप में देख रहे हैं। लोग कहते मिल जाएंगे कि जीवन स्तर में सुधार आया है और लोग अपनी सेहत को लेकर जागरुक हैं। लेकिन इसके पीछे कई सवाल टकटकी लगाए खड़े हैं जिनसे हमारा सिस्टम उलझना नहीं चाहता और सावन का अंधा बना हुआ है। तो क्या इन सवालों से जूझे बिना हम भी मान लें कि पटना देश की सबसे तेज गति से विकास करते राज्य की राजधानी है। नहीं, चलिए एक बार इन सवालों से जूझकर देख ही लेते हैं। पटना देश की सबसे तेज गति से प्रदूषित होती राजधानी में से भी एक होगी। सड़क पर निकलें तो पता चलेगा कि यहां प्रदूषण रोकने के कोई नियम-कायदे नहीं हैं। ऑटो केरोसीन का इस्तेमाल कर रहे हैं वह भी प्रदूषण जांच केंद्र के सर्टिफिकेट के साथ। पटना जिला में सभी प्रकार के वाहनों की संख्या 5 लाख 81 हजार 313 है। बिहार मोटर वाहन नियमावली 1992 में संशोधन कर सभी प्रकार वाहनों को प्रदूषण जांच केंद्र पर जांच करवाकर सर्टिफिकेट लेना अनिवार्य कर दिया गया है। लेकिन वर्तमान समय में इस नियम का कोई मतलब नहीं है। अभी राजधानी में कागजी तौर पर 30 प्रदूषण जांच केंद्र हैं लेकिन काम मात्र 16 कर रहे हैं। नियम है कि सभी प्रकार की गाड़ियां प्रत्येक छह महीनें में जांच करवाकर प्रमाण-पत्र लें। मतलब एक साल में करीब 10 लाख वाहन जांच केंद्र पर जाने चाहिए। पर माजरा यह है कि सभी जांच केंद्रों पर औसतन मात्र सात वाहन ही जा रहे हैं। इस हिसाब से देखें तो 16 जांच केंद्रों पर एक साल में मात्र 52 हजार 320 वाहन ही जा रहे हैं। मतलब 5 लाख 28 हजार 893 वाहन बिना प्रदूषण जांच करवाए ही चल रहे हैं। यहां जितने प्रदूषण जांच केंद्र हैं सभी निजी हैं। प्रदूषण जांच केंद्र वालों का कहना है कि अब हमारे पास वाहन नहीं आ रहे हैं तो हम क्या कर सकते हैं। इनके भी अपने दुःख हैं। जांच केंद्र वालों का कहना है कि यह केवल खानापूर्ति के लिए है। न इसमें हमारी दिलचस्पी है न वाहनों की। प्रदूषण जांच के एवज में इन्हें मिलने वाली रकम बहुत कम है। ऐसा राज्य सरकार का परिवहन विभाग भी कहता है। प्रदूषण जांच केंद्र वाले तो कहते ही हैं। दो पहिया और तीन पहिया वाहन के लिए 30 रुपए, चार पहिया के लिए 50 रुपए और डीजल व भारी वाहन के लिए 75 रुपए है। इसमें से भी सकरार क्रमशः पांच, 10 और 15 रुपए ले लेती है। जबकि बंगाल में यह राशि 50, 75 और 100 रुपए है। और बंगाल सरकार इन रकमों में से कुछ भी नहीं लेती है। परिवहन पदाधिकारी हरिहर प्रसाद बताते हैं कि हमने सरकार से चिट्ठी लिखकर अनुरोध भी किया कि यह रकम काफी कम है, इसे बढ़ाया जाए। प्रदूषण जांच केंद्र वालों ने भी रकम बढ़ाने की मांग की लेकिन किसी ने नहीं सुना। मैनें जब ऑटोमोबाइल एसोसियशन और बिहार चेंबर ऑफ कॉमर्स के कार्यकारी सदस्य अमित मुखर्जी से पूछा कि तब तो लाखों वाहन बिना प्रदूषण जांच करवाए सड़क पर चल रहे हैं। तब उन्होंने कहा कि बिना करवाए भी चल रहे हैं और बिना जांच करवाए प्रदूषण जांच केंद्र के प्रमाण-पत्र भी लेकर चल रहे हैं। अमित मुखर्जी प्रदूषण जांच केंद्र भी चलातें हैं। मुखर्जी बताते हैं कि प्रदूषण जांच केंद्र से जो प्रमाण-पत्र दिया जाता वह केवल मल्टिकलर होता है। और वाहन चालक स्कैन करवाकर बड़ी आसानी से तारीख बदल देते हैं। सरकार को चाहिए था कि अलग से एक होलोग्राम देती जैसा कि बंगाल में है। । हमने भी मांग की और परिवहन विभाग ने भी लेकिन राज्य सरकार पर कोई असर नहीं पड़ा। पटना में मोटर फिटनेस सेंटर तो मात्र चार ही हैं। मोटर फिटनेस सेंटर का भी यही हाल है। खास बात यह है कि मोटर फिटनेस सेंटर के प्रमाण-पत्र के बिना वाहनों का रजिस्ट्रेशन नहीं होता है। तो सवाल यहां यह खड़ा होता है कि या तो बिना फिटनेस सर्टिफिकेट के रजिस्ट्रेशन होता है या फर्जी सर्टिफिकेट पर। ट्रैफिक एसपी अजित कुमार सिन्हा कहते हैं कि मेरे पास कोई आधार ही नहीं है कि असली और नकली प्रमाण-पत्र की पहचान कर सकें। अमित मुखर्जी कहते हैं यदि वाहन ईमानदारी से प्रदूषण जांच केंद्र पर जाएं तो लाखो की संख्या में सड़क से बाहर हो जाएंगे। पटना में जितनी तेजी से प्रदूषण बढ़ रहा है आने वाले समय में और खतरनाक स्थिति होने वाली है। एक तो पटना क्या पूरे बिहार में वाहनों और प्रदूषण जांच केंद्रों की संख्या में भारी असंतुलन है। पूरे बिहार में सभी प्रकार की वाहनों की संख्या 22 लाख 86 हजार 272 है वहीं प्रदूषण जांच केंद्र मात्र 60 काम कर रहे हैं। यदि सभी वाहन प्रदूषण जांच के लिए जाने भी लगेंगे तो ये केंद्र जांच करने में असमर्थ साबित होंगे। परिवहन विभाग और ट्रैफिक पुलिस यदि कुछ वाहनों को पकड़ते भी हैं तो 1000 रुपए फाइन लगाकर छोड़ देते हैं। सरकार के तरफ से निर्देश है कि जितना हो सके फाइन लगाकर राजस्व बनाया जाए। लाखों रुपए महीनों में वसूला भी जा रहा है लेकिन सवाल यह है कि क्या इससे प्रदूषण की समस्या खत्म हो जाएगी?
परिवहन विभाग के तरफ से निर्देश है कि वाहन 88 डेसीबल से ज्यादा के हॉर्न नहीं लगा सकते हैं। लेकिन यहां धड़ल्ले से बुफर और प्रेशर हॉर्न का इस्तेमाल हो रहा है। सड़क पर निकले तों बिना कान बंद किए आप पैदल चल ही नहीं सकते हैं। अनावश्यक हॉर्न का भी इस कदर इस्तेमाल कि पैदल चलने वाले मिचली खाकर सड़क पर गिर जाएं। ट्रैफिक पुलिस और परिवहन विभाग के वही तर्क हैं कि हम आखिर कैसे जाने कि कोई निर्धारित डेसीबल से ज्यादा हॉर्न बजा रहा है। इंसान जब बात करता है तो वह 30 से 40 डेसीबल के बीच होता है। वह भी लगातार बातचीत करते रहे तो कान थकने लगता है। वहीं जब बुफर हॉर्न का इस्तेमाल करते हैं तो 100 डेसीबल से भी ज्याद को शोर होता है। माजरा यह है कि जिन्हें परिवहन विभाग साइलेंस जोन घोषित कर रखा है वे भी ऐसे खतरनाक शोर को झेल रहे हैं।
ऑटो तो केरोसीन का इस्तेमाल कर ही रहे हैं पटना में केरोसीन मिला पेट्रोल का भी जमकर गोरखधंधा चल रहा है। पटना के सिपारा क्षेत्र में इंडियन ऑयल और भारत पेट्रोलियम का डिपो है। राजधानी और मगध क्षेत्रों में इसी डिपो से पेट्रोल का सप्लाइ होता है। मान लीजिए टैंकर डिपो से पेट्रोल लेकर 32 डिग्री तापमान पर चलान कटवाकर चलता है। रास्ते में यदि तापमान बढ़ गया तो पेट्रोल का वॉल्यूम भी बढ़ जाता है। एक टैंकर में 12000 लीटर पेट्रोल आता है। चार डिग्री तापमान बढ़ने पर कम-स-कम 40 लीटर पेट्रोल बढ़ जाता है। पंप मालिक पेट्रोल की मात्रा टैंकर में लगी डीप स्टिक से देखते हैं। उन्हें डीप स्टिक तक पेट्रोल चाहिए। जाहिर है तापमान बढ़ने पर पेट्रोल डीप स्टिक से ऊपर आ जाता है। अब सवाल यह भी उठता होगा कि ठंडे के मौसम में तो तापमान घट जाता है ? इससे टैंकर चालकों पर कोई फर्क नहीं पड़ता है। क्योंकि चालक चलान कटने समय का तापमान पंप मालिक को दिखा देते हैं। तापमान बढ़ने के कई कारण हो सकते हैं। पहला तो हो सकता है कि अचानक मौसम का तापमान बढ़ जाए, चालक टैंकर को सड़क पर कूदाते लाते हैं, ब्रेक का इस्तेमाल भी ज्यादा करते हैं और जानबूझकर घंटों धूप में टैंकर को खड़ा कर देते हैं। बढ़े वॉल्यूम को टैंकर चालक सिपारा में ही दलालों से बेच देते हैं। बेचने की कीमत मार्केट रेट से 10 रुपए तक कम होती है। और फिर दलाल ऊपर से इस पेट्रोल में केरोसीन मिलाकर पूरे पटना में पेट्रोल के नाम पर कम कीमत में बेचते हैं। सिपारा डिपो से प्रतिदिन 1000 टैंकर निकलते हैं। यदि हम बढ़े वॉल्यूम को 20 लीटर भी मान कर चलें तो 20 हजार लीटर पेट्रोल प्रतिदिन अवैध रूप से बेचा जा रहा है। पंप मालिक कहते हैं हम लाचार हैं। अपना स्टाफ साथ में भेजते हैं तो टैंकर चालक किसी खास पंप के लिए भी हड़ताल कर देते हैं। सिपारा में यदि दलालों को पता चल जाता है कि कोई पत्रकार आया है तो वे मारने-पीटने से भी नहीं चुकते हैं। अहम बात यह है कि सिपारा थाना भी बगल में ही है। लेकिन कोई कार्रवाई नहीं। पेट्रोल पंप मालिक कहते हैं सब कोई मिल-बांटकर खा रहा है। इस पर टैंकर चालकों का कहना है हम ऐसा नहीं करेंगे तो पेट भी नहीं भर पाएंगे। टैंकर मालिक तनख्वाह के नाम पर मात्र 1500 रुपए देते हैं। बढ़ाने के लिए कहते हैं मालिक का तर्क होता है – पता है चोरी करके कितना कमाते हो। तो चोरी करने के लिए हम मजबूर हैं। यह पटना है मेरी जान, देश की सबसे तेज गति से विकास करते राज्य की राजधानी।
परिवहन विभाग के तरफ से निर्देश है कि वाहन 88 डेसीबल से ज्यादा के हॉर्न नहीं लगा सकते हैं। लेकिन यहां धड़ल्ले से बुफर और प्रेशर हॉर्न का इस्तेमाल हो रहा है। सड़क पर निकले तों बिना कान बंद किए आप पैदल चल ही नहीं सकते हैं। अनावश्यक हॉर्न का भी इस कदर इस्तेमाल कि पैदल चलने वाले मिचली खाकर सड़क पर गिर जाएं। ट्रैफिक पुलिस और परिवहन विभाग के वही तर्क हैं कि हम आखिर कैसे जाने कि कोई निर्धारित डेसीबल से ज्यादा हॉर्न बजा रहा है। इंसान जब बात करता है तो वह 30 से 40 डेसीबल के बीच होता है। वह भी लगातार बातचीत करते रहे तो कान थकने लगता है। वहीं जब बुफर हॉर्न का इस्तेमाल करते हैं तो 100 डेसीबल से भी ज्याद को शोर होता है। माजरा यह है कि जिन्हें परिवहन विभाग साइलेंस जोन घोषित कर रखा है वे भी ऐसे खतरनाक शोर को झेल रहे हैं।
ऑटो तो केरोसीन का इस्तेमाल कर ही रहे हैं पटना में केरोसीन मिला पेट्रोल का भी जमकर गोरखधंधा चल रहा है। पटना के सिपारा क्षेत्र में इंडियन ऑयल और भारत पेट्रोलियम का डिपो है। राजधानी और मगध क्षेत्रों में इसी डिपो से पेट्रोल का सप्लाइ होता है। मान लीजिए टैंकर डिपो से पेट्रोल लेकर 32 डिग्री तापमान पर चलान कटवाकर चलता है। रास्ते में यदि तापमान बढ़ गया तो पेट्रोल का वॉल्यूम भी बढ़ जाता है। एक टैंकर में 12000 लीटर पेट्रोल आता है। चार डिग्री तापमान बढ़ने पर कम-स-कम 40 लीटर पेट्रोल बढ़ जाता है। पंप मालिक पेट्रोल की मात्रा टैंकर में लगी डीप स्टिक से देखते हैं। उन्हें डीप स्टिक तक पेट्रोल चाहिए। जाहिर है तापमान बढ़ने पर पेट्रोल डीप स्टिक से ऊपर आ जाता है। अब सवाल यह भी उठता होगा कि ठंडे के मौसम में तो तापमान घट जाता है ? इससे टैंकर चालकों पर कोई फर्क नहीं पड़ता है। क्योंकि चालक चलान कटने समय का तापमान पंप मालिक को दिखा देते हैं। तापमान बढ़ने के कई कारण हो सकते हैं। पहला तो हो सकता है कि अचानक मौसम का तापमान बढ़ जाए, चालक टैंकर को सड़क पर कूदाते लाते हैं, ब्रेक का इस्तेमाल भी ज्यादा करते हैं और जानबूझकर घंटों धूप में टैंकर को खड़ा कर देते हैं। बढ़े वॉल्यूम को टैंकर चालक सिपारा में ही दलालों से बेच देते हैं। बेचने की कीमत मार्केट रेट से 10 रुपए तक कम होती है। और फिर दलाल ऊपर से इस पेट्रोल में केरोसीन मिलाकर पूरे पटना में पेट्रोल के नाम पर कम कीमत में बेचते हैं। सिपारा डिपो से प्रतिदिन 1000 टैंकर निकलते हैं। यदि हम बढ़े वॉल्यूम को 20 लीटर भी मान कर चलें तो 20 हजार लीटर पेट्रोल प्रतिदिन अवैध रूप से बेचा जा रहा है। पंप मालिक कहते हैं हम लाचार हैं। अपना स्टाफ साथ में भेजते हैं तो टैंकर चालक किसी खास पंप के लिए भी हड़ताल कर देते हैं। सिपारा में यदि दलालों को पता चल जाता है कि कोई पत्रकार आया है तो वे मारने-पीटने से भी नहीं चुकते हैं। अहम बात यह है कि सिपारा थाना भी बगल में ही है। लेकिन कोई कार्रवाई नहीं। पेट्रोल पंप मालिक कहते हैं सब कोई मिल-बांटकर खा रहा है। इस पर टैंकर चालकों का कहना है हम ऐसा नहीं करेंगे तो पेट भी नहीं भर पाएंगे। टैंकर मालिक तनख्वाह के नाम पर मात्र 1500 रुपए देते हैं। बढ़ाने के लिए कहते हैं मालिक का तर्क होता है – पता है चोरी करके कितना कमाते हो। तो चोरी करने के लिए हम मजबूर हैं। यह पटना है मेरी जान, देश की सबसे तेज गति से विकास करते राज्य की राजधानी।
भला इस बदलाव से किसका भला होगा
देश की दो सबसे महत्वाकांक्षी प्रतियोगी परिक्षाओं में बदलाव करने की तैयारी है। आईआईटी और यूपीएससी केवल छात्रों की ही नहीं अभिभावकों का भी सपना होता है। इस सपने को आकार देने में कम संसाधन वाले छात्र भी दिन-रात एक कर देते हैं। इन छात्रों और अभिभावकों के वश में जो कुछ भी होता है उसे अंजाम तक पहुंचाने में एड़ी-चोटी का दम लगा देते हैं। लेकिन हमारी पूंजीवादी सरकार को यह रास नहीं आ रही है। दोनो परिक्षाओं में जिस तरीके के बदलाव किए गए हैं उससे गरीब और ग्रामीण छात्र पूरी तरह प्रतियोगिता से बाहर हो जाएंगे। यूपीएसी में तो बदलाव इसी बार से प्रभावी हो जाएगा। आईआईटी में 2012 से करने की तैयारी है। इन बदलावों पर विचार करें तो पता चलेगा कि यह बदलाव किस तरह से ग्रामीण और गरीब छात्रों के लिए नासूर बनने वाला है और शहरियों व उच्च मध्यवर्ग के हित में है। यूपीए सरकार में कपिल सिब्बल जब से मानव संसाधन मंत्री बने हैं तब से शिक्षा व्यवस्था में परिवर्तन की बात कर रहे हैं। लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि यह परिवर्तन किसके लिए है, और क्यों है? कपिल सिब्बल ने आईआईटी खड़गपुर के निदेशक डी. आचार्य के नेतृत्व में आईआईटी में बदलाव के लिए एक समिति का गठन किया। समिति ने अपनी रिपोर्ट भारत सरकार के मानव संसाधन विभाग को सौंप दिया। रिपोर्ट में कहा गया कि संपूर्ण भारत में इंजीनियरिंग की एक परीक्षा ली जाए। इसका तर्क यह दिया गया कि इससे विद्यार्थियों पर तैयारी का ज्यादा दबाव भी नहीं बनेगा और खर्च भी कम होंगे। लेकिन जिस परीक्षा की बात की जा रही है उसके कई खतरनाक पहलू हैं। पहले जिस तरह आईआईटी में रसायन विज्ञान, भौतिकी विज्ञान और गणित की परीक्षा होती थी अब वह नहीं ली जाएगी। दरअसल, अब बारहवीं की परीक्षा परिणाम के कुल अंक के 70 फीसदी को वेटेज दिया जाएगा। और फिर एक राष्ट्रीय स्तर पर नेशनल एप्टीट्यूड टेस्ट लिया जाएगा। इस टेस्ट में प्राप्त कुल अंक के 30 फीसदी को वेटेज दिया जाएगा। और फिर मेधा सूची तैयार की जाएगी। मेधा सूची में वरीयता के आधार पर छात्रों को आईआईटी या अन्य इंजीनियरिंग कॉलेजों में प्रवेश मिलेगा। अब यहां सबसे बड़ा सवाल है बारहवीं की परीक्षा को 70 फीसदी वेटेज देने का। देश में सीबीएसई, आईसीएसई से लेकर सभी राज्यों के अपने-अपने बोर्ड हैं। 2010 में सीबीएसई की दसवीं और बारहवीं की परीक्षा में कुल 12 लाख 50 हजार विद्यार्थी शामिल हुए थे। वहीं हम बिहार बोर्ड की बात करें तो 2010 की दसवीं की परीक्षा में 10 लाख और बारहवीं की परीक्षा में छः लाख विद्यार्थी शामिल हुए। अब दोनों बोर्डों में विद्यार्थियों को मिलने वाले अंक पर एक नजर डालें तो दांतो तले उंगली दबा लेंगे। सीबीएसई में बारहवीं में 74 फीसदी से ज्यादा अंक पाने वाले 35 फीसदी छात्र हैं वहीं बिहार बोर्ड में सिर्फ 0.93 फीसदी, उत्तर प्रदेश में 0.92 फीसदी और महाराष्ट्र में 6.75 फीसदी। और आईआईटी में बारहवीं के 70 फीसदी अंक को वेटेज दिया जाना है। तो इन राज्यों से कितने छात्रों को आईआईटी में प्रवेश मिल पाएगा? बिहार विद्यालय परीक्षा समिति के अध्यक्ष एकेपी यादव कहते हैं “यह तो केवल तीन राज्य बोर्डों के बारहवीं की परीक्षा परिणाम का ग्राफ है। अन्य राज्य बोर्डों का भी कुछ ऐसा ही हाल है। वे कहते हैं हमने सख्त विरोध दर्ज करवाया है। हमने कहा कि क्या आईआईटी केवल सीबीएसई वालों के लिए है। ऐसे में तो बिहार जैसे राज्यों के छात्रों के लिए कोई जगह ही नहीं रहेगी।” नेशनल एप्टीट्यूड टेस्ट की बात करें तो इसमें भी कम विसंगतिया नहीं है। इसमें मोरल, एथिक, कम्युनिकेशन स्किल और तर्क क्षमता जैसे प्रश्न शामिल होंगे। टेस्ट का माध्यम अंग्रेजी रखी गई है। एक तो यहां ग्रामीण और गरीब छात्र मार खाएंगे जो अंग्रेजी ठीक-ठाक नहीं जानते हैं। हो सकता है किसी के पास नौलेज हो लेकिन वह जिस समाज और परिवेश में रहता है उसमें वैसा कम्यूनिकेशन स्किल विकसित न कर पाया हो जिसकी मांग होने वाली है। और जहां तक मोरल व एथिक्स का सवाल है तो हर समाज और परिवेश का मोरल और एथिक्स एक ही नहीं होता है। एएन सिन्हा समाज अध्ययन संस्थान के निदेशक प्रोफेसर डीएम दिवाकर कहते हैं “यह पूरी तरह से अर्बन बायस्ड है। पहले तो बारहवीं के परीक्षा परिणाम को इतना वेटेज नहीं देना चाहिए। यदि देना भी है तो पहले राज्य बोर्ड के स्कूलों को भी सीबीएसई के लेबल में लाया जाए। और दूसरी ओर एप्टीट्यूड टेस्ट में विविधता को समाहित किया जाए। जब-तक विविधता समाहित नहीं होंगी तब-तक बदलाव एकपक्षीय ही रह जाएगा।”
एक सुझाव यह हो सकता है कि राज्य बोर्ड क्यों नहीं छात्रों को पर्याप्त अंक देता है? एकेपी यादव कहते हैं “केवल सीबीएसई जितना अंक देने की बात नहीं है। सवाल शिक्षा और परीक्षा की गुणवत्ता का भी है। सीबीएसई में छात्रों को केवल इसलिए ज्यादा अंक नहीं मिलते हैं कि वहां अंक ज्यादा दिए जाते हैं। यहां जितनी बुनियादी सुविधाएं हैं राज्य बोर्ड किसी भी स्तर पर मुकाबला नहीं कर सकते।” बिहार बोर्ड में अब सिलेबस, प्रश्न-पत्र और मूल्यांकन लगभग सीबीएसई पैटर्न पर कर दिया गया है। ताकि बिहार बोर्ड के छात्र भी किसी स्तर पर सीबीएसई से मुकाबला कर सके। लेकिन बात केवल प्रश्न-पत्र और मूल्यांकन तक ही सीमित नहीं है। सीबीएसई प्रतिनिधि संजीव मिश्र कहते हैं “सीबीएसई का जो भी पैटर्न है वह अपने आंतरिक ढांचा और उपलब्ध साधनों के आधार पर है। आप यदि किसी दूसरे सिस्टम के किसी एक हिस्से को एडॉप्ट करते हैं तो इसका मतलब यह कतई नहीं है कि उसके परिणाम बिल्कुल वैसे ही मिल जाएंगे। क्योंकि सीबीएसई का प्रदर्शन केवल सिलेबस और प्रश्न-पत्र के कारण नहीं है। बल्कि इसका पूरा ढांचा इसे सपोर्ट करता है। सीबीएसई बोर्ड एक्टिविटी बेस्ड एजुकेशन है वहीं राज्य बोर्ड एजुकेशन बेस्ड एक्टिविटी।” अब हम बिहार की ही बात करें तो जिन हालात में प्राथमिक और माध्यमिक स्कूल हैं ऐसे में कहां से सीबीएसई के छात्रों से मुकाबला कर पाएगा। हम एक नजर बिहार की प्राथिमक और माध्यमिक शिक्षा की हालात पर नजर डालें तो भयावह तस्वीर ऊभरकर सामने आएगी। 2007-08 की डीएसई रिपोर्ट के अनुसार राज्य में 67 हजार 874 स्कूल हैं। 23 फीसदी स्कूल बिना क्लास रुम के चल रहे हैं। छः फीसदी स्कूल सिंगल क्लास रुम वाले हैं और 29 फीसदी दो क्लास रुम वाले। मात्र तीन फीसदी स्कूलों में बिजली की पहुंच है। इस मामले में इसके बाद असम और झारखंड आता है। राज्य में एक क्लास रुम और एक शिक्षक पर 120 बच्चे हैं जो कि देश के किसी भी राज्य से ज्यादा है। 48 फीसदी स्कूलों में कॉमन ट्वायलेट है वहीं मात्र 22 फीसदी स्कूलों में गर्ल्स ट्वायलेट है। शिक्षकों के अभाव से बिहार के स्कूल भयानक तरीके से जूझ रहे हैं। छः फीसदी स्कूल मात्र एक-एक शिक्षक के भरोसे चल रहे हैं वहीं 26 फीसदी स्कूल दो-दो शिक्षक के भरोसे। 41 फीसदी शिक्षक केवल इंटर पास हैं। अब इन हालात में बिहार बोर्ड लाख सीबीएसई के तर्ज पर सिलेबस बदल ले या प्रश्न-पत्र बना ले क्या फर्क पड़ता है। कपिल सिब्बल का आईआईटी में बदलाव के पक्ष में तर्क है कि इससे कोचिंग पर छात्रों की निर्भरता कम होगी। क्योंकि बारहवीं में छात्र कोर्स को छोड़कर इंजीनिरिंग की कोचिंग पर ज्यादा ध्यान देते हैं और क्लास नहीं करते हैं। इस बदलाव के बाद छात्र कोर्स पर ध्यान देंगे और क्लास भी करेंगे। इस तर्क पर एकेपी यादव कहते हैं “यह केवल सिब्बल साहब का शिगुफा है। जब स्कूल में शिक्षक नहीं हैं, योग्य शिक्षक नहीं हैं, किताबें तक नहीं मिल पा रही हैं और कहें तो बुनियादी सुविधाओं से जूझ रहे हैं वैसी स्थिति में छात्र स्कूल की क्लास की ओर रुख करेंगे यह तो एक सुखद सपना जैसा ही है। वे कहते हैं इस हालात में तो मुझे लगता है कोचिंग का महत्व और बढ़ेगा। मौजू तो यह कि ज्यादा अंक लाने के होड़ में कोचिंग की ओर तो छात्र रुख करेंगे ही दूसरी ओर एप्टीट्यूड टेस्ट के लिए अलग से कोचिंग खुल जाएंगे।” अब ऐसी स्थिति में आईआईटी की प्रवेश प्रक्रिया में बदलाव होता है तो जाहिर ग्रामीण और गरीब छात्र पिसेंगे।
वही हाल यूपीएससी की परीक्षा का है। वैकल्पिक पेपर खत्म कर यहां भी एप्टीट्यूड टेस्ट लिया जाएगा। पहले छात्र अपने मन मुताबिक विषय चुनकर वैकल्पिक पेपर की परीक्षा देते थे। अब यहां भी एथिक, मोरल, तर्क क्षमता और कम्यूनिकेशन स्किल एप्टीट्यूड टेस्ट में शामिल होगा। अब यहां भी सवाल वही है। इन टेस्टों में क्षेत्रीय विविधता शामिल होनी चाहिए। दूसरी बात यह कि जो दो-तीन या चार साल से तैयारी कर रहे थे उनका क्या होगा? प्रोफेसर डीएम दिवाकर कहते हैं यदि सरकार को बदलाव ही करने थे तो दो साल पहले बता देना चाहिए था। ताकि बदलाव को स्वीकार करने में छात्रों को मानसिक रूप से तैयार होने का मौका मिल पाता।
गांव और गरीब कथित भारतीय लोकतंत्र में लगातार हाशिए पर आते जा रहे हैं। जब कभी हमारे हुक्मराणों को वोट बैंक की याद आती है तो नरेगा और मीड-डे-मील जैसी रेवड़िया बांट दी जाती है। जैसे हमारे देश के पूंजीपतियों ने अरबो-खरबों की संपत्ति अर्जित कर कई जगह मंदिरों का निर्माण करवा दिया है। ताकि जनता का क्षोभ, विक्षोभ और विद्रोह दबा रहे। हालांकि देश की आधी से ज्यादा आबादी को इसी लायक बना दिया गया है कि नरेगा से आगे सोचे ही नहीं। हमारी सरकारें ऐसी ही योजनाओं पर दंभ भरते रहती हैं। भारत खुद को विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहते नहीं थकता है। लेकिन जिस तरीके से लोगों को मुख्यधारा से लगातार अलग किया जा रहा है वह समय के साथ और भयावह रूप धारण करेगा। कई राज्यों की शिक्षा व्यवस्था तो बिल्कुल चौपट हो गई है। यदि आपको गुणवत्ता वाली शिक्षा चाहिए तो बाजार में उपलब्ध है। बाजार से शिक्षा तभी मिलेगी जब आपके पास पर्याप्त पैसे होंगे। अन्यथा सरकार की रेवड़ियों पर जिंदा रहिए।
एक सुझाव यह हो सकता है कि राज्य बोर्ड क्यों नहीं छात्रों को पर्याप्त अंक देता है? एकेपी यादव कहते हैं “केवल सीबीएसई जितना अंक देने की बात नहीं है। सवाल शिक्षा और परीक्षा की गुणवत्ता का भी है। सीबीएसई में छात्रों को केवल इसलिए ज्यादा अंक नहीं मिलते हैं कि वहां अंक ज्यादा दिए जाते हैं। यहां जितनी बुनियादी सुविधाएं हैं राज्य बोर्ड किसी भी स्तर पर मुकाबला नहीं कर सकते।” बिहार बोर्ड में अब सिलेबस, प्रश्न-पत्र और मूल्यांकन लगभग सीबीएसई पैटर्न पर कर दिया गया है। ताकि बिहार बोर्ड के छात्र भी किसी स्तर पर सीबीएसई से मुकाबला कर सके। लेकिन बात केवल प्रश्न-पत्र और मूल्यांकन तक ही सीमित नहीं है। सीबीएसई प्रतिनिधि संजीव मिश्र कहते हैं “सीबीएसई का जो भी पैटर्न है वह अपने आंतरिक ढांचा और उपलब्ध साधनों के आधार पर है। आप यदि किसी दूसरे सिस्टम के किसी एक हिस्से को एडॉप्ट करते हैं तो इसका मतलब यह कतई नहीं है कि उसके परिणाम बिल्कुल वैसे ही मिल जाएंगे। क्योंकि सीबीएसई का प्रदर्शन केवल सिलेबस और प्रश्न-पत्र के कारण नहीं है। बल्कि इसका पूरा ढांचा इसे सपोर्ट करता है। सीबीएसई बोर्ड एक्टिविटी बेस्ड एजुकेशन है वहीं राज्य बोर्ड एजुकेशन बेस्ड एक्टिविटी।” अब हम बिहार की ही बात करें तो जिन हालात में प्राथमिक और माध्यमिक स्कूल हैं ऐसे में कहां से सीबीएसई के छात्रों से मुकाबला कर पाएगा। हम एक नजर बिहार की प्राथिमक और माध्यमिक शिक्षा की हालात पर नजर डालें तो भयावह तस्वीर ऊभरकर सामने आएगी। 2007-08 की डीएसई रिपोर्ट के अनुसार राज्य में 67 हजार 874 स्कूल हैं। 23 फीसदी स्कूल बिना क्लास रुम के चल रहे हैं। छः फीसदी स्कूल सिंगल क्लास रुम वाले हैं और 29 फीसदी दो क्लास रुम वाले। मात्र तीन फीसदी स्कूलों में बिजली की पहुंच है। इस मामले में इसके बाद असम और झारखंड आता है। राज्य में एक क्लास रुम और एक शिक्षक पर 120 बच्चे हैं जो कि देश के किसी भी राज्य से ज्यादा है। 48 फीसदी स्कूलों में कॉमन ट्वायलेट है वहीं मात्र 22 फीसदी स्कूलों में गर्ल्स ट्वायलेट है। शिक्षकों के अभाव से बिहार के स्कूल भयानक तरीके से जूझ रहे हैं। छः फीसदी स्कूल मात्र एक-एक शिक्षक के भरोसे चल रहे हैं वहीं 26 फीसदी स्कूल दो-दो शिक्षक के भरोसे। 41 फीसदी शिक्षक केवल इंटर पास हैं। अब इन हालात में बिहार बोर्ड लाख सीबीएसई के तर्ज पर सिलेबस बदल ले या प्रश्न-पत्र बना ले क्या फर्क पड़ता है। कपिल सिब्बल का आईआईटी में बदलाव के पक्ष में तर्क है कि इससे कोचिंग पर छात्रों की निर्भरता कम होगी। क्योंकि बारहवीं में छात्र कोर्स को छोड़कर इंजीनिरिंग की कोचिंग पर ज्यादा ध्यान देते हैं और क्लास नहीं करते हैं। इस बदलाव के बाद छात्र कोर्स पर ध्यान देंगे और क्लास भी करेंगे। इस तर्क पर एकेपी यादव कहते हैं “यह केवल सिब्बल साहब का शिगुफा है। जब स्कूल में शिक्षक नहीं हैं, योग्य शिक्षक नहीं हैं, किताबें तक नहीं मिल पा रही हैं और कहें तो बुनियादी सुविधाओं से जूझ रहे हैं वैसी स्थिति में छात्र स्कूल की क्लास की ओर रुख करेंगे यह तो एक सुखद सपना जैसा ही है। वे कहते हैं इस हालात में तो मुझे लगता है कोचिंग का महत्व और बढ़ेगा। मौजू तो यह कि ज्यादा अंक लाने के होड़ में कोचिंग की ओर तो छात्र रुख करेंगे ही दूसरी ओर एप्टीट्यूड टेस्ट के लिए अलग से कोचिंग खुल जाएंगे।” अब ऐसी स्थिति में आईआईटी की प्रवेश प्रक्रिया में बदलाव होता है तो जाहिर ग्रामीण और गरीब छात्र पिसेंगे।
वही हाल यूपीएससी की परीक्षा का है। वैकल्पिक पेपर खत्म कर यहां भी एप्टीट्यूड टेस्ट लिया जाएगा। पहले छात्र अपने मन मुताबिक विषय चुनकर वैकल्पिक पेपर की परीक्षा देते थे। अब यहां भी एथिक, मोरल, तर्क क्षमता और कम्यूनिकेशन स्किल एप्टीट्यूड टेस्ट में शामिल होगा। अब यहां भी सवाल वही है। इन टेस्टों में क्षेत्रीय विविधता शामिल होनी चाहिए। दूसरी बात यह कि जो दो-तीन या चार साल से तैयारी कर रहे थे उनका क्या होगा? प्रोफेसर डीएम दिवाकर कहते हैं यदि सरकार को बदलाव ही करने थे तो दो साल पहले बता देना चाहिए था। ताकि बदलाव को स्वीकार करने में छात्रों को मानसिक रूप से तैयार होने का मौका मिल पाता।
गांव और गरीब कथित भारतीय लोकतंत्र में लगातार हाशिए पर आते जा रहे हैं। जब कभी हमारे हुक्मराणों को वोट बैंक की याद आती है तो नरेगा और मीड-डे-मील जैसी रेवड़िया बांट दी जाती है। जैसे हमारे देश के पूंजीपतियों ने अरबो-खरबों की संपत्ति अर्जित कर कई जगह मंदिरों का निर्माण करवा दिया है। ताकि जनता का क्षोभ, विक्षोभ और विद्रोह दबा रहे। हालांकि देश की आधी से ज्यादा आबादी को इसी लायक बना दिया गया है कि नरेगा से आगे सोचे ही नहीं। हमारी सरकारें ऐसी ही योजनाओं पर दंभ भरते रहती हैं। भारत खुद को विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहते नहीं थकता है। लेकिन जिस तरीके से लोगों को मुख्यधारा से लगातार अलग किया जा रहा है वह समय के साथ और भयावह रूप धारण करेगा। कई राज्यों की शिक्षा व्यवस्था तो बिल्कुल चौपट हो गई है। यदि आपको गुणवत्ता वाली शिक्षा चाहिए तो बाजार में उपलब्ध है। बाजार से शिक्षा तभी मिलेगी जब आपके पास पर्याप्त पैसे होंगे। अन्यथा सरकार की रेवड़ियों पर जिंदा रहिए।
‘पीपली लाइव’ नहीं पीपली पैकेज
‘पीपली लाइव’ विमल राय की ‘दो बीघा जमीन’ नहीं है। शायद इसलिए भी कि अनूषा रिजवी‚ विमल राय नहीं हैं। लेकिन इस तर्क के कोई आधार तो बिल्कुल नहीं है कि ‘दो बीघा जमीन’ वाला अब समय नहीं है। खास करके मजदूर और सीमांत किसानों के मामले में। सच तो यह है कि यह समय और शातिर है। लेकिन ‘पीपली लाइव’ इस शातिर समय की त्रासदियों को केवल छू पाती है। ऐसा इसलिए कि अनूषा रिजवी और आमिर खान को ‘पीपली लाइव’ में इस समय को सेलीब्रेट करना भी अनिवार्य था। ‘पीपली लाइव’ के कथानक और कथावस्तु कोई नायाब नहीं है। भारतीय किसान और ग्राम्य समाज के जीवन व गतिविधियां हिन्दी सिनेमा में कई बार केंद्रीय विषय-वस्तु बनी हैं। केवल विषय-वस्तु ही नहीं वरन वहां की त्रासदियों और विडंबनाओं को दमदार तरीके से प्रस्तुत भी किया गया। महबूब की ‘मदर इंडिया’(1957), ‘दो बीघा जमीन’ फिर बीसवीं सदी में आएं तो आशुतोष गोवारीकर की ‘लगान’ और ‘स्वदेस’ भी भारतीय गांव और किसान पर सार्थक सिनेमा है। यह कहने में तनीक भी संकोच नहीं है कि ‘पीपली लाइव’, ‘स्वदेस’ जितना भी सार्थक नहीं है। ऐसा तब है जब विख्यात रंगकर्मी हबीब तनवीर के नया थियेटर के कलाकार इस फिल्म में हैं। लेकिन दुर्भाग्य से यह नया सिनेमा नहीं है। सवाल यह है कि आज के समय में मदर इंडिया के बिरजू (सुनील दत) या दो बीघा जमीन में बलराज साहनी के चरित्र या लगान के भुवन (आमिर खान) या फिर स्वदेस के मोहन भागर्व (शाहरुख खान) की प्रासंगिकता है अथवा पीपली लाइव के नत्था और बुधिया की। हम यह नहीं कह सकते हैं कि हमारे समाज में नत्था और बुधिया नहीं हैं। लेकिन पीपली लाइव नत्था और बुधिया के प्रति संवेदनशील नहीं है। दर्शकों को दोनो चरित्र द्रवित या आक्रोशित नहीं करते बल्कि गुदगुदाते नजर आते हैं। दर्शक दोनों चरित्रों के प्रति संवेदनशील नहीं होते हैं बल्कि उनके मन में फिल्म खत्म होने तक यह धारणा पैठ बना चुकी होती है कि दोनों की नियति ही यही है। यानी पीपली लाइव यथास्थितिवाद को अमली-जामा पहनाती है। नत्था और बुधिया इस फिल्म के नायक नहीं हैं। बल्कि ऐसे दो मुर्ख ग्रामीण हैं जो बीड़ी पीते हैं और निकम्मे हैं। देश में विकास की चल रही फैक्ट्रियों से निकले अपशिष्ट हैं। देश और व्यवस्था के लिए नत्था व बुधिया फालतु के चीज तो हैं ही तो पीपली लाइव में भी वे इसी रूप में इस्तेमाल किए गए हैं। पीपली लाइव एक ऐसी संवेदनहीन फिल्म है जहां बाप से बेटा पूछता है कि तुम आत्महत्या कब करोगे हमे ठेकेदार व थानेदार बनना है। नत्था के बेटे की उम्र इतनी भी कम नहीं है कि वह बचपना के कारण बोलता है। हमे यह नहीं भूलना चाहिए कि अभावग्रस्तता तो संवेदना को समय से पहले ही प्रौढ़ बना देती है। मदर इंडिया का बिरजु बचपन में ही लाला की शातिर चाल को समझ लेता है। वह लाला को बचपन में ही संकेत दे देता है कि आने वाले समय में संभल जाओ। लेकिन यहां नत्था की बेबसी को उसका बेटा भी मजाक बनाता है। क्या नत्था का बेटा अपने बाप और घर की बेबसी से इतना बेखबर है? और वह यहां इतना समझदार कैसे बन जाता है कि मेरा बाप आत्महत्या करेगा तो लाख रूपए मुआवजा मिलेगा। जिस बेटे के जीवन का हर पल बेबसी की कशमकश में पल रहा हो वह इतना संवेदनहीन कैसे हो सकता है? दरअसल यह खाए-पिए-अघाए मध्यवर्गीय दर्शकों को गुदगुदाने के लिए छ्योंक लगाया गया है। तो हम किस मुंह से कहें कि यह फिल्म पीपली लाइव है। हम इसे पीपली पैकेज क्यों न कहें? मीडिया में तो बढ़-चढ़कर इस फिल्म को इंडिया लाइव तक कहा गया। तो क्या हम मान लें कि भारतीय ग्रामीण नत्था और बुधिया जैसे केवल बीड़ी पीते हैं और निकम्मे जैसे नेताओं के पैर पकड़ते चलते हैं और कुछ न सुझा तो मुआवजे के लिए आत्महत्या के लिए सोचते हैं। या फिर यह मान लिया जाए कि होरी महतो जैसे लोग बिना मतलब के अनवरत जमीन खोदते रहते हैं और मर जाते हैं। अनूषा से यह पूछा जाना चाहिए कि होरी महतो लगातार खाली जमीन क्यों खोदते रहता है? पीपली लाइव में पीपली गांव का लोकेशन है पीपली का जनजीवन नहीं है। नत्था और बुधिया के इर्द-गिर्द जिस जनजीवन को दिखाया जाता है वह पीपली का नहीं है बल्कि पूंजीवादी सिनेमा का है जहां उसे केवल रुढ़ियां और अंधविश्वास ही दिखता है। तो क्यों न मीडिया इसे मीडिया लाइव कहता है?
श्याम बेनेगल ने भी 2009 और 10 में भारतीय ग्रामीण जीवन पर आधारित ‘वेलकम टु सज्जनपुर’ और ‘वेल डन अब्बा’ बनाई। इन दोनो फिल्मों में हम भारत की सफेद और स्याह तस्वीर को देख सकते हैं। ‘वेल डन अब्बा’ में तो भारत का ग्रामीण समाज, क्षेत्रीय राजनीति, मीडिया, ब्यूरोक्रेट्स और शहर व गांव के फासले अपने वास्तविक मिजाज में दिखते हैं। वहीं ‘पीपली लाइव’, मीडिया लाइव के चक्कर में कोई लाइव को कवर नहीं कर पाती है। इस फिल्म में मीडिया और खास करके समाचार चैनलों के जिस पहलू को परोसने की कोशिश की गई है वह कोई नई कोशिश नहीं है। नई कोशिश का कुछ ज्यादा मतलब नहीं है तो कम-से-कम नया ट्रीटमेंट तो होना ही चाहिए था। वह भी नहीं है। कई बार तो इस फिल्म में जो दिखाने की कोशिश की गई है वह अतिरंजित मालूम पड़ती है। दर्शकों को हंसाने के चक्कर में फिल्म कई बार हास्यास्पद मालूम पड़ती है। समाचार चैनल भारत लाइव के संवाददाता दीपक द्वारा नत्था के मल की व्याख्या हकीकत से ज्यादा दर्शकों को गुदगुदाने के लिए फार्मूला ही मालूम पड़ता है। एक तरफ जनमोर्चा दैनिक के रिपोर्टर विजय मिट्टी खोदते होरी महतो को मवाली और लफंगे के अंदाज में कहता है-“ ए अंकल क्या कर रहे हो। साला कुछ बोलता भी नहीं है।” और आगे गाली भी देता है। वहीं विजय को सबसे संवेदनशील पत्रकार के रूप में भी दिखाया जाता है। तो क्या विजय की प्रोफेशनल संवेदनशीलता इतनी एकांगी है कि व्यवहार में बिल्कुल नहीं दिखती है? मीडिया के आतंक और गैरजिम्मेदारी की बयां हिन्दी सिनेमा में जिन तरीकों से अब-तक किया जा चुका है पीपली लाइव उनसे उन्नीस ही मालूम पड़ती है। इस मामले में ‘पेज थ्री’ और ‘मुंबई मेरी जान’ ज्यादा स्वभाविक फिल्म है। जब हिन्दी सिनेमा में राजनीति की बात आती है तो ‘सब धन बाइस पसेरी’ जैसी स्थिति है। यहां हर नेता कोई ठाकुर या सामंत जैसा है। अपराधी है और जातिवादी है। यदि जाति का ठाकुर है तो सामंती और अमानवीय प्रवृत्ति का होगा और जाति का यादव है तो भ्रष्ट और अपराधी ही होगा। पीपली लाइव भी इसी फॉर्मूले को अपनाती है। राम यादव और भाई ठाकुर के रूप में वर्तमान भारतीय राजनीति के पुरे चरित्र की उल्टी करके रख दी जाती है।
यदि हम फिल्म के कुछ सकारात्मक पहलुओं की बात करें तो नत्था के अम्मा और उसकी पत्नी के नोंक-झोंक पूरी तरह से एक अभावग्रस्त परिवार के सास-बहु के नोंक-झोंक है। यह ऐसा नोक-झोक है जहां रिश्ते भारी और बोझ मालूम पड़ते हैं। अम्मा द्वारा बहु को ‘मरदमार’ और ‘डायन’ कहा जाना एक भारतीय ग्रामीण परिवार की अभावग्रस्ता के कारण ऊपजी आंतरिक और पारंपरिक कलह को दशार्ता है। फिल्म में फोटोग्राफी की सराहना तो होनी ही चाहिए। बकरी के साथ नत्था और बुधिया का पूरे परिवार के साथ वाली फोटो वाकई में ग्रामीण परिवेश की जीवंत तस्वीर है। एक दृश्य भी काफी मारक है जब पूरा मीडिया का लाव-लशकर वापस लौटता है तो पीपली मिनरल वाटर की खाली बॉटलों से पट जाता है। याद कीजिए अमरीकी राष्ट्रपति बुश ने जब भारत दौरा किया था तो वे अपने देश से पानी लेकर आए थे। हमारा सभ्य समाज भी कुछ इसी तरह सोचने लगा है कि हम गांव में गरीबों या दलितों के घर का पानी पिएंगे तो पता नही कोई संक्रमण का सामना करना पड़े। मिनरल वाटर की खाली बॉटलें फिल्म को नई ऊर्जा देती है लेकिन यह बात अलग है कि नाकाफी है। हम प्रतिभाशाली एक्टर रघुवीर यादव की बात करें तो उन्हें यहां बहुत कुछ करने के अवसर नहीं थे। जितने अवसर थे उन्होंने बेहतर किया। लेकिन रघुवीर यादव का नाम आते ही ‘शहीद-ए-मोहब्बत’, ‘अर्थ 1947’ और ‘सलाम बॉम्बे’ जैसी फिल्में याद आने लगती हैं। लेकिन रघुवीर यादव के लिए यह ‘पीपली लाइव’ थी। और ‘पीपली लाइव’ का सच यह है कि मीडिया को नंगा करने के चक्कर में स्वयं भी उतना ही नंगा दिखता है। मतलब न ‘पीपली लाइव’ न मीडिया लाइव बस पीपली पैकेज।
फिल्म में महंगाई कोई मुद्दा नहीं है। लेकिन फिल्म का सबसे लोकप्रिय गीत ‘महंगाई डायन’ महंगाई पर ही टिप्पणी है। यह गीत फिल्म की तारतम्यता को आगे नहीं बढ़ता है। क्योंकि फिल्म के कंटेंट से कोई रिश्ता नहीं है। हां महंगाई डायन गीत का ढोलक और झाल के साथ दृश्य भले ही गांव के खांटी गंवई परिवेश को जीवंत बनाता मालूम पड़ता है। ‘देश मेरा रंगरेज रे बाबू’ गीत भले ही कई विडंबनाओं को समेटे हुए है। फिल्म में कॉस्टयूम डिजाइन सराहनीय है। लोगों के पहनावे बिल्कुल पीपली जैसे लगते हैं। कुल मिलाकर पीपली एक पैकेज सिनेमा है जिसमें पीपली का दर्द नहीं है। बस पीपली एक विषय है जहां मीडिया वालों का अतिरंजित जमावड़ा कुछ दिनों के लिए है।
श्याम बेनेगल ने भी 2009 और 10 में भारतीय ग्रामीण जीवन पर आधारित ‘वेलकम टु सज्जनपुर’ और ‘वेल डन अब्बा’ बनाई। इन दोनो फिल्मों में हम भारत की सफेद और स्याह तस्वीर को देख सकते हैं। ‘वेल डन अब्बा’ में तो भारत का ग्रामीण समाज, क्षेत्रीय राजनीति, मीडिया, ब्यूरोक्रेट्स और शहर व गांव के फासले अपने वास्तविक मिजाज में दिखते हैं। वहीं ‘पीपली लाइव’, मीडिया लाइव के चक्कर में कोई लाइव को कवर नहीं कर पाती है। इस फिल्म में मीडिया और खास करके समाचार चैनलों के जिस पहलू को परोसने की कोशिश की गई है वह कोई नई कोशिश नहीं है। नई कोशिश का कुछ ज्यादा मतलब नहीं है तो कम-से-कम नया ट्रीटमेंट तो होना ही चाहिए था। वह भी नहीं है। कई बार तो इस फिल्म में जो दिखाने की कोशिश की गई है वह अतिरंजित मालूम पड़ती है। दर्शकों को हंसाने के चक्कर में फिल्म कई बार हास्यास्पद मालूम पड़ती है। समाचार चैनल भारत लाइव के संवाददाता दीपक द्वारा नत्था के मल की व्याख्या हकीकत से ज्यादा दर्शकों को गुदगुदाने के लिए फार्मूला ही मालूम पड़ता है। एक तरफ जनमोर्चा दैनिक के रिपोर्टर विजय मिट्टी खोदते होरी महतो को मवाली और लफंगे के अंदाज में कहता है-“ ए अंकल क्या कर रहे हो। साला कुछ बोलता भी नहीं है।” और आगे गाली भी देता है। वहीं विजय को सबसे संवेदनशील पत्रकार के रूप में भी दिखाया जाता है। तो क्या विजय की प्रोफेशनल संवेदनशीलता इतनी एकांगी है कि व्यवहार में बिल्कुल नहीं दिखती है? मीडिया के आतंक और गैरजिम्मेदारी की बयां हिन्दी सिनेमा में जिन तरीकों से अब-तक किया जा चुका है पीपली लाइव उनसे उन्नीस ही मालूम पड़ती है। इस मामले में ‘पेज थ्री’ और ‘मुंबई मेरी जान’ ज्यादा स्वभाविक फिल्म है। जब हिन्दी सिनेमा में राजनीति की बात आती है तो ‘सब धन बाइस पसेरी’ जैसी स्थिति है। यहां हर नेता कोई ठाकुर या सामंत जैसा है। अपराधी है और जातिवादी है। यदि जाति का ठाकुर है तो सामंती और अमानवीय प्रवृत्ति का होगा और जाति का यादव है तो भ्रष्ट और अपराधी ही होगा। पीपली लाइव भी इसी फॉर्मूले को अपनाती है। राम यादव और भाई ठाकुर के रूप में वर्तमान भारतीय राजनीति के पुरे चरित्र की उल्टी करके रख दी जाती है।
यदि हम फिल्म के कुछ सकारात्मक पहलुओं की बात करें तो नत्था के अम्मा और उसकी पत्नी के नोंक-झोंक पूरी तरह से एक अभावग्रस्त परिवार के सास-बहु के नोंक-झोंक है। यह ऐसा नोक-झोक है जहां रिश्ते भारी और बोझ मालूम पड़ते हैं। अम्मा द्वारा बहु को ‘मरदमार’ और ‘डायन’ कहा जाना एक भारतीय ग्रामीण परिवार की अभावग्रस्ता के कारण ऊपजी आंतरिक और पारंपरिक कलह को दशार्ता है। फिल्म में फोटोग्राफी की सराहना तो होनी ही चाहिए। बकरी के साथ नत्था और बुधिया का पूरे परिवार के साथ वाली फोटो वाकई में ग्रामीण परिवेश की जीवंत तस्वीर है। एक दृश्य भी काफी मारक है जब पूरा मीडिया का लाव-लशकर वापस लौटता है तो पीपली मिनरल वाटर की खाली बॉटलों से पट जाता है। याद कीजिए अमरीकी राष्ट्रपति बुश ने जब भारत दौरा किया था तो वे अपने देश से पानी लेकर आए थे। हमारा सभ्य समाज भी कुछ इसी तरह सोचने लगा है कि हम गांव में गरीबों या दलितों के घर का पानी पिएंगे तो पता नही कोई संक्रमण का सामना करना पड़े। मिनरल वाटर की खाली बॉटलें फिल्म को नई ऊर्जा देती है लेकिन यह बात अलग है कि नाकाफी है। हम प्रतिभाशाली एक्टर रघुवीर यादव की बात करें तो उन्हें यहां बहुत कुछ करने के अवसर नहीं थे। जितने अवसर थे उन्होंने बेहतर किया। लेकिन रघुवीर यादव का नाम आते ही ‘शहीद-ए-मोहब्बत’, ‘अर्थ 1947’ और ‘सलाम बॉम्बे’ जैसी फिल्में याद आने लगती हैं। लेकिन रघुवीर यादव के लिए यह ‘पीपली लाइव’ थी। और ‘पीपली लाइव’ का सच यह है कि मीडिया को नंगा करने के चक्कर में स्वयं भी उतना ही नंगा दिखता है। मतलब न ‘पीपली लाइव’ न मीडिया लाइव बस पीपली पैकेज।
फिल्म में महंगाई कोई मुद्दा नहीं है। लेकिन फिल्म का सबसे लोकप्रिय गीत ‘महंगाई डायन’ महंगाई पर ही टिप्पणी है। यह गीत फिल्म की तारतम्यता को आगे नहीं बढ़ता है। क्योंकि फिल्म के कंटेंट से कोई रिश्ता नहीं है। हां महंगाई डायन गीत का ढोलक और झाल के साथ दृश्य भले ही गांव के खांटी गंवई परिवेश को जीवंत बनाता मालूम पड़ता है। ‘देश मेरा रंगरेज रे बाबू’ गीत भले ही कई विडंबनाओं को समेटे हुए है। फिल्म में कॉस्टयूम डिजाइन सराहनीय है। लोगों के पहनावे बिल्कुल पीपली जैसे लगते हैं। कुल मिलाकर पीपली एक पैकेज सिनेमा है जिसमें पीपली का दर्द नहीं है। बस पीपली एक विषय है जहां मीडिया वालों का अतिरंजित जमावड़ा कुछ दिनों के लिए है।
Tuesday, July 27, 2010
गंभीर हिन्दी सिनेमा में सांप्रदायिकता एवं राष्ट्रवाद
अब तक बने हिन्दी सिनेमा में कुछ ऐसी फिल्में भी हैं जो सांप्रदायिकता एवं राष्ट्रवाद को गंभीरता और विवेकपूर्ण तरीके से विश्लेषित करती हैं। इन फिल्मों में यह ईमानदारी से दिखलाने की कोशिश की गई है कि देश में सांप्रदायिकता, धर्मों के बीच सहज-स्वाभाविक टकराव नहीं है बल्कि यह राजनीतिक हित साधने के लिए प्रायोजित की जाती है। सांप्रदायिकता की जड़ों तक पहुँचने में इन फिल्मों ने सफलता हासिल की है। यहाँ किसी को प्रत्यक्ष रूप से दोषी नहीं ठहराया जाता है बल्कि घटनाओं का निष्पक्ष विश्लेषण और व्याख्या है। सशक्त रूपक व ऐतिहासिक पृष्ठभूमि है जहाँ सब कुछ आइने की तरह दिखता है। यहाँ देशभक्ति के उफान और अंधराष्ट्रवाद के लिए कोई जगह नहीं है बल्कि मानवतावाद एवं मानवीय त्रासदियों को समग्रता में देखने की सफल कोशिश है। कट्टरतावाद और फांसीवाद का जबर्दस्त तरीके से निषेध है। यथार्थ का चित्रण यथार्थ जैसा है कोई घालमेल नहीं है और हम कह सकते हैं कि इन फिल्मों में कलाबोध की मजबूत जमीन है। इन फिल्मों में गर्महवा (1973), तमस (1987), ट्रेन टू पाकिस्तान (1997), शहीद-ए-मोहब्बत (1999), नसीम (1995), मम्मो (1994), 1947 द अर्थ (1999), मि0 एण्ड मिसेज अय्यर (2002), माचिस (1996), पिंजर (2003) प्रमुख रूप से है।
भारत में सांप्रदायिकता और राष्ट्रवाद की बात देश विभाजन को शामिल किए बिना नहीं की जा सकती है। देश विभाजन केवल भौगोलिक विभाजन नहीं था बल्कि विश्वास, समरसता एवं मनुष्यता का भी विभाजन साबित हुआ। तब नेहरू और जिन्ना ने शायद ही सोचा होगा कि विभाजन इतना विध्वंसक होगा। स्थानांतरण और पुनर्वास के बीच लाखों जिन्दगियाँ इतिहास में समा जाएंगी और लाखों दिलों से निकली कसक आधी सदी के बाद भी समाज को टीसती रहेगी, देश दर्द तो महसूस करता रहेगा, मगर कभी उस घाव का इलाज नहीं करेगा जो धीरे-धीरे नासूर बनेगा और फिर उससे आतंकवाद का ऐसा जहरीला मवाद निकलेगा जो दोनों देशों को लम्बी बर्बादी की राह पर मोड़ देगा। आज भारत और पाकिस्तान जिस समान तकलीफ से अलग-अलग जूझ रहे हैं, उसके बीज विभाजन में है। आतंकवाद, धर्म, सांप्रदायिकता और राष्ट्रवाद के घालमेल से देश अलगाववाद जैसी समस्याओं से जूझ रहा है। इन समस्याओं से पाकिस्तान को, बिल्कुल अलग नहीं रखा जा सकता है। तात्पर्य यह है कि देश विभाजन एक ऐसी त्रासदी थी जिससे भारत और पाकिस्तान अब तक नहीं उबर पाए हैं। दोनों देशों के बीच अब तक तीन विध्वंसक लड़ाइयाँ हो चुकी हैं बावजूद स्थिति वैसी ही बनी हुई है।
इतनी बड़ी त्रासदी को भला कोई कला माध्यम कैसे उपेक्षित कर सकता है। कोई भी कला माध्यम समकालीनता से मुँह नहीं चुरा सकता। समय की विशेषताओं, विडंबनाओं, दशा- दिशा तथा समस्याओं का विभिन्न कला माध्यमों में चित्रण स्वाभाविक है। हिंदी, उर्दू, पंजाबी, सिंधी और बंगाली भाषा के साहित्य में विभाजन की विभीषिका और उसकी पीड़ा को विभिन्न रूपों और स्तरों पर चित्रित किया गया है। प्रसिद्ध गीतकार गुलजजार का कहना है कि विभाजन के समय और दशकों बाद तक साहित्यकार विभाजन की पीड़ा को स्वर देते रहे और मानवीय दृष्टिकोण से दोनों ही संप्रदायों के अभिशप्त नागरिकों की कथा कहते रहे। देश के राजनीतिज्ञों ने दो राष्ट्र के सिद्धांत के आधार पर भारत और पाकिस्तान की प्रभुत्व सम्पन्नता स्वीकार कर ली मगर साहित्यकारों ने इसे कभी स्वीकार नहीं किया और न ही अपनी रचनाओं में मान्यता दी। विभाजन की पृष्ठभूमि पर ढेर सारा साहित्य रचा गया, मगर आश्चर्यजनक है कि फिल्मकारों ने विभाजन के प्रति वैसी चिंता और छटपटाहट नहीं दिखाई। साहित्यकारों की तरह कई ऐसे फिल्मकार भी थे, जो विभाजन की लपटों की चपेट से निकलकर आए थे। फिर भी वे खामोश रहे और मनोरंजन के नाम पर सपनीली और काल्पनिक प्रेम कहानियाँ परोसते रहे। साहित्यकारों जैसा उद्वेग फिल्मकारों में नहीं दिखाई पड़ता।’’ आजादी के बाद नेहरू ने नवनिर्माण की जो प्रक्रिया शुरू की वह रोमांटिक समय था। फिल्मों में सपने, दबाव, रोमांस, निराशा और हकीकत विभिन्न रूप-रंग में आते रहे मगर निकट अतीत की इस त्रासदी को फिल्मकारों ने विषय बनाने से परहेज ही किया।
चूँकि देश का बँटवारा धर्म के आधार पर हुआ था इसलिए बँटवारे के बाद जो नफरत फैली वह धार्मिक ही थी। शायद हमारे फिल्मकार बँटवारे के कटु यथार्थ को विषय बनाने में डरते होंगे ताकि कोई समुदाय नाखुश न हो जाए। अतीत के गहरे जख्म को हरा करने की साहस न कर पाते होंगे। इस विषय पर लंबे समय तक हमारे फिल्म जगत में शून्यता रही। 1973 में एम0एस0 सथ्यू ने ‘गर्म हवा’ बनाकर इस खालीपन में मजबूती के साथ दस्तक दिया। ‘गर्म हवा’ में विभाजन के बाद ऊपजे संकट से विभिन्न सवालों को उठाया गया। आखिर कोई मुसलमान अपना वतन छोड़कर पाकिस्तान क्यों जाए। केवल स्थान की बात नहीं है बल्कि रोजगार, व्यवसाय, घर, माटी, समाज सबको एक साथ इसलिए छोड़ दे कि वह मुसलमान है? इस फिल्म का पात्र सलीम (बलराज साहनी) सवाल उठाता है कि क्या मैंने पाकिस्तान मांगा था? जिसने पाकिस्तान माँगा था और जिसने बनवाया, वह जाए मैं क्यों जाऊँ? यह एक महत्वपूर्ण और क्रांतिकारी सवाल था। इस फिल्म ने उस समय सवाल उठाया जब हिन्दुओं के मन में यह धारणा पैठ रही थी कि मुसलमानों के लिए पाकिस्तान दे दिया गया है और उन्हें पाकिस्तान चला जाना चाहिए। फिल्म के प्रदर्शन पर प्रतिबंध भी लगाया गया लेकिन इंदिरा गाँधी के हस्तक्षेप के बाद प्रदर्शित हो पाई।
‘गर्म हवा’ के बाद ऐसा लग रहा था कि अब इस विषय पर फिल्मकारों की नजर जाएगी फलस्वरूप और कई फिल्में बनेंगी जिससे हमारी राजनीतिक व्यवस्था में अतीत की बड़ी त्रासदी पर विमर्श का माहौल तैयार होगा। लेकिन उस रूप में फिल्मकारों ने दिलचस्पी नहीं दिखलायी। ‘गर्म हवा’ के बाद 1987 में गोविंद निहलानी ने ‘तमस’ फिल्म बनायी। इससे पहले उन्होंने ‘तमस’ धारावाहिक का निर्देशन किया था। ‘तमस’ विभाजन और साम्प्रदायिकता पर जबर्दस्त फिल्म बनी जो विभाजन के विभिन्न षड्यंत्रों को उजागर करती है। गोविंद निहलानी का परिवार पाकिस्तान से उखड़कर भारत आया था। उन्होंने छोटी उम्र में विभाजन की हिंसा देखी थी। आज तक हिंसा के वे बिंब उनकी आँखों के सामने मंडराते रहते हैं। गोविंद निहलानी का कहना है ‘‘दरअसल विभाजन की स्मृतियाँ समूची त्रासद स्थितियों के साथ आज भी मौजूद हैं मेरे मन में। मैं तब काफी छोटा था, लेकिन विभाजन को मैंने अपनी आँखों से देखा था। विभाजन के बाद मेरे परिवार ने हिन्दुस्तान में कदम रखा था। बड़े होने पर मेरे मन में यह इच्छा बनी रही कि विभाजन की त्रासदी को परदे पर उतारूँगा।’’ बँटवारे पर बनी तीसरी महत्वपूर्ण फिल्म ट्रेन टू पाकिस्तान (1997) है। पैमला रूक्म के निर्देशन में बनी तथा खुशवंत सिंह के उपन्यास पर आधारित इस फिल्म के रंगमंच तथा कलात्मक सिनेमा के तीन अनुभवी कलाकारों (मोहन अगाशे, निर्मल पाण्डे, रजत कपूर) ने अभिनय किया। फिल्म में स्मृति मिश्रा ने मुस्लिम लड़की का किरदार अदा किया है। प्रतिदिन लाशों से पटी गाड़ियाँ गाँव से होकर गुजरती लेकिन किसी को परवाह नहीं। स्थानीय मजिस्ट्रेट भोग विलास में लिप्त हैं। एक दिन एक कम्यूनिस्ट कार्यकर्ता (रजत कपूर) गाँव पहुँचता है और लोगों को एकजुट करने की कोशिश करता है। सांप्रदायिकता की आग में झुलसती पंजाब में सिक्ख डाकू (निर्मल पाण्डे) तथा मुस्लिम बाला (स्मृति मिश्रा) की प्रेम कहानी मानो जीवन के उम्मीद जगाती हो। बँटवारे की राजनीति से बेखबर यह युगल प्रेमी नफरत और द्वेष के माहौल में इंसानियत को जिंदा रखने की कोशिश करते हैं।
1999 में बनी ‘शहीद-ए-मोहब्बत’ बँटवारे पर पंजाब में होने वाली घटना पर आधारित है। आज भी इसे पंजाब की वीरगाथाओं के रूप में जाना जाता है। इस फिल्म में अवकाश प्राप्त फौजी बूटा सिंह (गुरुदास मान) अपने गाँव लौटता है तो देखता है चारों तरफ हिंसा और नफरत की आग फैली है। देश बँटवारे के बाद स्थानांतरण और पुनर्वास की जद्दोजहद में हिन्दू मुसलमान और सिक्ख आपस में ही टकरा रहे हैं। मुसलमानों का एक जत्था पाकिस्तान जा रहा है तभी सिक्ख दंगाई वहाँ हमला बोल देते हैं और जैनब नाम की लड़की को भगा लाते हैं। बूटा सिंह उसकी जान बचाने के लिए खरीद लेता है। दोनों एक दूसरे से प्यार करने लगते हैं और शादी कर लेते हैं। एक दिन जैनब (दिव्या दत्ता) एक बच्ची जन्म देती है। बूटा अत्यंत खुश है। लेकिन उसकी खुशी विधाता को रास न आई। अचानक भारत तथा पाकिस्तान की सरकारों के आपसी समझौते के मुताबिक जैनब को अपहृत महिला के तौर पर पहचान लिया गया। उसे पाकिस्तान भेजने का फैसला लिया गया। फिल्म के अंतिम दृश्यों में सबसे मार्मिक है सरहद पार लगाए गए कंटीले तारों के एक तरफ बूटा सिंह और उसकी छोटी बच्ची तथा दूसरी तरफ उसकी पत्नी जैनब। यह तार शक्तिशाली रूपक है जो मानवीय रिश्तों में बनी बाधाओं को चरितार्थ करता है। यह फिल्म राजनीतिक फैसलों और व्यवस्था तथा धर्म एवं परंपराओं को कटघरे में खड़ी करती है।
‘शहीद-ए-मोहब्बत’ में रघुवीर यादव का जो चरित्र विकसित किया गया है वह अत्यंत ही मार्मिक है। एक ऐसा इंसान जो नहीं जानता है कि हिन्दू, मुसलमान और सिक्ख में क्या फर्क है। वह वैसा आम आदमी है जो न तो शिक्षित है न ही उसमें कोई राजनीतिक चेतना है बावजूद वह समाज में सबके साथ अपने धून में जीता है। उसके लिए मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा कुछ भी अछूता नहीं है। वह पूजन स्थलों पर पूजा के लिए नहीं बल्कि प्रसाद के लिए जाता है लेकिन हिन्दू दंगाई उसे केवल मुस्लिम होने के कारण मार डालते हैं। नब्बे के दशक में हिन्दी सिनेमा में मुस्लिम चरित्र मजबूती के साथ उपस्थिति दर्ज कराने लगे थे। देश की राजनीतिक परिस्थितियाँ भी नब्बे के दशक में सांप्रदायिकता की तरफ उन्मुख थी। रामजन्मभूमि आंदोलन और बाबरी विध्वंस का यह समय था। मुसलमानों की वफादारी पर शक करने का माहौल बनाया जा रहा था। चूँकि बँटवारे के बाद मुसलमानों के रिश्तेदार पाकिस्तान में भी थे लेकिन बदले राजनीतिक माहौल में भारतीय मुसलमान अपने रिश्तेदारों से मिल-जुल नहीं सकते थे। यदि कोई बात करने की कोशिश करता तो पाकिस्तान का जासूस बनने की संभावना बनी रहती थी। परिस्थितियाँ ऐसी बनाई जा रही थी कि अपने ही देश में वे बेगाने होते गए और मुख्यधारा से कटते गए। बाबरी विध्वंस के बाद मुसलमानों के मन में यह धारणा और मजबूत हुई कि यहाँ की सरकार उनहें सुरक्षा नहीं दे सकती है। देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था चुनावी जोड़-तोड़ की तरफ मोड़ दी गयी। सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की प्रक्रिया 90 के दशक में ही तेज हुई। कट्टरपंथियों का प्रभाव बढ़ता ही गया फलस्वरूप आतंकवाद और धार्मिक कट्टरता जैसी समस्या उभरकर सामने आई।
1994 में श्याम बेनेगल ने जो कि गंभीर फिल्मकार के रूप में जाने जाते हैं, ‘मम्मो’ बनायी। हालाँकि मम्मो में स्पष्ट रूप से सांप्रदायिकता और विभाजन को विषयवस्तु नहीं बनाया गया है लेकिन विभाजन के बाद अलग हुए परिवारों और उनके प्रति भारत में सिस्टम के व्यवहार पर फोकस किया गया है। इस फिल्म में दो बहनों की कहानी है। फयाजी (सुरेखा सीकरी) और महमूदा बेगम अहमद अली (फरीदा जलाल) दो बहने हैं। बँटवारे के बाद महमूदा (मम्मो) अपने पति के साथ पाकिस्तान चली जाती है पति के अचानक इंतकाल हो जाने के कारण परिवार वाले उसके साथ अमानवीय व्यवहार करते हैं। वह पाकिस्तान से हिन्दुस्तान अपनी बहन के यहाँ बंबई आ जाती है। मम्मो तीन महीने का वीजा लेकर आती है लेकिन तीन महीने बाद भी वह जाना नहीं चाहती है। वह पुलिस इंस्पेक्टर से वीजा की अवधि बढ़ाने के लिए अर्ज करती है। मम्मो इंस्पेक्टर से कहती है बेटा यह मेरा वतन है। मैं हिन्दुस्तानी हूँ, मेरा जन्म हरियाणा के पानीपत में हुआ था। इंस्पेक्टर कहता है ‘‘ यह दो जनों की बात नहीं है दो मुल्कों की बात है।’’ देश बँटवारे ने मम्मो को कहीं का नहीं छोड़ा है। कुछ ही समय पहले उसके पास सब कुछ था लेकिन अचानक एक फैसला उसे बेगाना बना देता है। यह केवल एक मम्मो की कहानी नहीं है बल्कि मम्मो जैसी कितनी महिलाएँ बेगानेपन की दंश झेलती रही हैं बँटवारे के बाद। मम्मो को कानून हिन्दुस्तान में रहने की इजाजत नहीं देता है अंततः उसे पाकिस्तान जाना पड़ता है। लेकिन मम्मो अंत तक मानती नहीं है और फर्जी मृत्यु प्रमाण पत्र बनवाकर हमेशा के लिए हिन्दुस्तान में अपनी बहन के पास रह जाती है। श्याम बेनेगल जिन फिल्मों के लिए जाने जाते हैं उन्हीं फिल्मों में से ‘मम्मो’ एक है। श्याम बेनेगल की स्त्रीवादी नजरिया मम्मो में साफ झलकती है। यहाँ केंद्रीय भूमिका में दो बहने ही हैं। पुरुष पात्र की कोई खास प्रधानता नहीं है। इस फिल्म के माध्यम से बेनेगल ने भी सवाल उठाया है कि कोई मुसलमान पाकिस्तान में क्यों जाए जहाँ अपना कोई है ही नहीं। क्या केवल इसलिए कि वह मुसलमान है? श्याम बेनेगल ने अपनी फिल्म में मुसलमान किरदारों को मजबूती के साथ चित्रित किया है। इनके यहाँ विमर्श और संवाद की पूरी गुंजाइश है। बेनेगल की फिल्मों में मुसलमान बढ़ी दाढ़ी, कट्टर व रूढ़िवादी के रूप में चित्रित नहीं हैं बल्कि वे प्रगतिशील हैं और मानवीय दृष्टिकोण रखते हैं।
हिन्दी फिल्मों में मुसलमानों के चित्रण में अधिकांश फिल्मकार यथार्थ को अतिरंजित कर या अतिरिक्त देशभक्ति की परिक्षा लेते चित्रित करते हैं। एक तरह से यह उस धारणा की भरपाई करते हैं, जो पार्टीशन के कारण देश में बचे मुसलमानों के मन में आई थी। भारत सरकार ने देश के बहुसंख्यक समुदायों के मन में यह बात अनजाने ही बिठा दी थी कि मुसलमानों ने ही देश का विभाजन करवाया। परिणामस्वरूप देश में बचे मुसलमानों के लिए अप्रत्यक्ष रूप से यह आवश्यक हो गया था कि वह देश के प्रति अपनी भक्ति साबित करें। सिनेमा जैसे लोकप्रिय माध्यम से वह भक्ति दिखाई जा सकती थी। इन मिथकों और मान्यताओं को एम0एस0 सथ्यू, दीपा मेहता, श्याम बेनेगल, गोविंद निहलानी जैसे निर्देशकों ने तोड़ा। यह परंपरा आगे बढ़ी जिसमें अर्पणा सेन, प्रकाश झा, (फेसेज आफ्टर स्टार्म) और पिंजर के निर्देशक के रूप में डा0 चंद्रप्रकाश द्विवेदी का महत्वपूर्ण योगदान है। श्याम बेनेगल के अनुसार, ‘‘आजादी के कुछ सालों के बाद मुसलमान किरदारों को तरजीह दी गई। खासकर पाकिस्तान से आए फिल्मकारों ने खास ध्यान दिया, पर उनके मुसलमान किरदार उनके अनुभव संसार से थे। भारत आने के पहले वे सभी मुसलमान परिवारों के साथ एक ही बस्ती में रहते थे। उनकी यादों में नेकदिल मुसलमान थे। उन्होंने वैसे ही मुसलमान किरदारों को रचा।’’
1999 में विभाजन और उससे उपजे सांप्रदायिकता पर दीपा मेहता के निर्देश में ‘1947 अर्थ’ फिल्म आई। हिन्दी फिल्म जगत् में दीपा मेहता की पहचान प्रगतिशील और यथार्थवादी विचारधारा के समर्थक के रूप में बनी है। उनकी फिल्में कट्टरता, फांसीवाद एवं धर्मांधता पर सीधी चोट करती हैं। ‘वाटर’ और ‘फायर’ जैसी फिल्मों के निर्माण में हिन्दुवादी संगठन शिव सेना और बजरंग दल ने रोड़े अटकाए लेकिन दीपा मेहता की सामाजिक प्रतिबद्धता झुकी नहीं। ‘1947 अर्थ’ में देश विभाजन की त्रासदी में शिकार बने उस वर्ग को चित्रित किया गया है जो मेहनतकश है, मजदूर है जिसे धर्मों से खास लेना-देना नहीं है। वे समाज में अपने पेशों से जाने जाते हैं। मसाज वाला के रूप में हसन (राहुल खन्ना), आइस कैंडी वाला के रूप में दिलनवाज (आमीर खान), नौकरानी की काम करने वाली शांता बाई (नंदिता दास), दलित जाति के रूप में हरि (रघुवीर यादव) सबके सब अपना-अपना काम करते हैं लेकिन साथ में कोई द्वेष और अलगाव नहीं है। एक साथ जीते हैं, उत्सव मनाते हैं और प्रेम-मोहब्बत किसी तरह के कोई बंधन नहीं है। लेकिन अचानक देश बँटवारे के फैसले से भड़की हिंसा सब कुछ दरका कर रख देती है। कल तक जो साथ मिलकर रहते थे आज वे प्रत्येक को हिन्दू मुसलमान और सिक्ख के नाम पर शक करने लगे। यह शक यों ही नहीं था बल्कि इसके लिए पूरा माहौल ही ऐसा बना दिया गया था। दिलनवाज की दो बहनें गुरुदासपुर से आने वाली ट्रेन में मार दी जाती हैं। मारने वाले कट्टर हिन्दू थे। दिलनवाज (आमीर खान) के मन में भी प्रतिशोध की आग धधकती है और वह भी दंगाइयों के साथ हो जाता है। हरि दंगाइयों के डर से मुसलमान बन जाता है फिर भी दंगाइयों की उग्र भीड़ उस पर विश्वास नहीं करती है। वह चिल्ला-चिल्लाकर कहता है मैं हरि नहीं हिम्मत अली हूँ। उससे कलाम पढ़वाया जाता है और अंत में उसे नंगा करके देखा जाता है। फिल्म में हरि एक जगह कहता है कैसी आजादी मिली है जिसके बाद खून ही खून बह रहा है।
दीपा मेहता की फिल्म ‘1947 अर्थ’ जो कि बपसी सिद्धता के उपन्यास ‘क्रैकिंग इंडिया’ पर आधारित है, कई मायनों में महत्वपूर्ण है। एक, यह एक पारसी परिवार की नजर से देखे गए बँटवारे का अफसाना है। दूसरा, एक बालिका की दृष्टि से देखे गए हिंसापूर्ण मंजर का लेखा-जोखा है। दीपा मेहता अपनी इस फिल्म के बारे में कहती है, ‘‘निस्संदेह ‘1947 अर्थ’ इस मामले में मेरे लिए खास फिल्म है कि यह अंग्रेजों द्वारा किए गए भारत-पाकिस्तान विभाजन से संबंधित है। साथ ही इसमें सार्वभौमिक गूंज है। आप कोसोवो को देखें या आयरलैंड, दरअसल जो भी देश उपनिवेश रहे, जहाँ भी किसी प्रकार का अलगाववाद है, भेद है या कथित जातीय अलगाव हुआ। वहाँ 50 सालों बाद भी यही समस्याएँ हैं।’’ यह बात भारत के संदर्भ में भी सच है कि ऐसी स्थितियाँ आज भी मौजूद हैं। विभाजन के छः दशक बाद भी संदेह और अविश्वास का माहौल है। संदेह और अविश्वास के कारण भले ही अलग हैं, मगर द्वेष की भावना नहीं मिटी है। यह द्वेष ही दोनों देशों के बीच बार-बार युद्ध और उसकी स्थितियाँ उत्पन्न करता है।
जब सांप्रदायिकता की बात आती है तो हिन्दू-मुसलमान से हम आगे नहीं बढ़ पाते हैं, मानो सांप्रदायिकता जैसी समस्या केवल हिन्दू और मुसलमानों के बीच ही है। हिन्दी फिल्मों की नजरिया भी कुछ वैसी ही रही है। सिख और मुसलमानों के बीच की सांप्रदायिकता तो कुछेक फिल्मों में चित्रित की गई है किन्तु हिन्दू और सिख सांप्रदायिकता को गुलजार की फिल्म ‘माचिस’ में समग्रता में विषय बनाया गया है। हिन्दू और सिख सांप्रदायिकता पर आधारित ‘माचिस’ पहली हिन्दी फिल्म है।
1984 में इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद भयंकर दंगे हुए जिसमें बड़े पैमाने पर हिन्दुओं द्वारा सिक्खों की हत्या की गई। यह लगभग पूरे भारत में हुआ। सिक्खों की संपत्तियों को लूट लिया गया तथा औरतों के साथ बुरे व्यवहार किए गए। इस दंगे में राज्य के मशीनरियों का जमकर इस्तेमाल किया गया। नेताओं ने भी खुलकर दंगाइयों का साथ दिया। गुलजार कहते हैं ‘‘मैंने 84 के दंगे को अपनी आँखों से देखा है। गलियों एवं नालियों में खून सूखकर पपड़ी बन गई थी। दंगे के कई दिनों बाद लाशें बेल्चा से उठाकर फेंकी जा रही थी।’’ गुलजार ने 84 के दंगे को विषय बनाकर फिल्म बनायी ‘माचिस’ जो दंगे के षड्यंत्रों को पर्दाफाश करती है। जिस समुदाय के साथ ऐसा दर्दनाक अत्याचार किया जाता है और राज्य सहभागी बनता है ऐसी स्थिति में वह अपनी सुरक्षा में हथियार उठाता है तो राज्य उसे आतंकवादी घोषित कर देता है, यह कहाँ का न्याय है? ‘माचिस’ में ओमपुरी से चंद्रचूड़ सिंह अपने परिजनों के बारे में पूछता है तो ओमपुरी का जवाब है आधे को 47 ने खा लिया और जो बचे उसे 84 ने। देश विभाजन के समय लाखों सिख मारे गए थे, पाकिस्तान बनने के बाद उस क्षेत्र में सिखों की संख्या आधी थी। जब वहाँ से सिखों का पलायन हुआ तो उन्हें जान के साथ सारी संपति भी गवानी पड़ी। देश की आजादी और उसके बाद का समय सिक्खों के लिए त्रासद ही रहा। माचिस इन तमाम तथ्यों को समेटती हुई सिक्खों के साथ हुए अन्याय की गुत्थियों को खोलती है। गुलजार इस फिल्म के माध्यम से अनेक प्रश्नों को खड़े करते हैं, जिसका जवाब हमारी राजनीतिक व्यवस्था के पास शायद नहीं है।
2003 में डा0 चन्द्रप्रकाश द्विवेदी ने अमृता प्रीतम की कहानी ‘पिंजर’ पर इसी नाम से फिल्म बनाई। हिन्दी में विभाजन पर बनी अच्छी फिल्मों में से ‘पिंजर’ भी एक है। पिंजर में डा0 द्विवेदी की ईमानदारी साफ झलकती है। ‘पिंजर’ ने फिर से विभाजन की पीड़ा को मुखरित करने का प्रयास किया। इस फिल्म के किरदार नायक-नायिका या सिख-मुसलमान होने से अधिक मानवीय चरित्र है, जो विषम परिस्थितियों और अशांत माहौल में भी अपने प्रयासों से करुणा और शांति की लौ जलाते हैं। लंबे समय के बाद एक सहिष्णु मुसलमान नायक रशीद के रूप में दिखा जो जिंदगी से करीबी के कारण अपनी भूलों के बावजूद हमें छूता और द्रवित करता है। फिल्म में रशीद (मनोज वाजपेयी) खानदानी दुश्मनी की वजह से पूरो (उर्मिला मातोंडकर) को अपहृत कर घर लाता है लेकिन उसके साथ मनमानी नहीं करता है। रशीद के परिवार वाले उस पर दबाव डालकर शादी करवा देते हैं फिर भी रशीद पूरो को पूरी स्वतंत्रता देता है। रूढ़ियों एवं सामाजिक लिहाज के कारण पूरो को परिवार वाले घर लौटने पर स्वीकार नहीं करते हैं। यह निर्णय पूरो के पिता का था न कि माँ का। पूरो पुनः रशीद के पास जाती है और अंततः रशीद से ही उसे सब कुछ मिलता है। बँटवारे के बाद फसादात में खून की होली में न हिन्दू जीता, न सिख और न ही मुसलमान। तीनों ही हार गए। दंगों के दौरान मुट्ठी भर लोगों ने हिंसा पर सवालिया निशान लगाया- उसे भड़कने से रोका। ऐसे लोगों में पूरो भी है। सांप्रदायिक उन्माद के क्षणों में यदि धर्म इंसानों को बाँटता है तो पूरा और रशीद की इंसानियत इन्हें जोड़ती है। पिंजर के प्रमुख पात्र पूरो और राशिद सही अर्थों में संवेदना से लबरेज इंसानों की तरह पर्दे पर चमकते हैं।
डा0 चंद्रप्रकाश द्विवेदी विभाजन पर बनी अब तक के हिन्दी फिल्मों में पिंजर को सबसे अलग रखते हैं। उनका कहना है- ‘‘पिंजर उन फिल्मों से इसलिए अलग हैं कि विभाजन की पृष्ठभूमि के अलावा उनसे और कोई समानता नहीं है। गदर में युद्ध और युद्ध में विजय, एक स्त्री को वापस ले जाना, कहीं-न-कहीं उसे रेखांकित किया जा रहा है। सुपरियरिटी आफ पावर, सुपिरियरिटी आफ रेस, सुपिरियरिटी आफ रिलिजन कहीं न कहीं उसमें है। पिंजर इनमें से किसी को रेखांकित नहीं करती। पिंजर अपने समाज की राजनीति पर कोई टिप्पणी नहीं करती। पिंजर दोनों समुदायों पर कोई विशेष टिप्पणी नहीं करती। पिंजर खासतौर पर पाकिस्तान के विरोध में एक शब्द नहीं कहती। जबकि इसके दोनों पात्र उसी त्रासदी को जी रहे हैं; विभाजन की त्रासदी को जी रहे हैं और मनुष्य के बीच में जो हिन्दू-मुस्लिम की भेद रेखा है, उसको जी रहे हैं और उसके बाद भी एक ऐसा निर्णय करते हैं जो दोनों देशों को चैका देने वाला निर्णय है।’’
देश विभाजन की त्रासदी में महिलाओं पर क्या कहर ढाए जा रहे थे, दंगे-फसाद में किस प्रकार उनकी खरीद-फरोख्त की जा रही थी, दोनों समुदायों में लोग वहशी बनकर कैसे महिलाओं की अस्मत लूट रहे थे इन तमाम अनछुए पहलुओं को पिंजर छूती है। देश बँटवारे से उपजे संकट में महिलाओं के साथ लोगों का कैसा व्यवहार था इस पहलू को पिंजर में मजबूती के साथ चित्रित किया गया है। इस मामले में भी यह फिल्म नयी और अलग है। स्त्री पात्रों की प्रधान भूमिका तथा इन्हीं के इर्द-गिर्द पूरी फिल्म चलती है। एक स्त्रीवादी नजरिए से देश विभाजन को देखने की कोशिश की गई है। इस फिल्म में एक मर्मान्तक दृश्य है जब एक विक्षिप्त महिला के साथ दंगाई बलात्कार करते हैं। तत्पश्चात् वह महिला एक बच्चे को जन्म देती है जो खेत में पूरो को अस्त-व्यस्त हालत में मिलता है। विक्षिप्त महिला प्रसव के तुरंत बाद मर जाती है। पूरो बच्चे को घर लाकर पालती-पोसती है। जब वह बच्चा स्वस्थ होकर भला-चंगा हो जाता है तो हिन्दू दंगाई उस बच्चे को हिन्दू माँ की कोख में जन्म लेने के कारण पूरो से छिन लेते हैं।
पिंजर की पूरो और रशीद नफरत, घृणा, द्वेष और उदासी से भरे वातावरण में प्यार और आशा के दीपक जलाते नजर आते हैं। यहाँ किसी की कोई आलोचना नहीं है बल्कि मानवता की समग्रता में स्थापना है।
‘मिस्टर एण्ड मिसेज अय्यर’ अपर्णा सेन की महत्वपूर्ण फिल्म है। यह फिल्म समकालीन भारत में लोगों की सांप्रदायिक सोच को उजागर करती है। खास करके हिन्दुओं के मन में जो धारणा पैठायी जा रही है कि मुसलमान हिंसक और कट्टर होते हैं, आतंकवादी हैं इसका फिल्म में सफल चित्रण है। देश का पूरा राजनीतिक माहौल ऐसा बनाया जा रहा है जहाँ प्रत्येक मुसलमान शक के दायरे में हैं। उन्हें बार-बार वफादारी और देशभक्ति की परीक्षा देनी पड़ रही है। एक आदमी के कारण पूरे कौम को बदनाम किया जा रहा है। प्रसार माध्यम इस प्रकार तथ्यों को घालमेल कर पेश कर रहे हैं कि सांप्रदायिक सोच की उर्वर जमीन लगातार तैयार हो रही है। आज ऐसा लगता है आजमगढ़ का हर मुसलमान आतंकवादी है। सत्ता, शासन-प्रशासन के खिलाफ जो आवाज उठाता है उसे आतंकवादियों का रहनुमा साबित कर दिया जाता है। मुठभेड़ के नाम पर मारे जाने वाला हर मुसलमान आतंकवादी बताया जाता है। यदि कोई जाँच की माँग करता है तो उसे देशद्रोही साबित कर दिया जाता है। जैसा कि बाटला हाऊस कांड की जाँच की माँग जब अर्जुन सिंह ने की तथा ए0आर0 अंतुले ने हेमंत करकरे की मौत पर सवाल उठाया तो मीडिया से लेकर सरकार तक आग बबूले हो गए। आजमगढ़ के मामले में प्रसिद्ध अभिनेत्री शबाना आजमी ने व्यथित होकर कहा- ‘‘आजमगढ़ के बारे में सुनकर मुझे बहुत तकलीफ हो रही है। मैं भी चाहती हूँ कि दोषियों को सजा मिले, लेकिन किसी एक की वजह से पूरे शहर को बदनाम नहीं किया जाना चाहिए।
इन हालातों में ‘मिस्टर एण्ड मिसेज अय्यर’ जैसी फिल्मों की प्रासंगिकता और बढ़ जाती है। इस फिल्म की कहानी का प्लाट बड़ा दिलचस्प है। एक यात्री बस से लोग सफर कर रहे हैं। इस बस में बैठे यात्री भारत के विभिन्न क्षेत्रों से हैं। बल्कि यह कहना ज्यादा उचित होगा कि बस में बैठे यात्रियों से भारत की वास्तविक तस्वीर उभरती है। विभिन्न धर्मों, भाषाओं, पहनावे-ओढ़ावे, खान-पान तथा आदतों के साथ सारे यात्री बस में बैठे हैं। एक दक्षिण भारतीय ब्राह्मण महिला (कोंकणासेन शर्मा) अपने नवजात शिशु के साथ कोलकाता जा रही है। फोटोग्राफर राजा चैधरी (राहुल बोस) भी कोलकाता जा रहा है जो जरूरत के हिसाब से दक्षिण भारतीय महिला को मदद करता है। बस जब जम्मू पहुँचती है तो पता चलता है कि शहर में कर्फ्यू लागू है। लोग बस से नीचे उतरकर हालात को समझने की कोशिश कर रहे होते हैं कि सेना की गाड़ी आ पहुँचती है। पुलिस इंसपेक्टर बताता है कि कश्मीरी चरमपंथियों ने कुछ हिन्दुओं की हत्या कर दी है, दंगा न भड़के इसलिए कर्फ्यू लागू है। इसके बाद लोगों के सांप्रदायिक राय खुलकर सामने आती है। एक कहता है साले सारे मुसलमान को पाकिस्तान भेज देना चाहिए। गालियाँ दी जाती है। जैसे ही कोंकणा सेन शर्मा को पता चलता है कि फोटोग्राफर राजा चौधरी नहीं जहाँगीर चैधरी है तो मुस्लिमों के प्रति एक पढ़ी-लिखी महिला की भी धारणा स्पष्ट हो जाती है। जब फिर से सारे लोग बस में बैठ जाते हैं तो हिन्दू कट्टरपंथी धावा बोल देते हैं। वे मुसलमानों की पहचान करते हैं। यात्रियों में से ही एक हिन्दू बताता है कि अगली सीट पर एक मुस्लिम दंपति है। इसके बाद उस बुजूर्ग मुस्लिम दंपति की हत्या कर दी जाती है।
लोगों में सांप्रदायिकता की जड़ें कितनी मजबूत हो रही है इस फिल्म में अत्यंत ही निष्पक्षता के साथ दिखलायी गयी है। जहाँगीर चैधरी, राजा चौधरी बनकर पूरे वातावरण की गर्मी को महसूस करता है। अर्पणा सेन ने जहाँगीर चौधरी के चरित्र को इतना व्यापक और प्रगतिशील बनाया है कि विपरीत परिस्थितियों में भी उसकी मानवीयता दम नहीं तोड़ती है। भारत में सांप्रदायिकता, राष्ट्रवाद, आतंकवाद और देशभक्ति बहुत हद तक कश्मीर से तय होता है। भारत और पाकिस्तान के रिश्तों की दिशा भी कश्मीर से ही तय होती है। कश्मीर, मीडिया के लिए सालों भर के लिए खबर है। भारत सरकार की नजर में यहाँ का लगभग हर आंदोलन अलगाववाद से प्रेरित है तथा आतंकवाद से पोषित है व पाकिस्तान समर्थित है। पाकिस्तान इन लोगों को फ्रीडम-फाइटर कहता है। भारत और पाकिस्तान के आपसी वर्चस्व की लड़ाई तथा तर्कों में कश्मीर की आवाज हमेशा गौण होती रही है। वहाँ की मूल समस्याओं को समझने की कोशिश इसी कारण नहीं की जाती है। वहाँ के लोग क्या चाहते हैं यह कोई मुद्दा ही नहीं है। इन्हीं अनछूए पहलुओं को विषय बनाकर 2006 में सुजीत सिरकर ने ‘यहाँ’ फिल्म बनाई। यहाँ एक संतुलित फिल्म है जहाँ देशभक्ति की उल्टी नहीं है किसी खास समुदाय को लक्ष्य कर आलोचना नहीं की गई है बल्कि घटनाओं एवं हकीकतों का समग्रता में निष्पक्ष विश्लेषण है। ‘यहाँ’ फिल्म भी कई सवालों को एक साथ उठाती है। कश्मीर में भारतीय सैनिकों की भूमिका पर, राजनेताओं की नीतियों पर तथा वादी में फैली नफरत के कारणों पर।
निशिकांत कामत की फिल्म ‘मुंबई मेरी जान’ आतंकवादियों द्वारा मुंबई के लोकल ट्रेनों में किए गए बम विस्फोट पर फोकस है। इस फिल्म में भी आतंकवाद, उसकी गहरी जड़ें, भ्रम, द्वंद्व में जूझता मेहनतकश आदमी, मीडिया की हास्यास्पद भूमिका, प्रशासन-व्यवस्था की अकर्मण्यता को सफलतापूर्वक चित्रित किया गया है। खासकर इस फिल्म में मीडिया की भूमिका पर करारा व्यंग्य किया गया है जो कि आतंकवाद को टीआरपी बढ़ाने के लिए इस्तेमाल करता है।
भारत में सांप्रदायिकता और राष्ट्रवाद की बात देश विभाजन को शामिल किए बिना नहीं की जा सकती है। देश विभाजन केवल भौगोलिक विभाजन नहीं था बल्कि विश्वास, समरसता एवं मनुष्यता का भी विभाजन साबित हुआ। तब नेहरू और जिन्ना ने शायद ही सोचा होगा कि विभाजन इतना विध्वंसक होगा। स्थानांतरण और पुनर्वास के बीच लाखों जिन्दगियाँ इतिहास में समा जाएंगी और लाखों दिलों से निकली कसक आधी सदी के बाद भी समाज को टीसती रहेगी, देश दर्द तो महसूस करता रहेगा, मगर कभी उस घाव का इलाज नहीं करेगा जो धीरे-धीरे नासूर बनेगा और फिर उससे आतंकवाद का ऐसा जहरीला मवाद निकलेगा जो दोनों देशों को लम्बी बर्बादी की राह पर मोड़ देगा। आज भारत और पाकिस्तान जिस समान तकलीफ से अलग-अलग जूझ रहे हैं, उसके बीज विभाजन में है। आतंकवाद, धर्म, सांप्रदायिकता और राष्ट्रवाद के घालमेल से देश अलगाववाद जैसी समस्याओं से जूझ रहा है। इन समस्याओं से पाकिस्तान को, बिल्कुल अलग नहीं रखा जा सकता है। तात्पर्य यह है कि देश विभाजन एक ऐसी त्रासदी थी जिससे भारत और पाकिस्तान अब तक नहीं उबर पाए हैं। दोनों देशों के बीच अब तक तीन विध्वंसक लड़ाइयाँ हो चुकी हैं बावजूद स्थिति वैसी ही बनी हुई है।
इतनी बड़ी त्रासदी को भला कोई कला माध्यम कैसे उपेक्षित कर सकता है। कोई भी कला माध्यम समकालीनता से मुँह नहीं चुरा सकता। समय की विशेषताओं, विडंबनाओं, दशा- दिशा तथा समस्याओं का विभिन्न कला माध्यमों में चित्रण स्वाभाविक है। हिंदी, उर्दू, पंजाबी, सिंधी और बंगाली भाषा के साहित्य में विभाजन की विभीषिका और उसकी पीड़ा को विभिन्न रूपों और स्तरों पर चित्रित किया गया है। प्रसिद्ध गीतकार गुलजजार का कहना है कि विभाजन के समय और दशकों बाद तक साहित्यकार विभाजन की पीड़ा को स्वर देते रहे और मानवीय दृष्टिकोण से दोनों ही संप्रदायों के अभिशप्त नागरिकों की कथा कहते रहे। देश के राजनीतिज्ञों ने दो राष्ट्र के सिद्धांत के आधार पर भारत और पाकिस्तान की प्रभुत्व सम्पन्नता स्वीकार कर ली मगर साहित्यकारों ने इसे कभी स्वीकार नहीं किया और न ही अपनी रचनाओं में मान्यता दी। विभाजन की पृष्ठभूमि पर ढेर सारा साहित्य रचा गया, मगर आश्चर्यजनक है कि फिल्मकारों ने विभाजन के प्रति वैसी चिंता और छटपटाहट नहीं दिखाई। साहित्यकारों की तरह कई ऐसे फिल्मकार भी थे, जो विभाजन की लपटों की चपेट से निकलकर आए थे। फिर भी वे खामोश रहे और मनोरंजन के नाम पर सपनीली और काल्पनिक प्रेम कहानियाँ परोसते रहे। साहित्यकारों जैसा उद्वेग फिल्मकारों में नहीं दिखाई पड़ता।’’ आजादी के बाद नेहरू ने नवनिर्माण की जो प्रक्रिया शुरू की वह रोमांटिक समय था। फिल्मों में सपने, दबाव, रोमांस, निराशा और हकीकत विभिन्न रूप-रंग में आते रहे मगर निकट अतीत की इस त्रासदी को फिल्मकारों ने विषय बनाने से परहेज ही किया।
चूँकि देश का बँटवारा धर्म के आधार पर हुआ था इसलिए बँटवारे के बाद जो नफरत फैली वह धार्मिक ही थी। शायद हमारे फिल्मकार बँटवारे के कटु यथार्थ को विषय बनाने में डरते होंगे ताकि कोई समुदाय नाखुश न हो जाए। अतीत के गहरे जख्म को हरा करने की साहस न कर पाते होंगे। इस विषय पर लंबे समय तक हमारे फिल्म जगत में शून्यता रही। 1973 में एम0एस0 सथ्यू ने ‘गर्म हवा’ बनाकर इस खालीपन में मजबूती के साथ दस्तक दिया। ‘गर्म हवा’ में विभाजन के बाद ऊपजे संकट से विभिन्न सवालों को उठाया गया। आखिर कोई मुसलमान अपना वतन छोड़कर पाकिस्तान क्यों जाए। केवल स्थान की बात नहीं है बल्कि रोजगार, व्यवसाय, घर, माटी, समाज सबको एक साथ इसलिए छोड़ दे कि वह मुसलमान है? इस फिल्म का पात्र सलीम (बलराज साहनी) सवाल उठाता है कि क्या मैंने पाकिस्तान मांगा था? जिसने पाकिस्तान माँगा था और जिसने बनवाया, वह जाए मैं क्यों जाऊँ? यह एक महत्वपूर्ण और क्रांतिकारी सवाल था। इस फिल्म ने उस समय सवाल उठाया जब हिन्दुओं के मन में यह धारणा पैठ रही थी कि मुसलमानों के लिए पाकिस्तान दे दिया गया है और उन्हें पाकिस्तान चला जाना चाहिए। फिल्म के प्रदर्शन पर प्रतिबंध भी लगाया गया लेकिन इंदिरा गाँधी के हस्तक्षेप के बाद प्रदर्शित हो पाई।
‘गर्म हवा’ के बाद ऐसा लग रहा था कि अब इस विषय पर फिल्मकारों की नजर जाएगी फलस्वरूप और कई फिल्में बनेंगी जिससे हमारी राजनीतिक व्यवस्था में अतीत की बड़ी त्रासदी पर विमर्श का माहौल तैयार होगा। लेकिन उस रूप में फिल्मकारों ने दिलचस्पी नहीं दिखलायी। ‘गर्म हवा’ के बाद 1987 में गोविंद निहलानी ने ‘तमस’ फिल्म बनायी। इससे पहले उन्होंने ‘तमस’ धारावाहिक का निर्देशन किया था। ‘तमस’ विभाजन और साम्प्रदायिकता पर जबर्दस्त फिल्म बनी जो विभाजन के विभिन्न षड्यंत्रों को उजागर करती है। गोविंद निहलानी का परिवार पाकिस्तान से उखड़कर भारत आया था। उन्होंने छोटी उम्र में विभाजन की हिंसा देखी थी। आज तक हिंसा के वे बिंब उनकी आँखों के सामने मंडराते रहते हैं। गोविंद निहलानी का कहना है ‘‘दरअसल विभाजन की स्मृतियाँ समूची त्रासद स्थितियों के साथ आज भी मौजूद हैं मेरे मन में। मैं तब काफी छोटा था, लेकिन विभाजन को मैंने अपनी आँखों से देखा था। विभाजन के बाद मेरे परिवार ने हिन्दुस्तान में कदम रखा था। बड़े होने पर मेरे मन में यह इच्छा बनी रही कि विभाजन की त्रासदी को परदे पर उतारूँगा।’’ बँटवारे पर बनी तीसरी महत्वपूर्ण फिल्म ट्रेन टू पाकिस्तान (1997) है। पैमला रूक्म के निर्देशन में बनी तथा खुशवंत सिंह के उपन्यास पर आधारित इस फिल्म के रंगमंच तथा कलात्मक सिनेमा के तीन अनुभवी कलाकारों (मोहन अगाशे, निर्मल पाण्डे, रजत कपूर) ने अभिनय किया। फिल्म में स्मृति मिश्रा ने मुस्लिम लड़की का किरदार अदा किया है। प्रतिदिन लाशों से पटी गाड़ियाँ गाँव से होकर गुजरती लेकिन किसी को परवाह नहीं। स्थानीय मजिस्ट्रेट भोग विलास में लिप्त हैं। एक दिन एक कम्यूनिस्ट कार्यकर्ता (रजत कपूर) गाँव पहुँचता है और लोगों को एकजुट करने की कोशिश करता है। सांप्रदायिकता की आग में झुलसती पंजाब में सिक्ख डाकू (निर्मल पाण्डे) तथा मुस्लिम बाला (स्मृति मिश्रा) की प्रेम कहानी मानो जीवन के उम्मीद जगाती हो। बँटवारे की राजनीति से बेखबर यह युगल प्रेमी नफरत और द्वेष के माहौल में इंसानियत को जिंदा रखने की कोशिश करते हैं।
1999 में बनी ‘शहीद-ए-मोहब्बत’ बँटवारे पर पंजाब में होने वाली घटना पर आधारित है। आज भी इसे पंजाब की वीरगाथाओं के रूप में जाना जाता है। इस फिल्म में अवकाश प्राप्त फौजी बूटा सिंह (गुरुदास मान) अपने गाँव लौटता है तो देखता है चारों तरफ हिंसा और नफरत की आग फैली है। देश बँटवारे के बाद स्थानांतरण और पुनर्वास की जद्दोजहद में हिन्दू मुसलमान और सिक्ख आपस में ही टकरा रहे हैं। मुसलमानों का एक जत्था पाकिस्तान जा रहा है तभी सिक्ख दंगाई वहाँ हमला बोल देते हैं और जैनब नाम की लड़की को भगा लाते हैं। बूटा सिंह उसकी जान बचाने के लिए खरीद लेता है। दोनों एक दूसरे से प्यार करने लगते हैं और शादी कर लेते हैं। एक दिन जैनब (दिव्या दत्ता) एक बच्ची जन्म देती है। बूटा अत्यंत खुश है। लेकिन उसकी खुशी विधाता को रास न आई। अचानक भारत तथा पाकिस्तान की सरकारों के आपसी समझौते के मुताबिक जैनब को अपहृत महिला के तौर पर पहचान लिया गया। उसे पाकिस्तान भेजने का फैसला लिया गया। फिल्म के अंतिम दृश्यों में सबसे मार्मिक है सरहद पार लगाए गए कंटीले तारों के एक तरफ बूटा सिंह और उसकी छोटी बच्ची तथा दूसरी तरफ उसकी पत्नी जैनब। यह तार शक्तिशाली रूपक है जो मानवीय रिश्तों में बनी बाधाओं को चरितार्थ करता है। यह फिल्म राजनीतिक फैसलों और व्यवस्था तथा धर्म एवं परंपराओं को कटघरे में खड़ी करती है।
‘शहीद-ए-मोहब्बत’ में रघुवीर यादव का जो चरित्र विकसित किया गया है वह अत्यंत ही मार्मिक है। एक ऐसा इंसान जो नहीं जानता है कि हिन्दू, मुसलमान और सिक्ख में क्या फर्क है। वह वैसा आम आदमी है जो न तो शिक्षित है न ही उसमें कोई राजनीतिक चेतना है बावजूद वह समाज में सबके साथ अपने धून में जीता है। उसके लिए मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा कुछ भी अछूता नहीं है। वह पूजन स्थलों पर पूजा के लिए नहीं बल्कि प्रसाद के लिए जाता है लेकिन हिन्दू दंगाई उसे केवल मुस्लिम होने के कारण मार डालते हैं। नब्बे के दशक में हिन्दी सिनेमा में मुस्लिम चरित्र मजबूती के साथ उपस्थिति दर्ज कराने लगे थे। देश की राजनीतिक परिस्थितियाँ भी नब्बे के दशक में सांप्रदायिकता की तरफ उन्मुख थी। रामजन्मभूमि आंदोलन और बाबरी विध्वंस का यह समय था। मुसलमानों की वफादारी पर शक करने का माहौल बनाया जा रहा था। चूँकि बँटवारे के बाद मुसलमानों के रिश्तेदार पाकिस्तान में भी थे लेकिन बदले राजनीतिक माहौल में भारतीय मुसलमान अपने रिश्तेदारों से मिल-जुल नहीं सकते थे। यदि कोई बात करने की कोशिश करता तो पाकिस्तान का जासूस बनने की संभावना बनी रहती थी। परिस्थितियाँ ऐसी बनाई जा रही थी कि अपने ही देश में वे बेगाने होते गए और मुख्यधारा से कटते गए। बाबरी विध्वंस के बाद मुसलमानों के मन में यह धारणा और मजबूत हुई कि यहाँ की सरकार उनहें सुरक्षा नहीं दे सकती है। देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था चुनावी जोड़-तोड़ की तरफ मोड़ दी गयी। सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की प्रक्रिया 90 के दशक में ही तेज हुई। कट्टरपंथियों का प्रभाव बढ़ता ही गया फलस्वरूप आतंकवाद और धार्मिक कट्टरता जैसी समस्या उभरकर सामने आई।
1994 में श्याम बेनेगल ने जो कि गंभीर फिल्मकार के रूप में जाने जाते हैं, ‘मम्मो’ बनायी। हालाँकि मम्मो में स्पष्ट रूप से सांप्रदायिकता और विभाजन को विषयवस्तु नहीं बनाया गया है लेकिन विभाजन के बाद अलग हुए परिवारों और उनके प्रति भारत में सिस्टम के व्यवहार पर फोकस किया गया है। इस फिल्म में दो बहनों की कहानी है। फयाजी (सुरेखा सीकरी) और महमूदा बेगम अहमद अली (फरीदा जलाल) दो बहने हैं। बँटवारे के बाद महमूदा (मम्मो) अपने पति के साथ पाकिस्तान चली जाती है पति के अचानक इंतकाल हो जाने के कारण परिवार वाले उसके साथ अमानवीय व्यवहार करते हैं। वह पाकिस्तान से हिन्दुस्तान अपनी बहन के यहाँ बंबई आ जाती है। मम्मो तीन महीने का वीजा लेकर आती है लेकिन तीन महीने बाद भी वह जाना नहीं चाहती है। वह पुलिस इंस्पेक्टर से वीजा की अवधि बढ़ाने के लिए अर्ज करती है। मम्मो इंस्पेक्टर से कहती है बेटा यह मेरा वतन है। मैं हिन्दुस्तानी हूँ, मेरा जन्म हरियाणा के पानीपत में हुआ था। इंस्पेक्टर कहता है ‘‘ यह दो जनों की बात नहीं है दो मुल्कों की बात है।’’ देश बँटवारे ने मम्मो को कहीं का नहीं छोड़ा है। कुछ ही समय पहले उसके पास सब कुछ था लेकिन अचानक एक फैसला उसे बेगाना बना देता है। यह केवल एक मम्मो की कहानी नहीं है बल्कि मम्मो जैसी कितनी महिलाएँ बेगानेपन की दंश झेलती रही हैं बँटवारे के बाद। मम्मो को कानून हिन्दुस्तान में रहने की इजाजत नहीं देता है अंततः उसे पाकिस्तान जाना पड़ता है। लेकिन मम्मो अंत तक मानती नहीं है और फर्जी मृत्यु प्रमाण पत्र बनवाकर हमेशा के लिए हिन्दुस्तान में अपनी बहन के पास रह जाती है। श्याम बेनेगल जिन फिल्मों के लिए जाने जाते हैं उन्हीं फिल्मों में से ‘मम्मो’ एक है। श्याम बेनेगल की स्त्रीवादी नजरिया मम्मो में साफ झलकती है। यहाँ केंद्रीय भूमिका में दो बहने ही हैं। पुरुष पात्र की कोई खास प्रधानता नहीं है। इस फिल्म के माध्यम से बेनेगल ने भी सवाल उठाया है कि कोई मुसलमान पाकिस्तान में क्यों जाए जहाँ अपना कोई है ही नहीं। क्या केवल इसलिए कि वह मुसलमान है? श्याम बेनेगल ने अपनी फिल्म में मुसलमान किरदारों को मजबूती के साथ चित्रित किया है। इनके यहाँ विमर्श और संवाद की पूरी गुंजाइश है। बेनेगल की फिल्मों में मुसलमान बढ़ी दाढ़ी, कट्टर व रूढ़िवादी के रूप में चित्रित नहीं हैं बल्कि वे प्रगतिशील हैं और मानवीय दृष्टिकोण रखते हैं।
हिन्दी फिल्मों में मुसलमानों के चित्रण में अधिकांश फिल्मकार यथार्थ को अतिरंजित कर या अतिरिक्त देशभक्ति की परिक्षा लेते चित्रित करते हैं। एक तरह से यह उस धारणा की भरपाई करते हैं, जो पार्टीशन के कारण देश में बचे मुसलमानों के मन में आई थी। भारत सरकार ने देश के बहुसंख्यक समुदायों के मन में यह बात अनजाने ही बिठा दी थी कि मुसलमानों ने ही देश का विभाजन करवाया। परिणामस्वरूप देश में बचे मुसलमानों के लिए अप्रत्यक्ष रूप से यह आवश्यक हो गया था कि वह देश के प्रति अपनी भक्ति साबित करें। सिनेमा जैसे लोकप्रिय माध्यम से वह भक्ति दिखाई जा सकती थी। इन मिथकों और मान्यताओं को एम0एस0 सथ्यू, दीपा मेहता, श्याम बेनेगल, गोविंद निहलानी जैसे निर्देशकों ने तोड़ा। यह परंपरा आगे बढ़ी जिसमें अर्पणा सेन, प्रकाश झा, (फेसेज आफ्टर स्टार्म) और पिंजर के निर्देशक के रूप में डा0 चंद्रप्रकाश द्विवेदी का महत्वपूर्ण योगदान है। श्याम बेनेगल के अनुसार, ‘‘आजादी के कुछ सालों के बाद मुसलमान किरदारों को तरजीह दी गई। खासकर पाकिस्तान से आए फिल्मकारों ने खास ध्यान दिया, पर उनके मुसलमान किरदार उनके अनुभव संसार से थे। भारत आने के पहले वे सभी मुसलमान परिवारों के साथ एक ही बस्ती में रहते थे। उनकी यादों में नेकदिल मुसलमान थे। उन्होंने वैसे ही मुसलमान किरदारों को रचा।’’
1999 में विभाजन और उससे उपजे सांप्रदायिकता पर दीपा मेहता के निर्देश में ‘1947 अर्थ’ फिल्म आई। हिन्दी फिल्म जगत् में दीपा मेहता की पहचान प्रगतिशील और यथार्थवादी विचारधारा के समर्थक के रूप में बनी है। उनकी फिल्में कट्टरता, फांसीवाद एवं धर्मांधता पर सीधी चोट करती हैं। ‘वाटर’ और ‘फायर’ जैसी फिल्मों के निर्माण में हिन्दुवादी संगठन शिव सेना और बजरंग दल ने रोड़े अटकाए लेकिन दीपा मेहता की सामाजिक प्रतिबद्धता झुकी नहीं। ‘1947 अर्थ’ में देश विभाजन की त्रासदी में शिकार बने उस वर्ग को चित्रित किया गया है जो मेहनतकश है, मजदूर है जिसे धर्मों से खास लेना-देना नहीं है। वे समाज में अपने पेशों से जाने जाते हैं। मसाज वाला के रूप में हसन (राहुल खन्ना), आइस कैंडी वाला के रूप में दिलनवाज (आमीर खान), नौकरानी की काम करने वाली शांता बाई (नंदिता दास), दलित जाति के रूप में हरि (रघुवीर यादव) सबके सब अपना-अपना काम करते हैं लेकिन साथ में कोई द्वेष और अलगाव नहीं है। एक साथ जीते हैं, उत्सव मनाते हैं और प्रेम-मोहब्बत किसी तरह के कोई बंधन नहीं है। लेकिन अचानक देश बँटवारे के फैसले से भड़की हिंसा सब कुछ दरका कर रख देती है। कल तक जो साथ मिलकर रहते थे आज वे प्रत्येक को हिन्दू मुसलमान और सिक्ख के नाम पर शक करने लगे। यह शक यों ही नहीं था बल्कि इसके लिए पूरा माहौल ही ऐसा बना दिया गया था। दिलनवाज की दो बहनें गुरुदासपुर से आने वाली ट्रेन में मार दी जाती हैं। मारने वाले कट्टर हिन्दू थे। दिलनवाज (आमीर खान) के मन में भी प्रतिशोध की आग धधकती है और वह भी दंगाइयों के साथ हो जाता है। हरि दंगाइयों के डर से मुसलमान बन जाता है फिर भी दंगाइयों की उग्र भीड़ उस पर विश्वास नहीं करती है। वह चिल्ला-चिल्लाकर कहता है मैं हरि नहीं हिम्मत अली हूँ। उससे कलाम पढ़वाया जाता है और अंत में उसे नंगा करके देखा जाता है। फिल्म में हरि एक जगह कहता है कैसी आजादी मिली है जिसके बाद खून ही खून बह रहा है।
दीपा मेहता की फिल्म ‘1947 अर्थ’ जो कि बपसी सिद्धता के उपन्यास ‘क्रैकिंग इंडिया’ पर आधारित है, कई मायनों में महत्वपूर्ण है। एक, यह एक पारसी परिवार की नजर से देखे गए बँटवारे का अफसाना है। दूसरा, एक बालिका की दृष्टि से देखे गए हिंसापूर्ण मंजर का लेखा-जोखा है। दीपा मेहता अपनी इस फिल्म के बारे में कहती है, ‘‘निस्संदेह ‘1947 अर्थ’ इस मामले में मेरे लिए खास फिल्म है कि यह अंग्रेजों द्वारा किए गए भारत-पाकिस्तान विभाजन से संबंधित है। साथ ही इसमें सार्वभौमिक गूंज है। आप कोसोवो को देखें या आयरलैंड, दरअसल जो भी देश उपनिवेश रहे, जहाँ भी किसी प्रकार का अलगाववाद है, भेद है या कथित जातीय अलगाव हुआ। वहाँ 50 सालों बाद भी यही समस्याएँ हैं।’’ यह बात भारत के संदर्भ में भी सच है कि ऐसी स्थितियाँ आज भी मौजूद हैं। विभाजन के छः दशक बाद भी संदेह और अविश्वास का माहौल है। संदेह और अविश्वास के कारण भले ही अलग हैं, मगर द्वेष की भावना नहीं मिटी है। यह द्वेष ही दोनों देशों के बीच बार-बार युद्ध और उसकी स्थितियाँ उत्पन्न करता है।
जब सांप्रदायिकता की बात आती है तो हिन्दू-मुसलमान से हम आगे नहीं बढ़ पाते हैं, मानो सांप्रदायिकता जैसी समस्या केवल हिन्दू और मुसलमानों के बीच ही है। हिन्दी फिल्मों की नजरिया भी कुछ वैसी ही रही है। सिख और मुसलमानों के बीच की सांप्रदायिकता तो कुछेक फिल्मों में चित्रित की गई है किन्तु हिन्दू और सिख सांप्रदायिकता को गुलजार की फिल्म ‘माचिस’ में समग्रता में विषय बनाया गया है। हिन्दू और सिख सांप्रदायिकता पर आधारित ‘माचिस’ पहली हिन्दी फिल्म है।
1984 में इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद भयंकर दंगे हुए जिसमें बड़े पैमाने पर हिन्दुओं द्वारा सिक्खों की हत्या की गई। यह लगभग पूरे भारत में हुआ। सिक्खों की संपत्तियों को लूट लिया गया तथा औरतों के साथ बुरे व्यवहार किए गए। इस दंगे में राज्य के मशीनरियों का जमकर इस्तेमाल किया गया। नेताओं ने भी खुलकर दंगाइयों का साथ दिया। गुलजार कहते हैं ‘‘मैंने 84 के दंगे को अपनी आँखों से देखा है। गलियों एवं नालियों में खून सूखकर पपड़ी बन गई थी। दंगे के कई दिनों बाद लाशें बेल्चा से उठाकर फेंकी जा रही थी।’’ गुलजार ने 84 के दंगे को विषय बनाकर फिल्म बनायी ‘माचिस’ जो दंगे के षड्यंत्रों को पर्दाफाश करती है। जिस समुदाय के साथ ऐसा दर्दनाक अत्याचार किया जाता है और राज्य सहभागी बनता है ऐसी स्थिति में वह अपनी सुरक्षा में हथियार उठाता है तो राज्य उसे आतंकवादी घोषित कर देता है, यह कहाँ का न्याय है? ‘माचिस’ में ओमपुरी से चंद्रचूड़ सिंह अपने परिजनों के बारे में पूछता है तो ओमपुरी का जवाब है आधे को 47 ने खा लिया और जो बचे उसे 84 ने। देश विभाजन के समय लाखों सिख मारे गए थे, पाकिस्तान बनने के बाद उस क्षेत्र में सिखों की संख्या आधी थी। जब वहाँ से सिखों का पलायन हुआ तो उन्हें जान के साथ सारी संपति भी गवानी पड़ी। देश की आजादी और उसके बाद का समय सिक्खों के लिए त्रासद ही रहा। माचिस इन तमाम तथ्यों को समेटती हुई सिक्खों के साथ हुए अन्याय की गुत्थियों को खोलती है। गुलजार इस फिल्म के माध्यम से अनेक प्रश्नों को खड़े करते हैं, जिसका जवाब हमारी राजनीतिक व्यवस्था के पास शायद नहीं है।
2003 में डा0 चन्द्रप्रकाश द्विवेदी ने अमृता प्रीतम की कहानी ‘पिंजर’ पर इसी नाम से फिल्म बनाई। हिन्दी में विभाजन पर बनी अच्छी फिल्मों में से ‘पिंजर’ भी एक है। पिंजर में डा0 द्विवेदी की ईमानदारी साफ झलकती है। ‘पिंजर’ ने फिर से विभाजन की पीड़ा को मुखरित करने का प्रयास किया। इस फिल्म के किरदार नायक-नायिका या सिख-मुसलमान होने से अधिक मानवीय चरित्र है, जो विषम परिस्थितियों और अशांत माहौल में भी अपने प्रयासों से करुणा और शांति की लौ जलाते हैं। लंबे समय के बाद एक सहिष्णु मुसलमान नायक रशीद के रूप में दिखा जो जिंदगी से करीबी के कारण अपनी भूलों के बावजूद हमें छूता और द्रवित करता है। फिल्म में रशीद (मनोज वाजपेयी) खानदानी दुश्मनी की वजह से पूरो (उर्मिला मातोंडकर) को अपहृत कर घर लाता है लेकिन उसके साथ मनमानी नहीं करता है। रशीद के परिवार वाले उस पर दबाव डालकर शादी करवा देते हैं फिर भी रशीद पूरो को पूरी स्वतंत्रता देता है। रूढ़ियों एवं सामाजिक लिहाज के कारण पूरो को परिवार वाले घर लौटने पर स्वीकार नहीं करते हैं। यह निर्णय पूरो के पिता का था न कि माँ का। पूरो पुनः रशीद के पास जाती है और अंततः रशीद से ही उसे सब कुछ मिलता है। बँटवारे के बाद फसादात में खून की होली में न हिन्दू जीता, न सिख और न ही मुसलमान। तीनों ही हार गए। दंगों के दौरान मुट्ठी भर लोगों ने हिंसा पर सवालिया निशान लगाया- उसे भड़कने से रोका। ऐसे लोगों में पूरो भी है। सांप्रदायिक उन्माद के क्षणों में यदि धर्म इंसानों को बाँटता है तो पूरा और रशीद की इंसानियत इन्हें जोड़ती है। पिंजर के प्रमुख पात्र पूरो और राशिद सही अर्थों में संवेदना से लबरेज इंसानों की तरह पर्दे पर चमकते हैं।
डा0 चंद्रप्रकाश द्विवेदी विभाजन पर बनी अब तक के हिन्दी फिल्मों में पिंजर को सबसे अलग रखते हैं। उनका कहना है- ‘‘पिंजर उन फिल्मों से इसलिए अलग हैं कि विभाजन की पृष्ठभूमि के अलावा उनसे और कोई समानता नहीं है। गदर में युद्ध और युद्ध में विजय, एक स्त्री को वापस ले जाना, कहीं-न-कहीं उसे रेखांकित किया जा रहा है। सुपरियरिटी आफ पावर, सुपिरियरिटी आफ रेस, सुपिरियरिटी आफ रिलिजन कहीं न कहीं उसमें है। पिंजर इनमें से किसी को रेखांकित नहीं करती। पिंजर अपने समाज की राजनीति पर कोई टिप्पणी नहीं करती। पिंजर दोनों समुदायों पर कोई विशेष टिप्पणी नहीं करती। पिंजर खासतौर पर पाकिस्तान के विरोध में एक शब्द नहीं कहती। जबकि इसके दोनों पात्र उसी त्रासदी को जी रहे हैं; विभाजन की त्रासदी को जी रहे हैं और मनुष्य के बीच में जो हिन्दू-मुस्लिम की भेद रेखा है, उसको जी रहे हैं और उसके बाद भी एक ऐसा निर्णय करते हैं जो दोनों देशों को चैका देने वाला निर्णय है।’’
देश विभाजन की त्रासदी में महिलाओं पर क्या कहर ढाए जा रहे थे, दंगे-फसाद में किस प्रकार उनकी खरीद-फरोख्त की जा रही थी, दोनों समुदायों में लोग वहशी बनकर कैसे महिलाओं की अस्मत लूट रहे थे इन तमाम अनछुए पहलुओं को पिंजर छूती है। देश बँटवारे से उपजे संकट में महिलाओं के साथ लोगों का कैसा व्यवहार था इस पहलू को पिंजर में मजबूती के साथ चित्रित किया गया है। इस मामले में भी यह फिल्म नयी और अलग है। स्त्री पात्रों की प्रधान भूमिका तथा इन्हीं के इर्द-गिर्द पूरी फिल्म चलती है। एक स्त्रीवादी नजरिए से देश विभाजन को देखने की कोशिश की गई है। इस फिल्म में एक मर्मान्तक दृश्य है जब एक विक्षिप्त महिला के साथ दंगाई बलात्कार करते हैं। तत्पश्चात् वह महिला एक बच्चे को जन्म देती है जो खेत में पूरो को अस्त-व्यस्त हालत में मिलता है। विक्षिप्त महिला प्रसव के तुरंत बाद मर जाती है। पूरो बच्चे को घर लाकर पालती-पोसती है। जब वह बच्चा स्वस्थ होकर भला-चंगा हो जाता है तो हिन्दू दंगाई उस बच्चे को हिन्दू माँ की कोख में जन्म लेने के कारण पूरो से छिन लेते हैं।
पिंजर की पूरो और रशीद नफरत, घृणा, द्वेष और उदासी से भरे वातावरण में प्यार और आशा के दीपक जलाते नजर आते हैं। यहाँ किसी की कोई आलोचना नहीं है बल्कि मानवता की समग्रता में स्थापना है।
‘मिस्टर एण्ड मिसेज अय्यर’ अपर्णा सेन की महत्वपूर्ण फिल्म है। यह फिल्म समकालीन भारत में लोगों की सांप्रदायिक सोच को उजागर करती है। खास करके हिन्दुओं के मन में जो धारणा पैठायी जा रही है कि मुसलमान हिंसक और कट्टर होते हैं, आतंकवादी हैं इसका फिल्म में सफल चित्रण है। देश का पूरा राजनीतिक माहौल ऐसा बनाया जा रहा है जहाँ प्रत्येक मुसलमान शक के दायरे में हैं। उन्हें बार-बार वफादारी और देशभक्ति की परीक्षा देनी पड़ रही है। एक आदमी के कारण पूरे कौम को बदनाम किया जा रहा है। प्रसार माध्यम इस प्रकार तथ्यों को घालमेल कर पेश कर रहे हैं कि सांप्रदायिक सोच की उर्वर जमीन लगातार तैयार हो रही है। आज ऐसा लगता है आजमगढ़ का हर मुसलमान आतंकवादी है। सत्ता, शासन-प्रशासन के खिलाफ जो आवाज उठाता है उसे आतंकवादियों का रहनुमा साबित कर दिया जाता है। मुठभेड़ के नाम पर मारे जाने वाला हर मुसलमान आतंकवादी बताया जाता है। यदि कोई जाँच की माँग करता है तो उसे देशद्रोही साबित कर दिया जाता है। जैसा कि बाटला हाऊस कांड की जाँच की माँग जब अर्जुन सिंह ने की तथा ए0आर0 अंतुले ने हेमंत करकरे की मौत पर सवाल उठाया तो मीडिया से लेकर सरकार तक आग बबूले हो गए। आजमगढ़ के मामले में प्रसिद्ध अभिनेत्री शबाना आजमी ने व्यथित होकर कहा- ‘‘आजमगढ़ के बारे में सुनकर मुझे बहुत तकलीफ हो रही है। मैं भी चाहती हूँ कि दोषियों को सजा मिले, लेकिन किसी एक की वजह से पूरे शहर को बदनाम नहीं किया जाना चाहिए।
इन हालातों में ‘मिस्टर एण्ड मिसेज अय्यर’ जैसी फिल्मों की प्रासंगिकता और बढ़ जाती है। इस फिल्म की कहानी का प्लाट बड़ा दिलचस्प है। एक यात्री बस से लोग सफर कर रहे हैं। इस बस में बैठे यात्री भारत के विभिन्न क्षेत्रों से हैं। बल्कि यह कहना ज्यादा उचित होगा कि बस में बैठे यात्रियों से भारत की वास्तविक तस्वीर उभरती है। विभिन्न धर्मों, भाषाओं, पहनावे-ओढ़ावे, खान-पान तथा आदतों के साथ सारे यात्री बस में बैठे हैं। एक दक्षिण भारतीय ब्राह्मण महिला (कोंकणासेन शर्मा) अपने नवजात शिशु के साथ कोलकाता जा रही है। फोटोग्राफर राजा चैधरी (राहुल बोस) भी कोलकाता जा रहा है जो जरूरत के हिसाब से दक्षिण भारतीय महिला को मदद करता है। बस जब जम्मू पहुँचती है तो पता चलता है कि शहर में कर्फ्यू लागू है। लोग बस से नीचे उतरकर हालात को समझने की कोशिश कर रहे होते हैं कि सेना की गाड़ी आ पहुँचती है। पुलिस इंसपेक्टर बताता है कि कश्मीरी चरमपंथियों ने कुछ हिन्दुओं की हत्या कर दी है, दंगा न भड़के इसलिए कर्फ्यू लागू है। इसके बाद लोगों के सांप्रदायिक राय खुलकर सामने आती है। एक कहता है साले सारे मुसलमान को पाकिस्तान भेज देना चाहिए। गालियाँ दी जाती है। जैसे ही कोंकणा सेन शर्मा को पता चलता है कि फोटोग्राफर राजा चौधरी नहीं जहाँगीर चैधरी है तो मुस्लिमों के प्रति एक पढ़ी-लिखी महिला की भी धारणा स्पष्ट हो जाती है। जब फिर से सारे लोग बस में बैठ जाते हैं तो हिन्दू कट्टरपंथी धावा बोल देते हैं। वे मुसलमानों की पहचान करते हैं। यात्रियों में से ही एक हिन्दू बताता है कि अगली सीट पर एक मुस्लिम दंपति है। इसके बाद उस बुजूर्ग मुस्लिम दंपति की हत्या कर दी जाती है।
लोगों में सांप्रदायिकता की जड़ें कितनी मजबूत हो रही है इस फिल्म में अत्यंत ही निष्पक्षता के साथ दिखलायी गयी है। जहाँगीर चैधरी, राजा चौधरी बनकर पूरे वातावरण की गर्मी को महसूस करता है। अर्पणा सेन ने जहाँगीर चौधरी के चरित्र को इतना व्यापक और प्रगतिशील बनाया है कि विपरीत परिस्थितियों में भी उसकी मानवीयता दम नहीं तोड़ती है। भारत में सांप्रदायिकता, राष्ट्रवाद, आतंकवाद और देशभक्ति बहुत हद तक कश्मीर से तय होता है। भारत और पाकिस्तान के रिश्तों की दिशा भी कश्मीर से ही तय होती है। कश्मीर, मीडिया के लिए सालों भर के लिए खबर है। भारत सरकार की नजर में यहाँ का लगभग हर आंदोलन अलगाववाद से प्रेरित है तथा आतंकवाद से पोषित है व पाकिस्तान समर्थित है। पाकिस्तान इन लोगों को फ्रीडम-फाइटर कहता है। भारत और पाकिस्तान के आपसी वर्चस्व की लड़ाई तथा तर्कों में कश्मीर की आवाज हमेशा गौण होती रही है। वहाँ की मूल समस्याओं को समझने की कोशिश इसी कारण नहीं की जाती है। वहाँ के लोग क्या चाहते हैं यह कोई मुद्दा ही नहीं है। इन्हीं अनछूए पहलुओं को विषय बनाकर 2006 में सुजीत सिरकर ने ‘यहाँ’ फिल्म बनाई। यहाँ एक संतुलित फिल्म है जहाँ देशभक्ति की उल्टी नहीं है किसी खास समुदाय को लक्ष्य कर आलोचना नहीं की गई है बल्कि घटनाओं एवं हकीकतों का समग्रता में निष्पक्ष विश्लेषण है। ‘यहाँ’ फिल्म भी कई सवालों को एक साथ उठाती है। कश्मीर में भारतीय सैनिकों की भूमिका पर, राजनेताओं की नीतियों पर तथा वादी में फैली नफरत के कारणों पर।
निशिकांत कामत की फिल्म ‘मुंबई मेरी जान’ आतंकवादियों द्वारा मुंबई के लोकल ट्रेनों में किए गए बम विस्फोट पर फोकस है। इस फिल्म में भी आतंकवाद, उसकी गहरी जड़ें, भ्रम, द्वंद्व में जूझता मेहनतकश आदमी, मीडिया की हास्यास्पद भूमिका, प्रशासन-व्यवस्था की अकर्मण्यता को सफलतापूर्वक चित्रित किया गया है। खासकर इस फिल्म में मीडिया की भूमिका पर करारा व्यंग्य किया गया है जो कि आतंकवाद को टीआरपी बढ़ाने के लिए इस्तेमाल करता है।
एक सामंत महापंचायत
बिहार में चुनावी रिहर्लसल शुरु हो गया है। राजद, जदयू, भाजपा और कांग्रेस की पटकथा में कोई खास अंतर नहीं है बावजूद चुनावी रंगमंच पर अलग दिखने की लगातार कोशिश की जा रही है। बिहार में चल रही चुनाव पूर्व गतिविधियों को देखें तो कई वितंडा उभरकर सामने आएगा। जदयू के कुछ बागी नेताओं ने नौ मई को गांधी मैदान में कथित किसान महापंचायत लगाई। महापंचायत की नायाब अवधारणा लेकर आए जदयू के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष और मूंगेर से सांसद ललन सिंह, जदयू के पूर्व बाहुबली सांसद प्रभुनाथ सिंह, बांका से निर्दलीय सांसद दिग्विजय सिंह और राजद नेता अखिलेश सिंह। यह महापंचायत लगी बंटाईदारी बिल के विरोध की जमीन पर। इन नेताओं ने बिहार के विभिन्न हिस्सों में जाकर लोगों से कहा कि नीतीश सरकार बंटाईदारी बिल लागू करने वाली है। उन्होंने यह भी कहा कि यदि यह कानून लागू हो गया तो किसानों को जमीन से बेदखल कर दिया जाएगा। इन नेताओं ने दावा किया कि नौ मई को गांधी मैदान में लाखों किसानो की भीड़ जमा होगी। लाखों की भीड़ जमा होने की बात तो खोखली साबित हुई, हां यह जरुर हुआ की भीड़ से ज्यादा गाड़ियां आईं। पूरा पटना मंहगी गाड़ियों से पाट दिया गया। गाड़ियों की भीड़ से वाकई में पटना पूरा दिन त्रस्त दिखा। अब सवाल यह उठता है कि इन महंगी गाड़ियों से आखिर कौन किसान आए थे? अचानक इन नेताओं ने किसान नेता का दामन कैसे ओढ़ लिया? क्या कोई किसान महापंचायत, बंटाईदारी बिल के विरोध की बात कर सकती है? तो फिर इसे क्यों न सामंत महापंचायत कहें? ये कुछ ऐसे सवाल हैं जिनसे बिना जूझे इस महापंचायत के चरित्र को नहीं समझ सकते हैं।
आज तक हमारे समाज में पेशेगत पहचान नहीं बन पाई है। किसान की पहचान किसान से नहीं नहीं होती है यहां तक कि अभी तक छात्र की पहचान छात्र से नहीं होती है। पेशेगत पहचानों पर जातिगत और धार्मिक पहचान हावी रहती है। हम पूरी दुनिया में भी देख सकते हैं कि लोगों की पहचान धर्मों, सभ्यताओं या संस्कृतियों के समूह के रूप में की जा रही है। उनकी अन्य पहचानों जैसे वर्ग, लिंग, व्यवसाय, भाषा, विज्ञान, नैतिकता तथा राजनीति की बिल्कुल उपेक्षा कर दी जाती है। अब सवाल यह उठता है कि बिहार में जिस किसान महापंचायत की बात की जा रही है क्या इसमें शामिल लोग वाकई में किसान थे या किसी खास जाति या वर्ग के थे। किसान महापंचायत के नेताओं ने इन कथित किसानों को कृषि संकट से लड़ने के लिए बुलाया था या उनकी जमींदारी को बचाने के लिए? नेशनल सैंपल सर्वे 2003 के अनुसार बिहार में 96..5 प्रतिशत लघु और सीमांत किसान हैं जबकि इनके पास कुल भूमि का महज 66 फीसदी पर ही स्वामित्व है। दूसरी तरफ मात्र 3.5 प्रतिशत लोगों के पास बिहार की कुल खेतीहर भूमि का 33 फीसदी है। इनमें से भी 0.1 फीसदी वैसे लोग भी हैं जिनके पास 4.63 प्रतिशत भूमि है। मतलब 0.1 फीसदी लोगों के पास आठ लाख हेक्टेयर यानी 19.76 लाख एकड़ भूमि पर स्वामित्व है। जाहिर है नौ मई को गांधी मैदान में लगी किसान महापंचयत 3.5 प्रतिशत लोगों की जमींदारी बचाने के लिए थी क्योंकि किसान महापंचायत बंटाईदारी बिल के विरोध में लगी थी।
भूमि सुधार कानून बिहार में सबसे पहले बना था। भू-हदबंदी (लैण्ड-सीलिंग) से अधिक जमीन रखने वाले भूपतियों से अतिरिक्त जमीन लेकर भूमिहीनों के बीच बाँटने वाला जो कानून यहाँ 1961 में बना था, जिसे चार दशक बाद भी किसी को लागू करवाने की हिम्मत नहीं हुई। आशचर्य है कि राज्य की ‘तमाम गैरमजरुआ खास जमीनों’ का पता लगाकर उन्हें गरीबों के बीच बाँटने का जो आदेश राज्य सरकार ने सन् 1954 में दिया था, आज 51 साल बाद भी उस पर अमल न हो सका। भू-हदबंदी से प्राप्त 80 हजार एकड़ जमीन गरीबों में नहीं
बँट सकी क्योंकि इससे जुड़े मामले पिछले 16 सालों से विभिन्न अदालतों में लंबित है।
2006 में नीतीश सरकार ने डी. बंद्योपाध्याय के नेतृत्व में भूमि सुधार आयोग का गठन किया गया। 2008 में आयोग की सिफारिशें आईं लेकिन आयोग की अनुशंसाओं को लागू करवाने की मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को हिम्मत नहीं हुई। अब माजरा यह है कि खुद मुख्यमंत्री ही कह रहे हैं कि कोई बंटाईदारी कानून नहीं लागू होने वाला है। कहा तो यह जा रहा है कि ललन सिंह ने जदयू से बगावत कर किसान महापंचायत का आयोजन किया। लेकिन एक सवाल यह भी उठता है कि अब तक नीतीश कुमार ने ललन सिंह को पार्टी से निकाला क्यों नहीं? नीतीश कुमार का वोट बैंक पिछड़ी जातियां हैं। लेकिन सरकार में अगड़ी जातियों का गहरा पैठ होने के कारण पिछड़ी जातियों में क्षोभ का वातावरण कायम होने लगा था। अक्तूबर-नवंबर में चुनाव होने वाला है। तो क्या यह सरकार की चुनावी स्क्रिप्ट है? इसके अलावा और कुछ है भी नहीं।
नीतीश कुमार के शासन काल में भूमि सुधार आयोग के अलावा अमीर दास आयोग भी चर्चा में रही । अमीर दास राबड़ी देवी के शासन काल में रणवीर सेना के सियासी संपर्कों की तहकीकात करने के लिए गठित किया गया था। तहकीकात के शुरुआती रुझान में ही भाजपा के बड़े नेताओं के नाम आने की वजह से मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने आयोग को भंग कर दिया। हम इन दो वाकयों से ही सरकार की नियत को समझ सकते हैं।
संयोग से किसान महापंचायत के ठीक दूसरे दिन पटना में 10 मई को भाकपा माले के नेतृत्व में राष्ट्रीय किसान सम्मेलन हुआ। सम्मेलन में केवल बिहार ही नहीं देश के दूसरे राज्यों से भी किसान आए। यह सम्मेलन बंटाईदारी बिल के समर्थन में था। 10 मई की सुबह से ही किसान स्टेशन और बस स्टैंड से अपने गमछे में बांधे साग-सत्तु के साथ सम्मेलन स्थल की ओर आना शुरु कर दिए थे। ज्यादातर किसान 50 से ऊपर के थे। सम्मेलन की शुरुआत में ही जब इन बुजुर्गों किसानों ने, किसान आंदोलन को लाल सलाम, चारु मजूमदार को लाल सलाम नारे को बुलंद किया तो मानो प्रतिरोध की बची आग जवां हो रह थी। ओडीशा के कलिंगनगर से आए एक किसान रामदीन से जब मैंने पूछा कि अब लाल सलाम का क्या मतलब रह जाता है। उन्होंने बड़ी बेबाकी से कहा “लाल सलाम एक आग है जो गाहे-बगाहे धधकती रहती है। यह आग व्यवस्था में आते ही काफूर हो जाती है। हालांकि इससे मुझे निराशा नहीं होती है। हां क्षोभ जरूर होता है। लेकिन याद रखना क्रांति के लिए क्षोभ ऊर्जा होती है। हम भले ही क्रांति के सपने देखते मर-खप जाएं लेकिन आने वाले समय में हमारी पीढ़ियों के लिए क्रांति की संभावनाएं और प्रबल ही होंगी।” बंगाल के सिलीगुड़ी से आए रजो दा कहते हैं “कोई किसान बंटाईदारी बिल का विरोध कैसे कर सकता है? साफ है जो विरोध कर रहे हैं वे किसान कम सामंत और जमींदार ज्यादा हैं। बंगाल में भी ऑपरेशन वर्गा का विरोध किया गया था, जाहिर है विरोध करने वाले किसान नहीं जमींदार थे। व्यंग्यात्मक लहजे में कहते हैं अब तो शरद पवार भी खुद को किसान और किसान नेता कहते हैं तो क्या हमे उन्हें भी किसान मान लेना चाहिए?” तो रजो दा के सवाल से नीतीश सरकार क्यों नहीं टकराना चाहती है?
आज तक हमारे समाज में पेशेगत पहचान नहीं बन पाई है। किसान की पहचान किसान से नहीं नहीं होती है यहां तक कि अभी तक छात्र की पहचान छात्र से नहीं होती है। पेशेगत पहचानों पर जातिगत और धार्मिक पहचान हावी रहती है। हम पूरी दुनिया में भी देख सकते हैं कि लोगों की पहचान धर्मों, सभ्यताओं या संस्कृतियों के समूह के रूप में की जा रही है। उनकी अन्य पहचानों जैसे वर्ग, लिंग, व्यवसाय, भाषा, विज्ञान, नैतिकता तथा राजनीति की बिल्कुल उपेक्षा कर दी जाती है। अब सवाल यह उठता है कि बिहार में जिस किसान महापंचायत की बात की जा रही है क्या इसमें शामिल लोग वाकई में किसान थे या किसी खास जाति या वर्ग के थे। किसान महापंचायत के नेताओं ने इन कथित किसानों को कृषि संकट से लड़ने के लिए बुलाया था या उनकी जमींदारी को बचाने के लिए? नेशनल सैंपल सर्वे 2003 के अनुसार बिहार में 96..5 प्रतिशत लघु और सीमांत किसान हैं जबकि इनके पास कुल भूमि का महज 66 फीसदी पर ही स्वामित्व है। दूसरी तरफ मात्र 3.5 प्रतिशत लोगों के पास बिहार की कुल खेतीहर भूमि का 33 फीसदी है। इनमें से भी 0.1 फीसदी वैसे लोग भी हैं जिनके पास 4.63 प्रतिशत भूमि है। मतलब 0.1 फीसदी लोगों के पास आठ लाख हेक्टेयर यानी 19.76 लाख एकड़ भूमि पर स्वामित्व है। जाहिर है नौ मई को गांधी मैदान में लगी किसान महापंचयत 3.5 प्रतिशत लोगों की जमींदारी बचाने के लिए थी क्योंकि किसान महापंचायत बंटाईदारी बिल के विरोध में लगी थी।
भूमि सुधार कानून बिहार में सबसे पहले बना था। भू-हदबंदी (लैण्ड-सीलिंग) से अधिक जमीन रखने वाले भूपतियों से अतिरिक्त जमीन लेकर भूमिहीनों के बीच बाँटने वाला जो कानून यहाँ 1961 में बना था, जिसे चार दशक बाद भी किसी को लागू करवाने की हिम्मत नहीं हुई। आशचर्य है कि राज्य की ‘तमाम गैरमजरुआ खास जमीनों’ का पता लगाकर उन्हें गरीबों के बीच बाँटने का जो आदेश राज्य सरकार ने सन् 1954 में दिया था, आज 51 साल बाद भी उस पर अमल न हो सका। भू-हदबंदी से प्राप्त 80 हजार एकड़ जमीन गरीबों में नहीं
बँट सकी क्योंकि इससे जुड़े मामले पिछले 16 सालों से विभिन्न अदालतों में लंबित है।
2006 में नीतीश सरकार ने डी. बंद्योपाध्याय के नेतृत्व में भूमि सुधार आयोग का गठन किया गया। 2008 में आयोग की सिफारिशें आईं लेकिन आयोग की अनुशंसाओं को लागू करवाने की मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को हिम्मत नहीं हुई। अब माजरा यह है कि खुद मुख्यमंत्री ही कह रहे हैं कि कोई बंटाईदारी कानून नहीं लागू होने वाला है। कहा तो यह जा रहा है कि ललन सिंह ने जदयू से बगावत कर किसान महापंचायत का आयोजन किया। लेकिन एक सवाल यह भी उठता है कि अब तक नीतीश कुमार ने ललन सिंह को पार्टी से निकाला क्यों नहीं? नीतीश कुमार का वोट बैंक पिछड़ी जातियां हैं। लेकिन सरकार में अगड़ी जातियों का गहरा पैठ होने के कारण पिछड़ी जातियों में क्षोभ का वातावरण कायम होने लगा था। अक्तूबर-नवंबर में चुनाव होने वाला है। तो क्या यह सरकार की चुनावी स्क्रिप्ट है? इसके अलावा और कुछ है भी नहीं।
नीतीश कुमार के शासन काल में भूमि सुधार आयोग के अलावा अमीर दास आयोग भी चर्चा में रही । अमीर दास राबड़ी देवी के शासन काल में रणवीर सेना के सियासी संपर्कों की तहकीकात करने के लिए गठित किया गया था। तहकीकात के शुरुआती रुझान में ही भाजपा के बड़े नेताओं के नाम आने की वजह से मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने आयोग को भंग कर दिया। हम इन दो वाकयों से ही सरकार की नियत को समझ सकते हैं।
संयोग से किसान महापंचायत के ठीक दूसरे दिन पटना में 10 मई को भाकपा माले के नेतृत्व में राष्ट्रीय किसान सम्मेलन हुआ। सम्मेलन में केवल बिहार ही नहीं देश के दूसरे राज्यों से भी किसान आए। यह सम्मेलन बंटाईदारी बिल के समर्थन में था। 10 मई की सुबह से ही किसान स्टेशन और बस स्टैंड से अपने गमछे में बांधे साग-सत्तु के साथ सम्मेलन स्थल की ओर आना शुरु कर दिए थे। ज्यादातर किसान 50 से ऊपर के थे। सम्मेलन की शुरुआत में ही जब इन बुजुर्गों किसानों ने, किसान आंदोलन को लाल सलाम, चारु मजूमदार को लाल सलाम नारे को बुलंद किया तो मानो प्रतिरोध की बची आग जवां हो रह थी। ओडीशा के कलिंगनगर से आए एक किसान रामदीन से जब मैंने पूछा कि अब लाल सलाम का क्या मतलब रह जाता है। उन्होंने बड़ी बेबाकी से कहा “लाल सलाम एक आग है जो गाहे-बगाहे धधकती रहती है। यह आग व्यवस्था में आते ही काफूर हो जाती है। हालांकि इससे मुझे निराशा नहीं होती है। हां क्षोभ जरूर होता है। लेकिन याद रखना क्रांति के लिए क्षोभ ऊर्जा होती है। हम भले ही क्रांति के सपने देखते मर-खप जाएं लेकिन आने वाले समय में हमारी पीढ़ियों के लिए क्रांति की संभावनाएं और प्रबल ही होंगी।” बंगाल के सिलीगुड़ी से आए रजो दा कहते हैं “कोई किसान बंटाईदारी बिल का विरोध कैसे कर सकता है? साफ है जो विरोध कर रहे हैं वे किसान कम सामंत और जमींदार ज्यादा हैं। बंगाल में भी ऑपरेशन वर्गा का विरोध किया गया था, जाहिर है विरोध करने वाले किसान नहीं जमींदार थे। व्यंग्यात्मक लहजे में कहते हैं अब तो शरद पवार भी खुद को किसान और किसान नेता कहते हैं तो क्या हमे उन्हें भी किसान मान लेना चाहिए?” तो रजो दा के सवाल से नीतीश सरकार क्यों नहीं टकराना चाहती है?
तो खत्म हो जाएंगी बोलियां
ताऊ, चाचा और काका अंकल बन गए। पिता, डैड और मां, मॉम। आज की पीढ़ी ने इन शब्दो को आत्मसात कर लिया है। कोई कह सकता है इसमें समस्या क्या है। समय के साथ बहुत कुछ बदलता है। तो क्या इस बदलाव को सहज-स्वाभाविक मान लिया जाए। दरअसल शब्द केवल शब्द नहीं होते हैं। उनका अपना एक पूरा संदर्भ होता है। ताऊ, चाचा और काका में जो भाव और संवेदना है वह अंकल में कहां से मिल पाएगा। शब्दों का निर्माण हमारे परिवेश और सामाजिक तानाबाना से होता है। हमारे तौर-तरीके, संस्कृति और परंपरा से। अंकल शब्द हमारे परिवेश से नहीं निकला है। जब हम किसी को ताऊ कहते हैं तो यह महज संबोधन नहीं होता है बल्कि रिश्तों का पूरा भाव होता है। और जब हम किसी को अंकल कहते हैं तो वह महज संबोधन होता है। एक सवाल यह भी है कि क्या हर किस्म के बदलाव को आधुनिक मान लिया जाए? क्या आधुनिकता का मतलब केवल नयापन होता है? भाषा और बोलियों के क्षेत्र में जो बदलाव हम देख रहे हैं वह एक दबाव के कारण हो रहा है। यह दबाव राजनीतिक और साम्राज्यवादी तो है ही मनोवैज्ञानिक भी है। हमारे परिवेश में मनोवैज्ञानिक दबाव सबसे ज्यादा काम कर रहा है। हालांकि इस दबाव में भ्रम और पागलपन ज्यादा है। अब कोई अपनी बोली या भाषा इसलिए नहीं बोले कि कथित रूप से पिछड़ा रह जाएगा या आधुनिकता के दौर में पीछे छूट जाएगा तो यह पागलपन ही तो है।
आज हमारी बोलियों पर गहरा संकट है। कुछ महीने पहले ग्रेट अंडमान निकोबार में बोरा, बो और होरा बो बोलने वाला कोई नहीं रहा। एक मात्र आदिवासी महिला बची थीं। वह भी नहीं रहीं। भारत में 300 भाषाएं और बोलियां हैं जिसमें 196 अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही हैं। यूनेस्को ने एक अध्ययन के बाद बताया है कि प्रत्येक 14 दिनों में एक भाषा या बोली खत्म रही है। संपूर्ण विश्व में लगभग 7000 भाषाएं या बोलियां बोली जाती हैं। यूनेस्को का कहना है कि 100 साल से कम ही समय में आधी बोलियां खत्म हो जाएंगी।
हम हिन्दी प्रदेश की ही बात करें तो आमबोलचाल की भाषा खड़ी हिन्दी नहीं बल्कि अवधी, भोजपुरी, मगही, ब्रज, मैथिली, अंगिका, व्रजिका, संथाली, मुंडारी, नागपुरी और मालवी है। आदिवासियों की बोलियों पर तो सबसे ज्यादा संकट है। जब हम आदिवासियों के विकास की बात करते हैं तो सबसे पहले उनके तौर-तरीकों को पिछड़ा घोषित कर देते हैं। आनन-फानन में शर्त रख दी जाती है कि आपको मुख्यधारा में शामिल होना है तो पूरा सामाजिक, सांस्कृतिक तेवर और कलेवर बदलने होंगे। इस बदलाव का दबाव इतना गहरा है कि हम सुदूर आदिवासी इलाकों में भी साफ देख सकते हैं। झारखंड के जिन आदिवासी इलाकों में आरएसएस और ईसाई मिशनरियों का प्रभाव है वहां उनकी मौलिकता को पूरी तरह से खारिज किया जा रहा है। एक तरफ हिन्दू बनाने का अभियान चलाया जा रहा है तो दूसरी तरफ ईसाई। एक विशुद्ध देशी वनाने का दावा कर रहा है तो दूसरा आधुनिक। हमे देखना होगा कि इस शुद्धीकरण के अभियान में आदिवासियों को कितना फायदा हो रहा है। आज यह दोनो अभियान आदिवासियों के सांस्कृतिक तनाबाना को इतना निरपेक्ष मानकर चल रहा है मानो उसका जलवायु और प्रकृति से कोई संबंध ही नहीं है। शब्द, लोकोक्ति और मुहावरों में प्रकृति, परिवेश और जलवायु की खुश्बू हम सीधे तौर पर महसूस कर सकते हैं। भारत के जिन क्षेत्रो की आबादी समुद्र के आसपास है उनकी बोलियों में समुद्री जनजीवन का साफ असर देख सकते हैं। उत्तर भारत में समुद्र न होने की वजह से हम देख सकते हैं कि समुद्र से संबंधित कोई मुहावरे नहीं मिलते हैं। हम बाजार के आगोश में आकर तमाम तरह की विविधताओं को तो मिटा रहे हैं लेकिन सवाल यह है कि क्या यह विविधता अनायास है? क्या हम भौगोलिक विविधता को भी मिटा देंगे? जाहिर है ऐसा दुःसाहस मानव जीवन के अस्तित्व के लिए खतरनाक साबित हो रहा है। भूमंडलीकरण की आंधी में जिस प्रकार विविधताएं खत्म हो रही हैं और जिस एकरूपता को कायम करने का अभियान चलाया जा रहा है उसका गहरा दुष्प्रभाव हमारी प्रकृति और जलवायु पर देखने को मिल रहा है। हम जिस अमेरिकी सामाजिक और सांस्कृतिक उपभोक्तावादी तानाबाना को भारत में स्थापित करना चाह रहे हैं क्या उससे हमारा प्राकृतिक वातावरण सुरक्षित रह पाएगा? हम विकास के नाम पर आदिवासियों को जंगल से बेदखल कर रहे हैं लेकिन उसके बाद जंगल को का क्या हश्र हो रहा है? इस बात को हमे समझना होगा कि हमारी बोलियां और तौर-तरीके बदलते हैं तो अनिवार्यतः प्रकृति से व्यवहार भी बदलते हैं। आज यदि जल, जंगल और जमीन से हमारे रिश्तें व्यवसायिक होते जा रहे हैं तो इसका सबसे बड़ा कारण यह भी है कि हम अपनी मौलिकता से कट रहे हैं और अपनी बुनियाद को जाने-अनजाने में कमजोर कर रहे हैं। अब राजस्थान के जनजीवन में जल के जितने और जिस स्वरूप में मिथ होंगे वह बिहार और उत्तर प्रदेश में नहीं होंगे। लेकिन जब हम भाषायी एकरुपता की बात करते हैं तो उससे रिश्तों में एक बदलाव आता है। जाहिर यह बदलाव उस समाज में कई तरह की वितंडाओं को साथ लेकर आता है। दक्षिण भारत में चावल से बने डिश का वहां की जलवायु से जो संबंध है वह अन्य प्रदेशों या देशों के डिश से कायम नहीं हो सकता। संस्कृति का निर्माण भूख और यौनेच्छा की बुनियाद पर होती है। और भूख व यौनेच्छा का गहरा संबंध प्रकृति से होता है। मतलब प्राकृतिक तेवर और सांस्कृति मिजाज में अंतरंग संबंध होते हैं।
राष्ट्रीय भाषा संस्थान मैसूर की रिपोर्ट में भारत के 12 आदिवासी भाषाओं को विलुप्त होने वाली सूची में रखा गया है। अंडमान की जारवा, अंडमानी जैसी भाषाएं तो हैं ही जिन्हें बोलने वाले मात्र चार व्यक्ति बचे हैं। झारखंड की कुड़खु भाषा भी शामिल है जिसे बोले वालों की संख्या लाखों में है। भारत में एक करोड़ से कम बोले जाने वाली भाषाओं की संख्या 29 है। इसमें झारखंड की छह भाषाएं हैं- खड़िया, मुंडा, कुड़खु, किसान और मलतो। एक लाख से कम 10, दस हजार से कम 118, पांच हजार से कम 92, एक हजार से कम 30, पांच सौ से कम 17 और 100 से कम छह भाषाएं हैं। 1991 की तुलना में 2001 में भारत की आदिवासी भाषाओं में झारखंड की ‘हो’ और ‘किसान’ में 11.33 और 12.96 फीसदी की कमी आई है। जबकि भाषा छोड़ने की सबसे खतरनाक प्रवृत्ति ‘कुड़खु’ भाषा समुदाय में चिन्हित की गई है। भारत की 114 मुख्य भाषाओ में 22 को ही संविधान की आठवीं अननुसूची में शामिल किया गया है। इनमें हाल फिलहाल में शामिल की गई ‘संथाली’ और ‘बोडो’ ही मात्र आदिवासी भाषाएं हैं। अनुसूची में शामिल संथाली(0.62), सिंधी, नेपाली, बोडो(0.25), मिताई(0.15) डोगरी व संस्कृत भाषाएं एक प्रतिशत से भी कम लोगों द्वारा बोली जाती है।
देश की सभी बोलियों और भाषाओं के संरक्षण तथा विकास के लिए, उनके प्रचार-प्रसार के लिए भारतीय संविधान के प्रथम अध्याय में 120, 210, 343, 344 द्वितीय अध्याय में 345 से 347 तृतीय अध्याय में 348-49 और चतुर्थ अधयाय में 350, 350ए, 350बी और 351 धाराएं हैं। लेकिन ये सभी संवैधानिक प्रावधान केवल निर्देश बनकर रह गए। समस्त आदिवासी, देशज और क्षेत्रीय लोकभाषाओं को उनके हक से वंचित रखा गया। सरकार के पास भाषाओं के संरक्षण और विकास के लिए कोई स्पष्ट नीति नहीं है।
आज की पीढ़ी अपनी बोलियों से तौबा कर रही है। माजरा यह है कि पब्लिक और कॉन्वेंट स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों पर दबाव बनाया जा रहा है कि अपनी कक्षा से बाहर भी अंग्रेजी में ही बात करें। जब हमारे शिक्षण संस्थानों से अपना सामाजिक और सांसकृतिक परिवेश ही खत्म हो जाएगा तो उस शिक्षा मतलब क्या रह जाता है? सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों पर भी एक मनोवैज्ञानिक दबाव रहता है कि कम-से-कम खड़ी हिन्दी में तो बात करें ही। हम ऐसा तो नहीं कह सकते कि आने वाले दशकों में बोलियां पूरी तरह से खत्म हो जाएंगी लेकिन संकट घनघोर है।
आज हमारी बोलियों पर गहरा संकट है। कुछ महीने पहले ग्रेट अंडमान निकोबार में बोरा, बो और होरा बो बोलने वाला कोई नहीं रहा। एक मात्र आदिवासी महिला बची थीं। वह भी नहीं रहीं। भारत में 300 भाषाएं और बोलियां हैं जिसमें 196 अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही हैं। यूनेस्को ने एक अध्ययन के बाद बताया है कि प्रत्येक 14 दिनों में एक भाषा या बोली खत्म रही है। संपूर्ण विश्व में लगभग 7000 भाषाएं या बोलियां बोली जाती हैं। यूनेस्को का कहना है कि 100 साल से कम ही समय में आधी बोलियां खत्म हो जाएंगी।
हम हिन्दी प्रदेश की ही बात करें तो आमबोलचाल की भाषा खड़ी हिन्दी नहीं बल्कि अवधी, भोजपुरी, मगही, ब्रज, मैथिली, अंगिका, व्रजिका, संथाली, मुंडारी, नागपुरी और मालवी है। आदिवासियों की बोलियों पर तो सबसे ज्यादा संकट है। जब हम आदिवासियों के विकास की बात करते हैं तो सबसे पहले उनके तौर-तरीकों को पिछड़ा घोषित कर देते हैं। आनन-फानन में शर्त रख दी जाती है कि आपको मुख्यधारा में शामिल होना है तो पूरा सामाजिक, सांस्कृतिक तेवर और कलेवर बदलने होंगे। इस बदलाव का दबाव इतना गहरा है कि हम सुदूर आदिवासी इलाकों में भी साफ देख सकते हैं। झारखंड के जिन आदिवासी इलाकों में आरएसएस और ईसाई मिशनरियों का प्रभाव है वहां उनकी मौलिकता को पूरी तरह से खारिज किया जा रहा है। एक तरफ हिन्दू बनाने का अभियान चलाया जा रहा है तो दूसरी तरफ ईसाई। एक विशुद्ध देशी वनाने का दावा कर रहा है तो दूसरा आधुनिक। हमे देखना होगा कि इस शुद्धीकरण के अभियान में आदिवासियों को कितना फायदा हो रहा है। आज यह दोनो अभियान आदिवासियों के सांस्कृतिक तनाबाना को इतना निरपेक्ष मानकर चल रहा है मानो उसका जलवायु और प्रकृति से कोई संबंध ही नहीं है। शब्द, लोकोक्ति और मुहावरों में प्रकृति, परिवेश और जलवायु की खुश्बू हम सीधे तौर पर महसूस कर सकते हैं। भारत के जिन क्षेत्रो की आबादी समुद्र के आसपास है उनकी बोलियों में समुद्री जनजीवन का साफ असर देख सकते हैं। उत्तर भारत में समुद्र न होने की वजह से हम देख सकते हैं कि समुद्र से संबंधित कोई मुहावरे नहीं मिलते हैं। हम बाजार के आगोश में आकर तमाम तरह की विविधताओं को तो मिटा रहे हैं लेकिन सवाल यह है कि क्या यह विविधता अनायास है? क्या हम भौगोलिक विविधता को भी मिटा देंगे? जाहिर है ऐसा दुःसाहस मानव जीवन के अस्तित्व के लिए खतरनाक साबित हो रहा है। भूमंडलीकरण की आंधी में जिस प्रकार विविधताएं खत्म हो रही हैं और जिस एकरूपता को कायम करने का अभियान चलाया जा रहा है उसका गहरा दुष्प्रभाव हमारी प्रकृति और जलवायु पर देखने को मिल रहा है। हम जिस अमेरिकी सामाजिक और सांस्कृतिक उपभोक्तावादी तानाबाना को भारत में स्थापित करना चाह रहे हैं क्या उससे हमारा प्राकृतिक वातावरण सुरक्षित रह पाएगा? हम विकास के नाम पर आदिवासियों को जंगल से बेदखल कर रहे हैं लेकिन उसके बाद जंगल को का क्या हश्र हो रहा है? इस बात को हमे समझना होगा कि हमारी बोलियां और तौर-तरीके बदलते हैं तो अनिवार्यतः प्रकृति से व्यवहार भी बदलते हैं। आज यदि जल, जंगल और जमीन से हमारे रिश्तें व्यवसायिक होते जा रहे हैं तो इसका सबसे बड़ा कारण यह भी है कि हम अपनी मौलिकता से कट रहे हैं और अपनी बुनियाद को जाने-अनजाने में कमजोर कर रहे हैं। अब राजस्थान के जनजीवन में जल के जितने और जिस स्वरूप में मिथ होंगे वह बिहार और उत्तर प्रदेश में नहीं होंगे। लेकिन जब हम भाषायी एकरुपता की बात करते हैं तो उससे रिश्तों में एक बदलाव आता है। जाहिर यह बदलाव उस समाज में कई तरह की वितंडाओं को साथ लेकर आता है। दक्षिण भारत में चावल से बने डिश का वहां की जलवायु से जो संबंध है वह अन्य प्रदेशों या देशों के डिश से कायम नहीं हो सकता। संस्कृति का निर्माण भूख और यौनेच्छा की बुनियाद पर होती है। और भूख व यौनेच्छा का गहरा संबंध प्रकृति से होता है। मतलब प्राकृतिक तेवर और सांस्कृति मिजाज में अंतरंग संबंध होते हैं।
राष्ट्रीय भाषा संस्थान मैसूर की रिपोर्ट में भारत के 12 आदिवासी भाषाओं को विलुप्त होने वाली सूची में रखा गया है। अंडमान की जारवा, अंडमानी जैसी भाषाएं तो हैं ही जिन्हें बोलने वाले मात्र चार व्यक्ति बचे हैं। झारखंड की कुड़खु भाषा भी शामिल है जिसे बोले वालों की संख्या लाखों में है। भारत में एक करोड़ से कम बोले जाने वाली भाषाओं की संख्या 29 है। इसमें झारखंड की छह भाषाएं हैं- खड़िया, मुंडा, कुड़खु, किसान और मलतो। एक लाख से कम 10, दस हजार से कम 118, पांच हजार से कम 92, एक हजार से कम 30, पांच सौ से कम 17 और 100 से कम छह भाषाएं हैं। 1991 की तुलना में 2001 में भारत की आदिवासी भाषाओं में झारखंड की ‘हो’ और ‘किसान’ में 11.33 और 12.96 फीसदी की कमी आई है। जबकि भाषा छोड़ने की सबसे खतरनाक प्रवृत्ति ‘कुड़खु’ भाषा समुदाय में चिन्हित की गई है। भारत की 114 मुख्य भाषाओ में 22 को ही संविधान की आठवीं अननुसूची में शामिल किया गया है। इनमें हाल फिलहाल में शामिल की गई ‘संथाली’ और ‘बोडो’ ही मात्र आदिवासी भाषाएं हैं। अनुसूची में शामिल संथाली(0.62), सिंधी, नेपाली, बोडो(0.25), मिताई(0.15) डोगरी व संस्कृत भाषाएं एक प्रतिशत से भी कम लोगों द्वारा बोली जाती है।
देश की सभी बोलियों और भाषाओं के संरक्षण तथा विकास के लिए, उनके प्रचार-प्रसार के लिए भारतीय संविधान के प्रथम अध्याय में 120, 210, 343, 344 द्वितीय अध्याय में 345 से 347 तृतीय अध्याय में 348-49 और चतुर्थ अधयाय में 350, 350ए, 350बी और 351 धाराएं हैं। लेकिन ये सभी संवैधानिक प्रावधान केवल निर्देश बनकर रह गए। समस्त आदिवासी, देशज और क्षेत्रीय लोकभाषाओं को उनके हक से वंचित रखा गया। सरकार के पास भाषाओं के संरक्षण और विकास के लिए कोई स्पष्ट नीति नहीं है।
आज की पीढ़ी अपनी बोलियों से तौबा कर रही है। माजरा यह है कि पब्लिक और कॉन्वेंट स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों पर दबाव बनाया जा रहा है कि अपनी कक्षा से बाहर भी अंग्रेजी में ही बात करें। जब हमारे शिक्षण संस्थानों से अपना सामाजिक और सांसकृतिक परिवेश ही खत्म हो जाएगा तो उस शिक्षा मतलब क्या रह जाता है? सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों पर भी एक मनोवैज्ञानिक दबाव रहता है कि कम-से-कम खड़ी हिन्दी में तो बात करें ही। हम ऐसा तो नहीं कह सकते कि आने वाले दशकों में बोलियां पूरी तरह से खत्म हो जाएंगी लेकिन संकट घनघोर है।
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