बिहार में चुनावी रिहर्लसल शुरु हो गया है। राजद, जदयू, भाजपा और कांग्रेस की पटकथा में कोई खास अंतर नहीं है बावजूद चुनावी रंगमंच पर अलग दिखने की लगातार कोशिश की जा रही है। बिहार में चल रही चुनाव पूर्व गतिविधियों को देखें तो कई वितंडा उभरकर सामने आएगा। जदयू के कुछ बागी नेताओं ने नौ मई को गांधी मैदान में कथित किसान महापंचायत लगाई। महापंचायत की नायाब अवधारणा लेकर आए जदयू के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष और मूंगेर से सांसद ललन सिंह, जदयू के पूर्व बाहुबली सांसद प्रभुनाथ सिंह, बांका से निर्दलीय सांसद दिग्विजय सिंह और राजद नेता अखिलेश सिंह। यह महापंचायत लगी बंटाईदारी बिल के विरोध की जमीन पर। इन नेताओं ने बिहार के विभिन्न हिस्सों में जाकर लोगों से कहा कि नीतीश सरकार बंटाईदारी बिल लागू करने वाली है। उन्होंने यह भी कहा कि यदि यह कानून लागू हो गया तो किसानों को जमीन से बेदखल कर दिया जाएगा। इन नेताओं ने दावा किया कि नौ मई को गांधी मैदान में लाखों किसानो की भीड़ जमा होगी। लाखों की भीड़ जमा होने की बात तो खोखली साबित हुई, हां यह जरुर हुआ की भीड़ से ज्यादा गाड़ियां आईं। पूरा पटना मंहगी गाड़ियों से पाट दिया गया। गाड़ियों की भीड़ से वाकई में पटना पूरा दिन त्रस्त दिखा। अब सवाल यह उठता है कि इन महंगी गाड़ियों से आखिर कौन किसान आए थे? अचानक इन नेताओं ने किसान नेता का दामन कैसे ओढ़ लिया? क्या कोई किसान महापंचायत, बंटाईदारी बिल के विरोध की बात कर सकती है? तो फिर इसे क्यों न सामंत महापंचायत कहें? ये कुछ ऐसे सवाल हैं जिनसे बिना जूझे इस महापंचायत के चरित्र को नहीं समझ सकते हैं।
आज तक हमारे समाज में पेशेगत पहचान नहीं बन पाई है। किसान की पहचान किसान से नहीं नहीं होती है यहां तक कि अभी तक छात्र की पहचान छात्र से नहीं होती है। पेशेगत पहचानों पर जातिगत और धार्मिक पहचान हावी रहती है। हम पूरी दुनिया में भी देख सकते हैं कि लोगों की पहचान धर्मों, सभ्यताओं या संस्कृतियों के समूह के रूप में की जा रही है। उनकी अन्य पहचानों जैसे वर्ग, लिंग, व्यवसाय, भाषा, विज्ञान, नैतिकता तथा राजनीति की बिल्कुल उपेक्षा कर दी जाती है। अब सवाल यह उठता है कि बिहार में जिस किसान महापंचायत की बात की जा रही है क्या इसमें शामिल लोग वाकई में किसान थे या किसी खास जाति या वर्ग के थे। किसान महापंचायत के नेताओं ने इन कथित किसानों को कृषि संकट से लड़ने के लिए बुलाया था या उनकी जमींदारी को बचाने के लिए? नेशनल सैंपल सर्वे 2003 के अनुसार बिहार में 96..5 प्रतिशत लघु और सीमांत किसान हैं जबकि इनके पास कुल भूमि का महज 66 फीसदी पर ही स्वामित्व है। दूसरी तरफ मात्र 3.5 प्रतिशत लोगों के पास बिहार की कुल खेतीहर भूमि का 33 फीसदी है। इनमें से भी 0.1 फीसदी वैसे लोग भी हैं जिनके पास 4.63 प्रतिशत भूमि है। मतलब 0.1 फीसदी लोगों के पास आठ लाख हेक्टेयर यानी 19.76 लाख एकड़ भूमि पर स्वामित्व है। जाहिर है नौ मई को गांधी मैदान में लगी किसान महापंचयत 3.5 प्रतिशत लोगों की जमींदारी बचाने के लिए थी क्योंकि किसान महापंचायत बंटाईदारी बिल के विरोध में लगी थी।
भूमि सुधार कानून बिहार में सबसे पहले बना था। भू-हदबंदी (लैण्ड-सीलिंग) से अधिक जमीन रखने वाले भूपतियों से अतिरिक्त जमीन लेकर भूमिहीनों के बीच बाँटने वाला जो कानून यहाँ 1961 में बना था, जिसे चार दशक बाद भी किसी को लागू करवाने की हिम्मत नहीं हुई। आशचर्य है कि राज्य की ‘तमाम गैरमजरुआ खास जमीनों’ का पता लगाकर उन्हें गरीबों के बीच बाँटने का जो आदेश राज्य सरकार ने सन् 1954 में दिया था, आज 51 साल बाद भी उस पर अमल न हो सका। भू-हदबंदी से प्राप्त 80 हजार एकड़ जमीन गरीबों में नहीं
बँट सकी क्योंकि इससे जुड़े मामले पिछले 16 सालों से विभिन्न अदालतों में लंबित है।
2006 में नीतीश सरकार ने डी. बंद्योपाध्याय के नेतृत्व में भूमि सुधार आयोग का गठन किया गया। 2008 में आयोग की सिफारिशें आईं लेकिन आयोग की अनुशंसाओं को लागू करवाने की मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को हिम्मत नहीं हुई। अब माजरा यह है कि खुद मुख्यमंत्री ही कह रहे हैं कि कोई बंटाईदारी कानून नहीं लागू होने वाला है। कहा तो यह जा रहा है कि ललन सिंह ने जदयू से बगावत कर किसान महापंचायत का आयोजन किया। लेकिन एक सवाल यह भी उठता है कि अब तक नीतीश कुमार ने ललन सिंह को पार्टी से निकाला क्यों नहीं? नीतीश कुमार का वोट बैंक पिछड़ी जातियां हैं। लेकिन सरकार में अगड़ी जातियों का गहरा पैठ होने के कारण पिछड़ी जातियों में क्षोभ का वातावरण कायम होने लगा था। अक्तूबर-नवंबर में चुनाव होने वाला है। तो क्या यह सरकार की चुनावी स्क्रिप्ट है? इसके अलावा और कुछ है भी नहीं।
नीतीश कुमार के शासन काल में भूमि सुधार आयोग के अलावा अमीर दास आयोग भी चर्चा में रही । अमीर दास राबड़ी देवी के शासन काल में रणवीर सेना के सियासी संपर्कों की तहकीकात करने के लिए गठित किया गया था। तहकीकात के शुरुआती रुझान में ही भाजपा के बड़े नेताओं के नाम आने की वजह से मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने आयोग को भंग कर दिया। हम इन दो वाकयों से ही सरकार की नियत को समझ सकते हैं।
संयोग से किसान महापंचायत के ठीक दूसरे दिन पटना में 10 मई को भाकपा माले के नेतृत्व में राष्ट्रीय किसान सम्मेलन हुआ। सम्मेलन में केवल बिहार ही नहीं देश के दूसरे राज्यों से भी किसान आए। यह सम्मेलन बंटाईदारी बिल के समर्थन में था। 10 मई की सुबह से ही किसान स्टेशन और बस स्टैंड से अपने गमछे में बांधे साग-सत्तु के साथ सम्मेलन स्थल की ओर आना शुरु कर दिए थे। ज्यादातर किसान 50 से ऊपर के थे। सम्मेलन की शुरुआत में ही जब इन बुजुर्गों किसानों ने, किसान आंदोलन को लाल सलाम, चारु मजूमदार को लाल सलाम नारे को बुलंद किया तो मानो प्रतिरोध की बची आग जवां हो रह थी। ओडीशा के कलिंगनगर से आए एक किसान रामदीन से जब मैंने पूछा कि अब लाल सलाम का क्या मतलब रह जाता है। उन्होंने बड़ी बेबाकी से कहा “लाल सलाम एक आग है जो गाहे-बगाहे धधकती रहती है। यह आग व्यवस्था में आते ही काफूर हो जाती है। हालांकि इससे मुझे निराशा नहीं होती है। हां क्षोभ जरूर होता है। लेकिन याद रखना क्रांति के लिए क्षोभ ऊर्जा होती है। हम भले ही क्रांति के सपने देखते मर-खप जाएं लेकिन आने वाले समय में हमारी पीढ़ियों के लिए क्रांति की संभावनाएं और प्रबल ही होंगी।” बंगाल के सिलीगुड़ी से आए रजो दा कहते हैं “कोई किसान बंटाईदारी बिल का विरोध कैसे कर सकता है? साफ है जो विरोध कर रहे हैं वे किसान कम सामंत और जमींदार ज्यादा हैं। बंगाल में भी ऑपरेशन वर्गा का विरोध किया गया था, जाहिर है विरोध करने वाले किसान नहीं जमींदार थे। व्यंग्यात्मक लहजे में कहते हैं अब तो शरद पवार भी खुद को किसान और किसान नेता कहते हैं तो क्या हमे उन्हें भी किसान मान लेना चाहिए?” तो रजो दा के सवाल से नीतीश सरकार क्यों नहीं टकराना चाहती है?
Tuesday, July 27, 2010
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