1999 में बनी गुलजार की फिल्म हू-तू-तू की पन्ना(तब्बु) अपनी मां की राजनीतिक ढांचों को खारिज करती है। पन्ना विद्रोही तेवर अख्तियार करती है और अंत तक अपनी प्रतिबद्धता कायम रखती है। हू-तू-तू की नारी चरित्र पन्ना में जिस राजनीतिक विचारधारा की खुशबू है वह वर्तमान राजनीति की विकल्प की ओर इशारा करती है। वहीं दूसरी ओर 21वीं सदी के पहले दशक के अंतिम साल में बनी प्रकाश झा की फिल्म ‘राजनीति’ की भारती(निखिला त्रिखा) का विद्रोह बुलबुले की तरह खत्म हो जाता है। भारती अपने पिता की राजनीति से इत्तेफाक नहीं रखती और विद्रोह करती है। निर्देशक प्रकाश झा इस विद्रोह को चुटकी में ही निबटा देते हैं। और भारती अपने पति चंद्र प्रताप की राजनीति में वापस लौट आती। वहीं लौटती है जहां से आजिज आकर उसने विद्रोह किया था। कॉमरेड भास्कर सान्याल(नसीरुद्दीन शाह) को प्रकाश झा न जाने किस प्रायश्चित में और क्यों तपस्या के लिए डिस्पैच कर देते हैं। हम कह सकते हैं कि प्रकाश झा और इनकी ‘राजनीति’ वामपंथी राजनीति को इसी रूप में देखती है। हू-तू-तू की पन्ना का विद्रोह बम पटकने तक जाता है जबकि भारती के विद्रोह को प्रकाश झा भास्कर सान्याल के साथ दैहिक संबंध तक ही ले जाना मुनासिब समझते हैं। अपनी ‘राजनीति’ में प्रकाश झा राजनीति की सबसे महत्वपूर्ण और तार्किक धारा को फन करते निकल जाते हैं। तो सवाल यह उठता है कि निर्देशक किस राजनीति पर विमर्श करना चाहता है?
हिन्दी सिनेमा में गंभीर राजनीतिक सिनेमा का प्रचलन ऐसे भी बहुत कम रहा है। सत्तर के दशक के समानांतर सिनेमा में वामपंथी विचारधारा खूब मुखरित हुई। श्याम बेनेगल और गोविंद निहलानी जैसे फिल्मकार अपनी मजबूत उपस्थिति दर्ज करवाए। अंकुर, निशांत, आक्रोश और द्रोहकाल जैसी महत्वपूर्ण फिल्में आईं। इन फिल्मों के माध्यम से आम आदमी और मध्य वर्ग के सरोकारों और सवालों को मजबूती के साथ उठाने की कोशिश की गई। अब श्याम बेनेगल कहते हैं कि समय के साथ मध्य वर्ग के सरोकार बदल गए और इस तरह की फिल्में बनना कम हो गई। हम यह स्वीकार कर सकते हैं कि मध्य वर्ग के सरोकार बदल गए लेकिन आम आदमी के? आम आदमी तो अभी भी एक लोकतांत्रिक देश में भी बुनियादी सुविधाओं के लिए तरस रहा है। खैर, इसे स्वीकार करने में किस को दिक्कत नहीं होगी कि अब हमारा सिनेमा आम आदमी के लिए नहीं है। भारतीय सिनेमा पर वामपंथी विचारधारा स्थापित न होने का कारण भारतीय राजनीति में भी ढूंढा जा सकता है। फिल्म विश्लेषक पार्थ चटर्जी का कहना है कि भारत के वामपंथी आंदोलन के संस्कृति कर्मी और नेता कुछ अपवादों को छोड़कर सर्वहारा वर्ग के न होकर जमींदार मध्यम वर्ग के थे। फिल्मकार गिरिश कर्नाड तो यहां तक कहते हैं “सत्तर के दशक का समानांतर सिनेमा, जिसमें वामपंथी विचारधारा अधिक मुखरित हुई, मसाला फिल्म के दिवाने शहरी सर्वहारा वर्ग के खिलाफ मध्यम वर्ग के सांस्कृतिक आंदोलन का ही परिणाम था। श्याम बेनेगल हों या बिमल राय, उनका वामपंथ मध्यमवर्गीय वामपंथ था।” प्रकाश झा भी अब दामुल वाले प्रकाश झा नहीं हैं। ‘मृत्युदंड’, ‘गंगाजल’, ‘अपहरण’ से होते हुए ‘राजनीति’ तक पहुंच गए हैं। ‘राजनीति’ राजनीतिक अपराधों और पूंजीवादी व उपभोक्तवादी संस्कृति को ग्लैमर बनाकर परोसती है। राष्ट्रवादी पार्टी के चंद्र प्रताप के बेटे समर प्रताप (रणवीर कपूर) विदेश से पढ़ाई करके आते हैं। और अपने हुनर को विरासत में मिली राजनीति के प्रबंधन में लगाना शुरु कर देता है। फिल्म वर्तमान भारतीय राजनेताओं की प्रवृत्तियों को परदे पर लाती तो है लेकिन बड़े सपाट तरीके से। समर प्रताप का बड़ा भाई पृथ्वीराज प्रताप(अर्जुन रामपाल) जो कि राष्ट्रवादी पार्टी का उत्तराधिकारी भी है को एक लड़की चुनावी टिकट के लिए अपना जिस्म सौंप देती है। पृथ्वीराज प्रताप जिस्म का सेमी आस्वादन करते हुए कहता है “ राजनीति को लोगों ने पब्लिक ट्रांसपपोर्ट समझ रखा है कि जब मन किया हाथ दिखाकर चढ़ गए।” जिसने खुद राजनीति को खानदानी ट्रांसपोर्ट बनाकर रखा है उसके मुंह से प्रकाश झा ऐसे आदर्शवादी संवादो की बोमेटिंग क्यों करवाते हैं? क्या फिल्मों में संवाद चरित्रों के तेवर और कलेवर से निरपेक्ष होता है? राष्ट्रवादी पार्टी जब आजादनगर से जीवन कुमार को उम्मीदवार घोषित करती है तो सूरज (अजय देवगन) कहता है जीवन हमारी जाति का भले है हमारे बीच का नहीं है। हमे आयातित उम्मीदवार नहीं चाहिए। 2004 के लोकसभा चुनाव में बेतीया से प्रकाश झा लोजपा के टिकट से चुनावी मैदान में थे। जिस सवाल को झा सूरज के माध्यम से खड़ा करवा रहे हैं क्या उन्होंने इस सवाल को कभी महसूस किया था? सच में कहा जाए तो प्रकाश झा की ‘राजनीति’ में राजनीति नहीं है। दो भाईयों के व्यक्तिगत राजनीतिक महत्वाकांक्षा का संघर्ष है। जबर्दस्ती ठूंसी गई लव स्टोरी है जिसका फिल्म के कथानक से कोई संबंध नहीं है। घुसपैठ कराए गए गीत और संगीत हैं जो न संभलती विषयवस्तु को और अर्थहीन बनाते मालूम पड़ते है।
‘राजनीति’ पर कांग्रेसियों ने सवाल खड़े किए थे कि सोनिया गांधी के चरित्र को इस फिल्म में गलत तरीके से फिल्माया गया है। प्रकाश झा को सफाई देनी पड़ी। उन्होंने कहा कि ‘राजनीति’ महाभारत से प्रेरित है। यदि प्रकाश झा ने कुछ नहीं भी कहा होता तो हम फिल्म देखते हुए कई चरित्रों को आसानी से कोरिलेट कर सकते हैं। मसलन समर प्रताप का विदेश से पढ़ाई करने के बाद राजनीति में आना और भाषण के दौरान बार-बार जोर देकर यह कहना कि मेरे पिता चंद्र प्रताप ने आपकी सेवा में गोली तक खाई। राहुल गांधी भी कई बार कह चुके हैं कि मेरी दादी और पिता ने देश के लिए जान तक दे दी। रणवीर कपूर में दर्शक राहुल गांधी की छवि आसानी से ढुंढ सकता है। फिल्म में कैटरीना कैफ विधवा होने के बाद जब राजनीतिक विरासत को संभालती है तो यहां हम सोनिया गांधी की छवि को आसानी से महसूस कर सकते हैं। एक रैली के दौरान कैटरीना आम जनता से कहती है “अभी मेरी मेहंदी के रंग भी फीके नहीं पड़े हैं। मैं आपलोगों से पूछती हूं अभी और क्या-क्या देखने होंगे।” कई सभाओं में सोनिया गांधी भी ऐसे भावनात्मक भाषणों का इस्तेमाल कर चुकि हैं। कैटरीना कैफ की चलने, बोलने और साड़ी पहनने की अदा सोनिया गांधी से पूरी तरह प्रभावित है। राजनीति के इन स्टीरियोटाइप जुमलों और तौर-तरीकों को प्रकाश झा जितने सपाट तरीके से दिखाते हैं वह अंततः उसे ग्लैमराइज करते ही मालूम पड़ता है।
हिन्दी सिनेमा मामा के स्टीरियोटाइप चरित्र से बाहर नहीं निकल पाया है। फिल्मों में मामा घर तोड़ने और तिकड़मबाजी करने में लिप्त ही दिखाए जाते हैं। लोकप्रिय फिल्मों में तो मामा को अपनी तिकड़मो से ड्रामा क्रियेट करने के लिए सबसे उपयुक्त चरित्र के रुप में स्थापित कर दिया गया है। प्रकाश झा भी इस मिथ से ‘राजनीति’ में बाहर नहीं निकल पाते हैं। बृजगोपाल (नाना पाटेकर) यहां पृथ्वीराज प्रताप के मामा की भूमिका में हैं। वही मामा जिसे हिन्दी सिनेमा ने पारिभाषित करके रखा है। कई बार बृजगोपाल सकुनी की भूमिका का आभास दिलवाते हैं लेकिन यह भ्रम साबित होता है क्योंकि यहां कोई पांडव नहीं है। सूरज भी फिल्म के अंत में कर्ण की भूमिका में मालूम पड़ता है। सूरज पिछड़ी जातियों का नेता भी है। अब सवाल यह है कि प्रकाश झा किसी कर्ण में ही पिछड़ी जातियों के नेता होने का माद्दा क्यों देखते हैं? सच तो यह है कि सूरज न कर्ण की भूमिका जी पता है और न ही पिछड़ी जातियों के नेता की भूमिका को। थियेटर से जुड़े कलाकार दर्शन जरीवाला अपना बेहतर दे सकते थे लेकिन प्रकाश झा ने इन्हें भी सस्ते में निपटा दिया। हू-तू-तू का बाऊ (नाना पाटेकर) जिन ज्वलंत राजनीतिक सवालों को उठाता है उन सवालों को प्रकाश झा अपने किसी भी चरित्र से नहीं उठवा पाते हैं। निर्देशक इस फिल्म में किसी भी चरित्र को संभालने में असफल रहता है।
‘राजनीति’ न तो राजनीतिक सिनेमा है, न ही नसीरुद्दीन शाह का सिनेमा है, न नाना पाटेकर का न दर्शन जरीवाला का और सच कहें तो न ही प्रकाश झा का। यह सिनेमा है बाजार का जिसका उद्देश्य केवल और केवल मुनाफा कमाना है।
Tuesday, July 27, 2010
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