Friday, March 12, 2010

धंधे पर सवाल खड़ा करता धंधा



भारतीय सिनेमा भी बाजार में खड़ा है और टेलीविजन चैनल भी। दोनों बाजार के हाथों में खेल रहे हैं। बाजार मुनाफा के लिए नए विचारों और मूल्यों को स्थापित तो करता ही है साथ ही साथ उन स्थापित मूल्यों का व्यवसायिक उपयोग भी करता है जिनके सहारे लोग सवाल खड़े करते हैं। जबकि सच्चाई यह है कि एक कला माध्यम के रूप में सिनेमा अपने अनुशासन और भूमिका को कब का पीछे छोड़ चुका है।
एक संचार माध्यम के रूप में सिनेमा को सबसे सशक्त और लोकप्रिय माध्यम माना जाता है। ऐसा इसलिए कि सिनेमा समय और समाज की धड़कनों व धाराओं को बड़ी गहराई से पहचानता आया है। यदि हिन्दी सिनेमा की बात करें तो मृणाल सेन की ‘भुवन शोम’ से लेकर विमल राय, व्ही शांताराम, राज कपूर और आगे चलकर श्याम बेनेगल तथा गोविंद निहलानी की फिल्मों में भारत का समाज और उनके संघर्ष बड़ी मजबूति के साथ उभरकर सामने आए हैं। इनका असर उस समय के कई फिल्मकारों पर भी पड़ा। आज यह चीज हिन्दी सिनेमा से गायब है। यही हाल खबरिया चैनलों का है। जो उद्देश्य खबरिया चैनलों का वही सिनेमा का, जैसा असर सिनेमा का कुछ वैसा ही खबरिया चैनलों का। सिनेमा किसी भी तिकड़म से दर्शकों को मल्टीप्लेक्स तक खींचने को बेकरार है तो खबरिया चैनल भी चाहे जैसे भी हो दर्शकों को बाँधने के लिए बेकरार है। तो सवाल यह उठता है कि रामगोपाल वर्मा की ‘रण’ आखिर किस पर और किस हक से सवाल खड़ा कर रही है। जाहिर है एक माध्यम दूसरे माध्यम को अपने व्यवसायिक हित के लिए विषय बना रहा है। दूसरी सच्चाई यह है कि जिस माध्यम पर सवाल खड़ा किया जा रहा है उसका प्रचार-प्रसार भी वही माध्यम कर रहा है। मतलब एक किस्म का गठजोड़ है। हम आपके लिए हैं और आप मेरे लिए। तो फिर सबसे बड़ा सवाल यह है कि उस जनता के लिए कौन है जिसके दुख-दर्द और संघर्ष कभी इसी रुपहले पर्दे पर मजबूति के साथ दस्तक देते थे। इस सवाल का उत्तर अब तक सवाल ही है।
आज हर खबरिया चैनल मुंबइया फिल्मों के सितारों को अपने स्क्रीन पर खींचने को बेताब दिखता है। इनके जन्मदिन पर घंटों के प्रोग्राम चलाए जाते हैं। इनके रहन-सहन और गतिविधियों को दिखाना खबरिया चैनलों की टीआरपी के लिए कोरामीन साबित होता है। इससे स्वार्थ इन सितारों का भी जुड़ा होता है। अपनी लोकप्रियता को बढ़ाने का सशक्त मंच मिलता है। यहाँ लोकप्रियता से दोनों को मतलब है क्योंकि तभी आपको विज्ञापन मिलेंगे और दूसरी ओर तभी आप विज्ञापनकर्त्ता बनेंगे, तभी आपकी खराब फिल्मों को भी बढ़िया कहा जाएगा। वह भी कथित फिल्म समीक्षकों द्वारा। अब ऐसे संगीन गठजोड़ के बावजूद रामगोपाल वर्मा अपनी फिल्म के माध्यम से खबरिया चैनलों को कटघरे में खड़ा करते हैं तो हास्यास्पद ही मालूम पड़ता है।
‘रण’ एक विशुद्ध मशाला और लोकप्रिय फिल्म है। वही स्टीरियोटइप कैरेक्टर, थीम, अंबीयांस (वातावरण) तथा ट्रीटमेंट है। खबरिया चैनल और राजनीति केंद्र में है लेकिन दोनों का चित्रण वैसा ही है जैसा कि मुंबइया फिल्मों में किया जाता रहा है। रामगोपाल वर्मा की ‘कंपनी’, ‘सरकार’, ‘सरकार राज’ जैसी राजनीतिक फिल्मों से ‘रण’ की तुलना की जाए तो यह इस मामले में अलग हो सकती है कि इसमें हिंसा नहीं है। नहीं तो वही मेलोड्रामेटिक शैली और अति संवाद वाली स्थिति है। रण में अमिताभ बच्चन जिस जय हर्षवर्द्धन मलिक के रोल में हैं उसे डाइजेस्ट करना मुश्किल है। ‘इंडिया 24×7’ चैनल पर एंकरिंग का अभिनय करते हुए अमिताभ अपनी आभामंडल से बाहर नहीं निकल पाते हैं। एंकरिंग के दौरान जिन खबरों को अमिताभ द्वारा पढ़ा या बोला जाता है वह खबर नहीं राष्ट्र के नाम संदेश लगता है। यह बात अभी भी उतना ही सत्य है कि खबर, खबर जैसी ही होनी चाहिए न कि उपदेश। कोई खबर तथ्य, प्रमाण और अन्वेषण से धारदार बनती है न कि अमिताभ बच्चन जैसे बड़े आभामंडल से। जय हर्षवर्द्धन मलिक का अपने बेटे पर विश्वास करना और फिर उसके खिलाफ निर्णय लेना पूरी तरह से फिल्मी लगता है। हालाँकि ऐसा नहीं है कि फिल्म में फिल्मीपन कुछ होना ही नहीं चाहिए। लेकिन जब स्वाभाविक यथार्थ पर पर्दा डालते हैं या उसे अतिरंजित करने की कोशिश करते हैं तो इसे पचाना या जस्टीफाई करना मुश्किल हो जाता है।
‘रण’ धंधे के रूप में खबरिया चैनलों की टीआरपी की जंग दिखाती तो है लेकिन इस माध्यम से अपना धंधा चमकाने के लिए सभी फार्मूलों का इस्तेमाल करती है। इस फिल्म के प्रमोशन के दौरान अमिताभ बच्चन ने बाजार के सभी नियमों का पालन किया। यहाँ तक कि वे निजी खबरिया चैनलों में एंकरिंग करते दिखे। तो क्या हमें यह नहीं मान लेना चाहिए कि एक धंधेबाज दूसरे धंधेबाज को नंगा कर रहा है ? नहीं, इससे ज्यादा बेहतर होगा कि हम दोनों के गठजोड़ को समझे। यदि इस गठजोड़ को समझ लेंगे तो इनके उद्देश्यों को समझने में ज्यादा कठिनाई नहीं होगी। यह गठजोड़ केवल दो माध्यमों और उनके नियंताओं के बीच की नहीं है बल्कि इसमें राजनीतिक सत्ता भी अनिवार्य रूप से शामिल है। 26/11 को मुंबई के ताज और ओबेराय होटलों पर हुए आतंकी हमले को देखने महाराष्ट्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री विलास राव देशमुख के साथ रामगोपाल वर्मा और मुख्यमंत्री के बेटा रितेश देशमुख यों ही नहीं गए थे। मतलब यह कि मेरी असफलता या नक्कारेपन का व्यवसायिक फायदे उठा सकते हो तो उठाओ लेकिन उसका एक हिस्सा मुझे भी मिलना चाहिए। इन गठजोड़ों की राजनीति और राजनीति के गठजोड़ों को समझना आज के संदर्भ में सबसे ज्यादा आवश्यक है।
हिन्दी सिनेमा में मीडिया का चित्रण अथवा केंद्रीय विषय कई फिल्मों में बनाया गया है। इस विषय पर सबसे चर्चित फिल्म रही मधुर भंडारकर की ‘पेज थ्री’। करीब पाँच साल पहले बनी ‘पेज थ्री’ ने तीन राष्ट्रीय पुरस्कार भी झटके थे। यदि हम ‘रण’ और ‘पेज थ्री’ की तुलना करें तो ट्रीटमेंट के लिहाज से ‘पेज थ्री’ बहुत आगे है। बिना किसी स्टार के (अतुल कुलकर्णी, कोंकणा सेन शर्मा) ‘पेज थ्री’ यह दिखलाने में सफल रहती है कि आज की पत्रकारिता किन लोगों के लिए है।
दरअसल आज मीडिया और सिनेमा उस छोटे तबके के लिए बनता जा रहा है जिसकी तादाद महज 10 से 15 फीसदी है। जो समाज में हाशिए पर हैं उन्हें मीडिया और सिनेमा भी हाशिए पर रखे हुए है। यह दोनों सशक्त माध्यम यह समझते हुए भी नहीं समझ पा रहे हैं कि अभिव्यक्ति केवल कैमरे से नहीं होती बल्कि वह ज्यादा शक्ति के साथ बहुसंख्यक समाज के प्रति सरोकारों से उभरती है। ‘पेज थ्री’ बिना कोई उपदेशात्मक टिप्पणी किए असर छोड़ने में कामयाब रही थी। निशिकांत कामत की ‘मुंबई मेरी जान’ खबरिया चैनल की हास्यास्पद स्थिति की टोह लेती है वहीं ‘लक्ष्य’ एंकर के ग्लैमर को पर्दे पर उतारती है।
आज जितनी बहस मीडिया की कार्यप्रणाली और भूमिका पर हो रही है उतनी ही फिल्मों पर भी होनी चाहिए। यह इसलिए भी जरूरी है क्योंकि जनमानस पर मीडिया से कम असर सिनेमा का नहीं है। दोनों का तर्क भी एक जैसा है कि दर्शक जो पसंद करेगा वही दिखाएंगे। इस तर्क को ही आधार बनाकर यदि कोई फिल्मकार फिल्म बनाता है तो जाहिर है वह यथास्थिति से टकराने का माद्दा नहीं रखता है। वह सिनेमा को कला के तौर पर स्वीकार नहीं करता है। अब जहाँ तक दर्शकों की पसंद की बात है तो इस सच्चाई पर पर्दा डालकर इनकी पसंद को कोस नहीं सकते हैं। हमारे यहाँ कलाबोध को शिक्षा के माध्यम से, प्रचार के माध्यम से, प्रसार के माध्यम से दर्शकों को जागृत नहीं किया। यदि ऐसी स्थिति में दर्शक करण जौहर, डेविड धवन, सुभाष घई और अनिल शर्मा की फिल्मों को पसंद कर रहे हैं तो इसमें दर्शक पर तोहमत नहीं लगाया जा सकता कि वे कलावादी फिल्मों को पसंद नहीं करते हैं। वर्तमान में जिन फिल्मों को फिल्मकार जस्टीफाई कर रहे हैं क्या उनसे यह नहीं पूछा जाना चाहिए कि इनकी फिल्मों में भारत कहाँ है? सच तो यह है कि इनके यहाँ न भारत का समाज है, न भारत की समस्याऐँ हैं और न ही भारत का संघर्ष है।
खबरिया चैनल जिस टीआरपी को आधार बनाकर अपनी खबरों और दर्शकों की पसंद को जस्टीफाई कर रहे हैं वह तो और खतरनाक है। करीब एक अरब 13 करोड़ आबादी वाले इस देश में 12 करोड़ घरों में टीवी है। टीआरपी बताने वाली एक एजेंसी ‘टैम इंडिया रिसर्च’ ने 148 शहरों के सात हजार घरों में अपने उपकरण लगाए हैं। दूसरी एजेंसी ‘ए मैप’ ने 87 शहरों के छह हजार घरों में मशीन लगाए हैं। यानी शहरी भारत के एक लाख से ज्यादा की आबादी वाले कुल 235 शहरों के 13 हजार घरों में लगे उपकरण बताते हैं कि कितने लोग क्या देख रहे हैं। जिन गाँवों में देश की 70 प्रतिशत आबादी अभी भी है वहाँ एक भी उपकरण नहीं है। यानी टीआरपी के दायरे से देश के 70 प्रतिशत लोगों को बाहर रखा गया है। इतनी विविधता वाले इस देश में नमूना का यह अति छोटा आकार कितना सत्य बताता होगा ?
असली सच तो यही है कि वर्तमान समय में सिनेमा और मीडिया दोनों धंधे हैं और दोनों के बीच एक पारस्परिक व्यवसायिक समझौता है।