Sunday, November 8, 2009

संकट में खेती-किसानी


इसी समाज में कभी कहा जाता था- उत्तम खेती मध्यम बान, नीच चाकरी भीख निदान। यह पंक्ति भारतीय संस्कृति में खेती की सर्वोच्चता को रेखांकित करती है। यदि हम इतिहास में भी जाएँ तो हमारी सभ्यता और संस्कृति के विकास में कृषि की सबसे बड़ी भूमिका रही है। हमारे रीति-रिवाज और पर्व-त्योहारों का निर्धारण बहुत हद तक कृषि से ही हुआ है। मकर-संक्रांति, महाशिवरात्रि, बसंत-पंचमी और लोहड़ी जैसे त्योहारों का तो कृषि से सीधा संबंध है। ग्रामीण इलाकों में तो आज भी धान की रोपाई और कटाई के समय महिला किसानों द्वारा गाए जाने वाला लोकगीत रोमांचित करता है।
कृषि के साथ हमारे समाज में लोगों का जो अंतर्संबंध था वह पर्यावरण और प्रकृति को पोषित रखता था। हमारे पूर्वज खेती अपनी जरूरतों की पूर्ति के लिए करते थे। इन जरूरतों में उपभोक्तावादी प्रवृति नहीं थी। खेती में किसानों को किसी कीटनाशक या रासायनिक खाद की जरूरत नहीं पड़ती थी। विकास के लिए तब नदी और जंगल बाधा नहीं थे। शुद्ध हवा, शुद्ध पानी और हरियाली से पूरा पर्यावरण समृद्ध और संपन्न था। तब खेत की मिट्टी और नदी के जल से दोहन की प्रवृति नहीं थी। खेती और किसानी की प्रक्रिया में कुदरत के लिए पर्याप्त जगह थी।
आजादी के बाद देश के निर्माताओं ने महसूस किया कि कृषि के साथ उद्योगों का भी विकास किया जाए। वाकई में इसकी जरूरत भी थी और भरपूर संभावनाएँ भी। हमारे देश के कच्चे माल से ब्रिटेन के उद्योग-धंधे खूब फले-फूले थे। इसी कारण किसानों और प्राकृतिक संसाधनों का शोषण और दोहन जमकर हुआ। आजादी मिलने के बाद अपनी जरूरतों के हिसाब से और देश की प्रगति के लिए कल-कारखानों का विकास जरूरी हो गया था। इसे पंडित नेहरु आधुनिक भारत का मंदिर कहते थे। जब तक इस नवोदित देश की सत्ता नेहरु के हाथ में रही चतुर्मुखी विकास का रोमैंटिसिज्म चलता रहा। इस दौर में कृषि और उद्योग आमने-सामने नहीं खड़े थे। किसी एक की कीमत पर एक का विकास नहीं हो रहा था। बल्कि कृषि से कल-कारखानों को मदद मिल रही थी और कल-कारखानों से कृषि को। एक ऐसी समावेशी व्यवस्था बनाने की कोशिश की जा रही थी कि समाज में जो हाशिए पर है उसे भी मुख्य धारा में लाया जाए। आजादी के साथ ही भारत का बँटवारा हुआ। बँटवारे की आग में हजारों लोग झुलस गए। देश में गृह-युद्ध जैसी स्थिति बन गई थी। यह तब हो रह था जब भारत राजनीतिक रूप से पूरी तरह थका हुआ था। नेहरु का कार्यकाल राजनीतिक रूप से भयंकर उथल-पुथल का रहा। 1962 में चीन ने भारत पर एकतरफा हमला कर एक लाख वर्गकिलोमीटर जमीन हथिया लिया। 1964 में नेहरु के निधन के बाद लालबहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री बने। चीन के युद्ध से भारत उबर ही रहा था कि पाकिस्तान के साथ युद्ध में उलझना पड़ा। इन दो युद्धों के कारण भारत की अर्थव्यवस्था संकट के दौर से गुजर रही थी। कृषि की हालत पतली हो गई थी। आबादी बढ़ने के कारण खाद्यान का दबाव भी लगातार बढ़ रहा था। पैदावार में वृद्धि की सख्त जरूरत महसूस होने लगी। स्थिति यह थी कि लालबहादुर शास्त्री ने देसवासियों से आह्वान किया कि हम एक शाम कम खाएंगे।
साठ के दशक में इंदिरा गाँधी के कार्यकाल में हरित-क्रांति की शुरुआत हुई। हरित क्रांति का आधार बना बेहहतर बीज(हाई-ब्रीड) रासायनिक उर्वरक, और नई तकनीक। इसी समय श्रीमती गाँधी ने बैंकों का राष्ट्रीयकरण भी किय़ा। फलतः किसानों को सस्ते दर पर कर्ज मुहैया होने लगा। हरित क्रांति की बदौलत पैदावार में जबर्दस्त बढ़ोत्तरी हुई। पैदावार बढ़ी, कृषि में विकास दर बढ़ी और इसका सीधा फायदा किसानों और ग्रामीणों को हुआ। देखते ही देखते भारत खाद्यानों का निर्यात करने लगा। इस दौरान अनाज का कुल उत्पादन 83 मिलियन टन से बढ़कर 200 मिलियन टन हो गया। धान और गेहूँ के उत्पादन में तो रिकार्ड वृद्धि हुई। पंजाब में हरित-क्रांति ने चमत्कारी प्रभाव दिखाए। खासतौर से 1969 में जब गेहूँ का उत्पादन 1965 की तुलना में करीब 50 फीसदी और बढ़ा। गन्ने और कपास के उत्पादन में भी दो से तीन गुने की बढ़ोत्तरी हुई। गेहूँ और धान का तब 70 मिलियन टन उत्पादन होता था जो बढ़कर 187 मिलियन टन हो गया।
लेकिन इस हरित-क्रांति की कहानी का दूसरा पक्ष यह है कि दलहन के उत्पादन में कोई बढ़ोत्तरी नहीं हुई। हमारे यहाँ गरीबों के लिए दाल, प्रोटीन का मुख्य स्रोत है। 1962 में दलहन का उत्पादन 12 मिलियन टन था जो 2004 में लगभग उसी स्थिति में था और 2006 में 13.2 मिलियन टन के आसपास रहा। दलहन का उत्पादन पहले 500 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर था जो 40 सालों के बाद 598 किलोग्राम तक ही हो पाया है। दलहन पर कभी आत्मनिर्भरता नहीं बनी और भारत को बराबर आयात पर निर्भर रहना पड़ा।
हरित-क्रांति के फायदे भारत को कमोबेश अस्सी के दशक तक मिलते रहे। फिर नब्बे के दशक में शुरु हुआ आर्थिक सुधारों का दौर। इसके चलते उद्योगों और सेवा क्षेत्रों में प्रगति तो हुई लेकिन कृषि क्षेत्र में एक ठहराव सा आ गया। कहीं न कहीं हरित-क्रांति की पूरी प्रक्रिया और सरकार की नीतियाँ कटघरे में खड़ी दिखी। ऐसा लगने लगा कि हरित-क्रांति के नीति-निर्धारकों ने केवल तात्कालिक फायदे को ही ध्यान में रखा था। इसके दीर्घकालिक परिणाम के बारे में सोचा ही नहीं गया था। इसलिए यह कई मायनों में अधूरा रह गया। कृषि विशेषज्ञों का मानना है कि ग्रीन पर इतना जोर हो गया कि ग्रीन के बजाए ग्रेन क्रांति में बदल गयी। वह इसलिए, क्योंकि सिर्फ ग्रेन के बाजार को समर्थन दिया गया।
पर्यवेक्षक बताते हैं कि उस वक्त कृषि नीति में रासायनिक उर्वरक जमीन के स्वभाविक पौष्टिक तत्वों से ज्यादा महत्वपूर्ण हो गए और उन्हें प्राथमिकता मिलने लगी। हर साल जमीन से चावल, गेहूँ लेते गए और उसमें रासायनिक उर्वरक डालते गए। जो उत्पादन क्षमता थी उसे बरकरार रखने के लिए हर साल उर्वरक की मात्रा दोगुनी करनी पड़ी स्थिति यह हो गई कि उर्वरक न डालो तो उत्पादन ही नहीं होगा। वर्ष 1965-66 में रासायनिक उर्वरकों का उपयोग लगभग आठ लाख टन था जो बढ़कर 2005-06 में 205 लाख टन तक पहुँच गया।
हरित- क्रांति को यथार्थ में बदलने के लिए जीन संशोधित बीज और रासायनिक उर्वरकों ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी। लेकिन इनका पर्यावरण पर कैसा असर पड़ेगा इस पर ध्यान नहीं दिया गया। आज ज्यादा से ज्यादा फसल लेने के चक्कर में जमीन बंजर बनती जा रही है और जल विषाक्त हो रहा है। रासायनिक उर्वरकों की मांग प्रतिसाल बढ़ती जा रही है। खेती मंहगी होने का एक प्रमुख कारण यह भी है।
हरित-क्रांति का सबसे ज्यादा फायदा पंजाब को मिला था। आज सबसे ज्यादा बदहाली भी यहीं है। जमीन की उत्पादकता खत्म होने के कगार पर है। छोटे किसान कर्ज में डूबे होने के कारण आत्महत्या कर रहें हैं। कई गाँवों में नीलामी के होर्डिंग लगा दिए गए हैं। क्या इसके लिए हरित-क्रांति की लालची प्रवृत्तियाँ जिम्मेदार नहीं है ? रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों का अविवेकशील प्रयोग हरित-क्रांति प्रवृत्ति ही है। आज ग्रामीण इलाकों में नाइट्रोजन(यूरिया) का अंधाधुंध प्रयोग किया जा रहा है। मिट्टी को क्या चाहिए या किस तत्व की जरूरत है इससे किसानों को कोई मतलब नहीं है। कमी पोटाश, फास्फोटिक, जिंक और कैल्सियम की है लेकिन छिड़काव यूरिया का हो रहा है।
हरित-क्रांति मॉडल पर सबसे बड़ा सवाल यह है कि जहाँ की खेती मॉनसून पर आश्रित है और मॉनसून भी हमेशा आँख-मिचौली खेलता आया है ऐसी स्थिति में क्या यह आदर्श मॉडल साबित हो सकती है ? बिना सिंचाई व्यवस्था के कोई हरित-क्रांति कितनी क्रांति कर पाएगी ? खेती के लिए सिंचाई तो बुनियादी शर्त है। लेकिन दुर्भाग्य से आज भी भारत के चालीस फीसदी हिस्से असिंचित हैं। सिंचाई सुविधाओं के अभाव में कई किसानों को मॉनसून पर ही निर्भर रहना पड़ता है।
2002 में कृषि विकास दर शून्य से भी कम (-6.9)होने का मुख्य कारण था सूखे की स्थिति। इसके अगले साल झमाझम बारिश हुई तो कृषि में विकास दर दस फीसदी तक पहुँच गयी। जिस देश की बहुसंख्यक आबादी कृषि पर निर्भर हो उसी कृषि में इतनी अनिश्चतता से कई पोल खुलते हैं। किसानों द्वारा महाराष्ट्र में खुदकुशी की लगातार हो रही घटनाओं को देखते हुए मुंबई उच्च न्यायालय के निर्देश पर टाटा सामाजिक अनुसंधान परिषद ने इनकी जाँच कर एक विस्तृत रिर्पोट पेश की। रिर्पोट के अनुसार सिंचाई पर सार्वजनिक निवेश तेजी से घटते जा रहा है। बीज, उर्वरकों, सिंचाई, और बिजली पर सब्सिडी में कटौती से उत्पादन लागत बढ़ती जा रही है। किंतु इसके अनुपात में न पैदावार बढ़ रही है और न ही उपज का उचित मूल्य मिल रहा है।
सरकार का उपेक्षा भाव खाद्य फसलों के प्रति ज्यादा है। जबकि इन फसलों के उत्पादन में ज्यादात्तर छोटे किसानों की भागीदारी होती है। देश की साठ फीसदी खेती वर्षा सिंचित इलाके में होती है, जिसकी दशा सुधारने के लिए वर्ष 2008 में महज 370 करोड़ रुपए रखे गए। इसके बरक्स 1100 करोड़ रुपए हॉर्टिकल्चर को दिए गए जिससे ज्यादातर संपन्न किसान जुड़े हैं। साफ है सरकार को धनी किसानों का फिक्र ज्यादा है। समग्र कृषि व्यवस्था में सुधार क्या इन सौतेली नीतियों से संभव है ? इससे तो यही साबित होता है कि सरकार की नीतियों में देश की गरीब जनता नहीं है। 1981-82 में कृषि में जितने रुपए का उत्पाद हुआ उसमें गैर खाद्यान फसलों के उत्पाद का हिस्सा 51.95 प्रतिशत था जो 2000 में बढ़कर 61 प्रतिशत हो गया। पर इस बढ़ोतरी का लाभ देश के चुनिंदा परिवारों को मिला।
कृषि पर जहाँ लोगों की निर्भरता बढ़ी है वहीं कृषि उत्पादन क्षेत्रों में लगातार कमी आ रही है। अनाज उत्पादन क्षेत्रों में तेजी से कमी आ रही है। सरकारी अनुमान के मुताबिक 2010 में अनाज उत्पादन के क्षेत्र 124 मिलियन हेक्टेयर से कम होकर 121 मिलियन हेक्टेयर रह जाएंगे। जबकि जरुरत को पूरा करने लिए उत्पादन दोगुना करना होगा।
नेशनल सैंपल सर्वे ने पाया है कि चालीस फीसदी किसानों ने खेती छोड़ने की इच्छा जताई है। जहाँ सताइस फीसदी इसे घाटे का सौदा बता रहें हैं, वहीं इसे आठ फीसदी जोखिम भरा मानते हैं। अब जिस देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ कृषि हो, किसान जहाँ बहुसंख्यक तबका हो, जीवन पर्यंत बिना रिटायर हुए पीढ़ी दर पीढ़ी काम करने वाले किसानों में व्याप्त इस असंतोष को किस रूप में देखा जाए। आज भारत के कोई किसान नहीं चाहता है कि उसकी आने वाली पीढ़ी किसान हो। हर किसान अपनी संतान को खेतीबारी से दूर रखकर अन्य पेशों के लिए शिक्षित करवाना चाह रहा है। इसके लिए वह अपनी जमीन तक बेचने को तैयार हैं। छोटे किसान तो धीरे-धीरे ऐसे ही खत्म हो रहें हैं। पंजाब में तो छोटे जोत वाले किसान घाटे और कर्ज के कारण बड़े जोतों में समाते जा रहें हैं। सरकार इसलिए मूकदर्शक बनी हुई है कि वह कांट्रैक्ट फार्म को बढ़वा देना चाहती है। वह दिन दूर नहीं जब खाद्यानों पर पूरी तरह से अंबानियों और मित्तलों का कब्जा हो जाएगा। सेज इसका पहला कदम है।
आज भयावह सच यही है कि जिसे अन्य कोई
काम नहीं मिलता वही किसान है। किसानों की इस स्थिति के लिए कौन जिम्मेदार है ? अन्नदाता के घर में अन्न के अन्न के लाले पड़े हुए हैं। दरअसल विकास के जिस पश्चिमी मॉडल को सरकार आगे बढ़ा रही है उसमें कृषि और किसान के लिए कोई जगह नहीं है। उद्योग और सेवा क्षेत्रों पर सरकार जिस कदर मेहरबान है वह आँकड़ों में तो देखने को मिल रहा है लेकिन आज भी देश की साठ फीसदी आबादी कृषि पर ही आश्रित है। जिस सेवा क्षेत्र को सकल घरेलू उत्पाद का सबसे बड़ा दाता बताया जा रहा है क्या उसमें कृषि और किसानों का योगदान नहीं है? यदि कृषि का जीडीपी में योगदान घट रहा है तो यह घबराने वाली बात नहीं थी लेकिन इसमें लगे लोगों के एक बड़े हिस्से को अन्य क्षेत्रों में शिफ्ट होना चाहीए था। लेकिन अब तक ऐस नहीं हुआ। आज खेती से गुजर-बसर करने वाले लोगों की प्रति व्यक्ति आय ग्राफ भयावह स्थिति में है। जहाँ कृषि विकास दर मात्र 1.7 है वहीं सेवा क्षेत्र 15 प्रतिशत और उद्योग क्षेत्र 6 प्रतिशत की दर से आगे बढ़ रहा है। सेवा क्षेत्र की वृद्धि में भी भयंकर विषमता है। सूचना प्रौद्योगिकी में वृद्धि 40 प्रतिशत है तो छोटे-मोटे कपड़े बेचने वाले और ठेले खोमचे लगाने वालों की आमदनी में कोई खास बढ़ोतरी नहीं हुई है। उद्योग में भी जो 6 प्रतिशत की वृद्धि हो रही है वह उद्योग के संगठित क्षेत्र में नहीं हो रही है। बढ़ोत्तरी खास कर विलासिता के सामान बनाने वालों उद्योग धंधों में है। असंगठित क्षेत्र के छोटे उद्योगों में वृद्धि बहुत कम है।
पूंजीवादी व्यवस्था की हिमायती हमारी सरकार विकास के जिस गाड़ी को आगे बढ़ाना चाह रही है वहाँ भी पिछड़ते नजर आ रही है। वर्ष 2002 में आयात दो लाख 45 हजार करोड़ रुपए का था और निर्यात दो लाख नौ हजार अठारह करोड़ रुपए का। यानी व्यापार घाटा 36182 करोड़ रुपए का हुआ। वर्ष 2007-08 के अक्टूबर माह तक व्यापार घाटा 180753 करोड़ रुपए तक पहुँच गया। यह है हमारे विकास की असली कहानी।
हमारी सरकार अमेरिका और यूरोप के तर्ज पर कृषि और किसान के साथ व्यवहार कर रही है। लेकिन उसे पता होना चाहिए कि अमेरिका में केवल दो प्रतिशत और यूरोप में भी महज सात प्रतिशत लोग ही कृषि पर आश्रित हैं। यहाँ किसानों के लागत और फायदे का संतुलन भारी सब्सिडी देकर कायम रखा जाता है। यूरोपीय संघ के देशों में किसानों को 50 अरब रुपए तक की सब्सिडी दी जाती है। सब्सिडी के कारण यूरोपीय किसानों की लागत बाकी देश के किसानों से कम होती है इसलिए वे अपना माल सस्ता बेच पाते हैं।
खाद्यान के मामले में देश की आत्मनिर्भरता संकट में है। खाद्य तेलों पर आयात निर्भरता पचास फीसदी पहुँच गई है। दालों की हालत तो और खराब है। आज देश, पिछले चालीस वर्षों के सबसे बड़े कृषि संकट से गुजर रहा है।
पहले ग्रामीण क्षेत्रों के लिए जितना निवेश होता था आज उससे तीस हजार करोड़ कम हो रहा है। इससे ग्रामीण क्षेत्रों में एक लाख करोड़ की कमी , आई है। 1951 में विदर्भ में एक एकड़ जनीन पर कपास की खेती के लिए डेढ़ हजार रुपए खर्च होते थे आज इसके लिए दस हजार रुपए चाहिए। एक ओर कृषि में सार्वजनिक निवेश लगातार घट रहा है वहीं दूसरी ओर कृषि में लागत बढ़ती जा रही है। परिणामस्वरुप प्रति व्यक्ति प्रतिदिन अनाज की उपलबधता काफी कम हो गई है। वर्ष 1951 में यह 510 ग्राम थी जो 2005 में घटकर 436 ग्राम रह गई है।
ऐसी विकट स्थिति में भी यदि सरकार किसानों की फसल से ज्यादा आँकड़ों की फसल पर ध्यान दे रही है तो यह शर्मनाक स्थिति है। द हिन्दू के ग्रामीण संपादक पी साईनाथ का कहना है कि“जिस आर्थिक उन्नति की बात की जा रही है, वह जॉबलेस ग्रोथ है। भारत में ही नहीं पूरी दुनिया में ऐसा हो रहा है। हमारी ग्रोथ को नंबरों में मापना आसान नहीं है। शहरी और ग्रामीण इलाकों की तरक्की में जमीन आसमान का अतर है।” एक मशहूर अमेरीकी लेखक एडवर्ड एबी का कहना है “विकास यदि सिर्फ विकास के लिए हो रहा है तो वह कैंसर की बीमारी की तरह है। यह सबको मालूम है कि कैंसर सेल्स मल्टीप्लाई करते हैं। उससे आखिर में इंसान ही खत्म हो जाता है। जिस स्टाइल में हमारी ग्रोथ हो रही है उससे शहरों और गाँवों के निचले स्तर के 40 -30 प्रतिशत लोगों की जिंदगी और बदतर हो जाएगी। केवल गाँवों में रहने वाले टॉप टेन लोग और शहरों 15-20 प्रतिशत लोग ऐसी आलीशान जिंदगी जी रहे हैं, जो उन्होंने कभी सोची भी न होगी।”
यदि टिकाऊ विकास करना है तो सरकार को चाहिए कि कृषि को पटरी पर लाए। और यह तभी संभव है जब कुछ महत्वपूर्ण पहलुओं पर युद्ध स्तर पर काम होगा। जैसे- सिंचाई सुविधाओं का विकास हो जिससे मानसून पर निर्भरता घटे, बीज को लेकर सरकार की किसानों के पक्ष में सख्त नीति हो, बाजार में फसलों को उचित मूल्य मिले, अनाजों के सुरक्षित भंडारण की पर्याप्त व्यवस्था हो, किसानों एवं सरकारों के बीच संवाद कायम हो।
हमारे देश में कृषि पर बढ़ती जनसंख्या का भी भयानक दबाव है। जब देश आजाद हुआ था तो कुल आबादी लगभग 33 करोड़ थी वहीं आज इससे ज्यादा यहाँ गरीबों की संख्या है। बढ़ती आबादी से केवल कृषि पर खाद्यान का ही दबाव नहीं बढ़ता है बल्कि पर्यावरण और पारिस्थितिकी तंत्र भी बुरी तरह से प्रभावित होता है।
चीन के पास दुनिया का सात प्रतिशत भूभाग है जबकि हमारे पास दुनिया का 2.4 प्रतिशत भूभाग है। भारत की वार्षिक जनसंख्या वृद्धि दर 1.93 प्रतिशत है तो चीन की मात्र एक प्रतिशत। विश्व की कुल जनसंख्या का 16.7 प्रतिशत भाग भारत में रहता है। इस बड़ी जनसंख्या के भरण-पोषण के लिए देश में मात्र 141.89 मिलियन हेक्टेयर भूमि कृषि योग्य है। अब इस भयंकर असंतुलन को पाटने के लिए कोशिश की जाती है कि सालों का पैदावार एक ही फसल में ले ली जाए। यह प्रवृत्ति भूमि को बंजर ही बना सकती है।
सुविख्यात कृषि वैज्ञानिक डॉ. एस स्वामीनाथन के अनुसार “बढ़ती जनसंख्या के चलते अनुमानतः आज जो बच्चा पैदा होगा उसके लिए 6.08 हेक्टेयर भूमि उसके आवास, विद्यालय, सड़क आदि की सुविधाओं के लिए तथा 0.4 हेक्टेयर भूमि खाद्यान और फल-सब्जी उगाने के लिए आवश्यक होगी। इस गणना के आधार पर भारत में लगभग 55 लाख हेक्टेयर अतिरिक्त भूमि की आवश्यकता प्रत्येक वर्ष होगी।” क्या यह संभव है ? लेकिन जनसंखया नियंत्रण तो संभव है। सरकार को जागरुकता एवं कानून के माध्यम से जनसंख्या नियंत्रण पर काम शुरु कर देना चाहिए अन्यथा स्थिति और भयावह बनती जाएगी।
कृषि समस्याओं में भूमि का असमान वितरण या यों कहें खेती योग्य भूमि पर कुछ खास तबकों का स्वामित्व भी प्रमुख समस्या है। आजादी के 62 वर्ष बाद भी यदि भूमि सुधार कानून समग्रता में लागू नहीं किया गया तो यह हमारे लोकतंत्र के लिए शर्मनाक है। ऐसी स्थिति में यदि कोई भारतीय समाज को अर्द्धसामंती कहता है तो कुछ भी गलत नहीं है। भूमि सुधार कानून लागू न होने की वजह से अपने खून-पसीने से खेती कोई और कर रहा है और मजा कोई और मार रहा है। बंगाल और केरल की सरकारें इस कानून को सख्ती से लागू करवाने के कारण हमेशा याद की जाएंगी।
भूमि सुधार कानून बिहार में सबसे पहले बना था। भू-हदबंदी (लैण्ड-सीलिंग) से अधिक जमीन रखने वाले भूपतियों से अतिरिक्त जमीन लेकर भूमिहीनों के बीच बाँटने वाला जो कानून यहाँ 1961 में बना था जिसे चार दशक बाद भी किसी को लागू करवाने की हिम्मत नहीं हुई। आशचर्य है कि राज्य की ‘तमाम गैरमजरुआ खास ’जमीनों का पता लगाकर उन्हें गरीबों के बीच बाँटने का जो आदेश राज्य सरकार ने सन् 1954 में दिया था,आज 51 साल बाद भी उस पर अमल न हो सका। भू-हदबंदी से प्राप्त 80 हजार एकड़ जमीन गरीबों में नहीं बँट सकी क्योंकि इससे जुड़े मामले पिछले 14 सालों से विभिन्न अदालतों में लंबित है।
आजाद भारत में किसानों की समस्याओं और उनके हकों को लेकर किसान आंदोलन भी शुरु हुए। महाराष्ट्र में शरद जोशी तथा उत्तर प्रदेश में महेन्द्र सिंह टिकैत प्रमुख रूप से उभरे। लेकिन कुछ ही समय में ये नेता राजनीतिक अवसरवाद के शिकार हुए। महेन्द्र सिंह टिकैत तो आजकल पंचायतों के माध्यम से तालीबानी फरमान जारी कर रहे हैं।
अपने हकों को लेकर किसानों के एकजुट न हो पाने का प्रमुख कारण यह है कि आज भी हमारे समाज में पेशों के आधार पर कोई पहचान नहीं है। किसानों की जातीय पहचान उनकी एकजुटता में सबसे बड़ी बाधा है।

Thursday, October 22, 2009

इन जड़ी-बूटियों के बारे में मुझे भी कुछ पता नहीं है



दिल्ली केवल राजनीति, कला और शिक्षा का ही केंद्र नहीं है, यहाँ सड़क के किनारे कई क्षेत्रों में नीम-हकीमों की जड़ी-बूटी की दुकानें भी देखी जा सकती हैं। पूरी दिल्ली में जगह-जगह पर इन दुकानों का फैलाव है जो विकास पुरी कॉलनी से संचालित होती हैं। यदि इन दुकानों में जाएं तो एक नौकर बैठा मिलेगा जो अपनी जड़ी-बुटियों को संजीवनी होने का दावा करेगा। थोड़ी चालाकी से बात की जाए तो कुछ ही मिनटों पता चल जाएगा कि सच क्या है। जेएनयू के पूर्वी गेट से बेर सराय जाते हुए सड़क के बायीं तरफ एक दुकान है। चुँकि यहाँ गुप्त रोग के इलाज में ज्यादा दिलचस्पी ली जाती है इसलिए मैंने भी गुप्त रोग का बहाना बनाया।

तीन महीने से स्वप्न दोष हो रहा है। तीन महीने से है और आप आज आ रहे हैं। ओ समझ गया इसीलिए आप इतने कमजोर दिख रहे हैं। दाहिने हाथ की कलाई पकड़ते हुए उसने कहा आपके पेट में बहुत गर्मी है। आधे घंटे में वैद्य जी आ जाएंगे तब तक मैं दवाई बना रहा हूँ। आप कुछ पैसे जमा कर दीजिए। वह बिल निकालकर कुछ लिखने ही जा रहा था कि मैंने पूछ दिया कौन सी दवा है और कितने की है। दवाई तो जानते ही हैं जड़ी –बूटी वाली है। ये ऐसे ही दुर्लभ वस्तु होती है। बावजूद उतनी महंगी नहीं है। देखिए ये बीच वाली दवा है ‘मरदाना-जनाना पावर -550 ’और कीमत भी मात्र पाँच सौ पचास।

मैंने, पूछा कि तुम्हारे वैद्य जी कहाँ के रहने वाले हैं? वैद्य जी तो साहब बहुत पुराने हैं, ऐसे वे हरिद्वार के रहने वाले हैं। आप चिंता मत कीजिए हम हैं न। तुम कहाँ के रहने वाले हो? अरे साहब मैं भी वहीं के रहने वाला हूँ। वह जिस टोन में बात कर रहा था उससे पहले ही पता चल गया था कि वह बिहार का रहने वाला है। अपनी आवाज भारी करते हुए मैंने कहा सच बताओ। कुछ पल चुप रहने बाद उसने कहा हम बिहार के भागलपुर जिले के रहने वाले हैं। मैंने कहा, अच्छा तो इसीलिए एक बिहारी को ही मुर्ख बना रहे हो। नहीं-नहीं दवाई तो बिल्कुल अच्छी है आप तुरत ठीक हो जाएंगे।
जितने छोटे-छोटे डिब्बे जड़ी-बुटियों के थे उनसे कुछ ही कम देवी-देवताओं की फोटो। मैंने कहा, इन जड़ी-बूटियों के नाम जानते हो? नहीं सर हमको कुछ पता नहीं है। हम भागलपुर में पढ़ाई करते थे लेकिन बीच में ही छोड़कर दिल्ली भाग गए। हम यहाँ ढाई हजार पर नौकरी करते हैं। चौबीसो घंटे यहीं रहना होता है। दीपावली में घर चले जाएंगे। फिर से पढ़ने का मन कर रहा हैं। मैंने कहा पुलीस को भी कुछ देने पड़ते हैं? वह गंभीर होते हुए बोला सड़क के किनारे दुकान है तो पैसे तो देने ही होंगे।
ऐसी दुकानें जब देश की राजधानी में धड़ल्ले से चल रही हैं तो छोटे शहरों और कस्बों का क्या हाल होगा? यहाँ तो लोग डाक्टर से ज्यादा इन्हीं नीम हकीमों पर विश्वास करते हैं। सबसे बड़ी बात है यहाँ उन्हीं बीमारीयों के इलाज में दिलचस्पी ली जाती है जिन पर हमारे समाज में खुलकर बात नहीं की जाती।

Sunday, October 11, 2009

काशी में कुल्हड़


कहा जाता है सूरज चाहे जितना तमतमा जाए समुद्र लहराता रहेगा। वैसे ही काशी में मॉल संस्कृति चाहे जितना पाँव पसार ले, कुल्हड़ कड़कता रहेगा। जैसे सड़कों और चौराहों पर आम आदमी अनायास दिखते हैं वैसे ही काशी में कुल्हड़। इसका मतलब यह नहीं कि यहाँ केवल आम आदमी ही कुल्हड़ से मतलब रखता है। इन कुल्हड़ों से मेहनतकश और वाचाल होठों से लेकर फिरोजी एवं शबनमी होठों तक का सहमिलन होता है। विदेशी होठों को भी कुल्हड़ ही भाता है।
पेय का मजा जो कुल्हड़ में मिलता है वह काँच और धातु के बर्तन में कहाँ ? होठों और कुल्हड़ का सहमिलन बचपन का याद दिला देता है जब छुप-छुप कर मिट्टी या मिट्टी के बर्तन के टुकड़े चाटने की आदत पड़ जाती है।
जो काशी की कसौटी पर खरा उतरता है वही काशी को जी पाता है। काशी को कोई अपने हिसाब से नहीं जी सकता। यही काशी की अद्भुत पहचान है। यहाँ लगभग हर प्रकार के पेय कुल्हड़ में परोसे जाते हैं। दूध, दही, लस्सी, और चाय से लेकर कॉफी तक। इन तमाम पेयों का स्वाद कुल्हड़ की सोंधी गंध से दोगुना हो जाता है। वैसे भी कुल्हड़ से दूध और दही का पुराना संबंध है। आज भी गाँवों में, मिट्टी के बर्तनों में ही दूध उबाला जाता है। चाय और कुल्हड़ भी दोस्त बन गए। लेकिन कॉफी ? क्या कॉफी कुल्हड़ में आकर सहज महसूस करती होगी ? या कुल्हड़ स्वयं में कॉफी को पाकर गौरवान्वित महसूस करता होगा ? चाहे जो भी हो कॉफी कुल्हड़ में ही दी जाती है। यह उतना भी अनमेल नहीं है जितना कि मुलायम सिंह और समाजवाद, मार्कसवाद और नंदीग्राम, रचनाकर्म और आज के साहित्यकार। यहाँ खाद्य पदार्थों में भी कुल्हड़ का वैसा ही पैठ है ।
कुल्हड़ का उपयोग दैनिक जीवन में जितना बनारस में होता है, शायद ही किसी और जगह होता होगा। इसका कारण यहाँ की धार्मिकता हो सकती है, क्योंकि पूजा में मिट्टी के बर्तनों को पवित्र माना जाता है। फलतः इसकी पवित्रता दैनिक जीवन को भी प्रभावित की होगी।
कोई काशी पहली बार आए तो उसके लिए कुल्हड़ कौतूहल का विषय हो सकता है। उसे देखकर या उपयोग करते समय स्मृतियों और अतीत चला जाना स्वभाविक है। याद आएगा गाँव, गाँव में विवाह के विभिन्न मौके जब पंगत में बैठे लोगों के पत्तल के सामने रखे मिट्टी का वह बर्तन, जो पानी देने के लिए होता था, जिसे कुल्हड़, पूर्वा, भरूका, चुक्कड़ या रामलोटा भी कहते हैं।
घड़ा के संदर्भ में कहा जाता है कि अमीरों के लिए शौक और गरीबों के लिए फ्रिज। किंतु कुल्हड़ के साथ ऐसा कुछ भी नहीं है। शौक और मजबूरी जैसी कोई बात ही नहीं है। यहाँ दोनो वर्ग अपने पसंद और बड़े चाव से इसका उपयोग करते हैं। मानों इसके बिना पेय और खाद्य का स्वाद अधूरा रह जाता है। रामनगर की लस्सी हो या पहलवान का दूध, बनारस स्वीट्स का रसगुल्ला हो या प्रसिद्ध दुकानों की चाट या कचौड़ी के साथ मिलने वाली सब्जी सबकी गुणवत्ता और प्रसिद्धि में कुल्हड़ का भी कहीं न कहीं योगदान रहता ही है। इसके उपयोग के बाद फोड़ने का भी अपना एक अलग मजा है। आराम से जमीन पर रखकर, पैर से दबा दी जाए तो एक मासूम टूटन की आवाज कर्णप्रिय लगती है।
लालू प्रसाद यादव ने रेल मंत्री बनते ही रेलवे में डिस्पोजेबल के स्थान पर कुल्हड़ की सिफारिश की थी। कुछ महीनों तक चला भी। किन्तु विद्वत् समाज के विभिन्न तर्कों और कठिनाईयों की दुहाई ने इसे खारिज कर दिया। इन तर्कों और दुहाईयों से काशी को कोई फर्क नहीं पड़ता है।
इन कुल्हड़ों के साथ नकारात्मकता कुछ भी नहीं है। 25 से 35 रू में एक सौ की संख्या में मिल जाते हैं। विभिन्न दुकान वाले बताते हैं कि इतने रूपए के ग्लास टूट जाते हैं, साथ में धोने का भी झंझट नहीं। इसे बनाने वालों की भी कमाई हो जाती है। काश! काशी जैसा कुल्हड़ के मामले में पूरा भारत होता तो प्रदूषण के बड़े हिस्से से बचा जा सकता था।

Monday, October 5, 2009

क्या पूनम मिश्रा की आत्महत्या कायरता है

कुछ सप्ताह पहले अखबारों में खबर पढ़ने को मिली कि लखनऊ में इंजीनियरिंग की छात्रा पूनम मिश्रा ने आत्महत्या कर ली। आत्महत्या करने का कारण यह था कि वह अंग्रेजी न जानने के कारण अवसाद में जी रही थी। इसी वजह से नोयडा में एक छात्र ने आत्महत्या कर ली। राहुल देव ने बताया कि एक साल के अंदर ऐसी चार आत्महत्याएँ हुईं।
राहुल देव भारतीय जनसंचार संस्थान में आयोजित संगोष्ठी ‘हिन्दी का भविष्य: भविष्य की हिन्दी’ पर बोल रहे थे। उनका मानना था कि संकट की घंटी बज रही है लेकिन व्यवस्था बहरी बनी हुई है। हिन्दी का कार्यक्षेत्र और दायरा जितनी तेजी से सिमट रहा है वह दिन दूर नहीं जब हिन्दी इतिहास बन जाएगी। उन्होंने अपने तर्कों एवं तथ्यों के आधार पर हिन्दी के भविष्य का जो खाका खींचा वह ज्यादा चौंकाने वाला नहीं था। इस संगोष्ठी में मधुसूदन आनंद, श्रवण गर्ग और कमर वहीद नकवी भी मौजूद थे। राहुल देव अपने वक्तव्य के दौरान कई बार अहसास कराते रहे कि वे अंग्रेजी भी बहुत अच्छी जानते हैं। संस्थान के इस सत्र में उन्हें दो बार सुनने का मौका मिला। दोनों बार हिन्दी में बोलने से पहले उन्होंने यही कहा कि मुझे अंग्रेजी से विधिवत इश्क है। शायद वो जताना चाहते थे कि मैं हिन्दी की बात इसलिए नहीं करता हूँ कि अंग्रेजी नहीं जानता हूँ। या फिर हिन्दी पर बात करने का हक उन्हीं को है जो अंग्रेजी जानते हैं। राहुल देव लंबे समय से हिन्दी पत्रकारिता से जुड़े हुए हैं लेकिन विभिन्न संगोष्ठी एवं सभाओं में खुद को गर्व से अंग्रेजी का ही पत्रकार कहते हैं। राहुल देव के अंग्रेजी जानने का गर्व को किस रूप में देखा जाए। हालाँकि गर्व कोई नाकारात्मक अहसास नहीं है। लेकिन किसी का गर्व जब दूसरों को प्रताड़ित करने लगे, तो उसे न्यायसंगत नहीं कहा जाएगा। हालाँकि राहुल देव का गर्व इतना निरपेक्ष भी नहीं है कि उन्हें अपराधी ठहरा दिया जाए। दरअसल हमारी व्यवस्था की बनावट और उसकी नीतियाँ ही ऐसी हैं कि गर्व और हीनता के भाव को पनपने से कोई रोक नहीं सकता। आज जो अंग्रेजी जानने के गर्व से रोमांचित हैं वह अकारण नहीं है। देश की पूरी लोकत्तांत्रिक व्यवस्था वही सबसे फिट बैठते हैं जो अंग्रेजी जानते हैं। इस व्यवस्था में पूनम मिश्रा जैसे लोगों के लिए कितनी जगह है? पूनम मिश्रा के लिए जितनी जगह थी उतने दिन तक अस्तित्व बनाए रख सकी। कोई कह सकता है यह तो कायरता है। परिस्थितियों से टकराने का माद्दा नहीं था। तब तो विदर्भ और आंध्र प्रदेश के वे सारे किसान कायर हैं जो आत्महत्याएँ कर रहे हैं। ग्रामीण क्षेत्र के वे सारे छात्र-छात्राएँ कायर हैं जो अंग्रेजी न जानने के कारण उच्च शिक्षा से वंचित रह जा रहे हैं। पूनम मिश्रा ने तो खुद को मिटा लिया लेकिन उसी पृष्ठभूमि से आए छात्र-छात्राएँ कितना जिंदा हैं? पग-पग पर केवल एक खास भाषा न आने की वजह से जिस तरह प्रतिभाओं को नजरअंदाज किया जा रहा है, वह खतरनाक स्थिति है। पूनम ही क्यों हमलोग भी लगातार मर रहे हैं जिंदा रहने की शर्त पर। बावजूद पूनम कायर है तो हम सब भी कायर हैं।
लेकिन उस व्यवस्था के बारे में क्या कहा जाए जिसमें चंद वीर ही रह सकते हैं। क्या भारत की संघर्ष यात्रा और इतिहास इन वीरों के कारण ही है? गाँधी, नेहरू और सुभाष जिस समावेशी व्यवस्था की लड़ाई लड़े थे क्या यह वही व्यवस्था है, जिसमे लोग कायर बनने को मजबूर हैं। आजाद भारत में शायद ही किसी ने सोचा होगा कि जिन लोगों से आजाद हुए उन्हीं की भाषा का खौफ इस कदर कायम हो जाएगा कि लोग आत्महत्या करने पर मजबूर हो जाएँगे। पूनम को भी पता होगा कि उसकी आत्महत्या को लोग स्वभाविक ही लेंगे। संसद में कोई सवाल नहीं पूछने वाला है। अंग्रेजी भाषा के साम्राज्य पर कोई प्रश्न नहीं खड़ा करने वाला है बल्कि इस भाषा का रंग और सुर्ख लाल होगा।
राहुल देव के बाद ऐसा लगा कि पूनम मिश्रा की आत्महत्या पर कोई सार्थक बहस होगी। बारी आई हिन्दी दैनिक नवभारत टाइम्स के पूर्व संपादक मधुसूदन आनंद की। लेकिन मधुसूदन आनंद ने जो कहा वह स्तब्ध करने वाला था। उन्होंने कहा कि हिन्दी के स्वरूप में परिवर्तन और अंग्रेजी के हावी होने पर विलाप करने की जरूरत नहीं है। उन्होनें इस बात पर जोर देते हुए कहा कि यदि बाजार और तकनीक से हिन्दी बदल रही है तो इसे स्वीकार किया जाना चाहिए। मधुसूदन जी को सुनने के बाद ऐसा लगा कि वाकई में वे नवभारत टाइम्स के संपादक थे। ऐसे हम सब कुछ स्वीकार करने के लिए तो अभिशप्त हैं ही। देश की लगभग 80 प्रतिशत आबादी प्रतिदिन 20 रुपए से भी कम स्वीकार कर रही है। तो आनंद जी अब कह रहे हैं कि पूनम की मौत भी स्वीकार कर लो। क्योंकि यह ज्यादा अस्वभाविक नहीं है।
उनका मानना था कि आज की फिल्में और नवभारत टाइम्स जैसे अखबार दर्शकों और पाठकों के बीच लोकप्रिय है तो यह हिन्दी भाषा की सफलता है। आनंद जी के लिए लोकप्रियता और सफलता दोनों एक ही चीज है। मतलब यह कि यदि शाहरूख खान लोगों के बीच लोकप्रिय हैं तो वे एक सफल अभिनेता भी हैं। लालू प्रसाद यादव यदि लोकप्रिय हैं तो क्या एक सफल नेता भी हैं? तब तो नेता और अभिनेता की परिभाषा ही बदलनी होगी। एक संपादक के रूप में यदि मधुसूदन आनंद को नवभारत टाइम्स की भाषा नहीं खटकी तो यह शर्मनाक स्थिति है। उन्होंने खुद को साबित करने के लिए जिन उदाहरणों को पेश किया वह भी कम हास्यास्पद नहीं था। मधुसूदन आनंद ने कहा कि मेरी माँ आज सीजन, प्रोबलम, प्रोग्राम और बुक जैसे अंग्रेजी शब्दों को आसानी से समझ लेती है। आनंद जी को यह भी बताना चाहिए था कि इन शब्दों का प्रचलन क्यों बढ़ रहा है? क्या इसमे मीडिया की कोई भूमिका नहीं है? दरअसल बात केवल इन चंद शब्दों की नहीं है। मीडिया, लोगों के बीच यह धारणा पैठा चुका है कि बातचीत में अंग्रेजी के शब्दों को घुसेड़ना शहरी और बौध्दिक जीवन की पहचान है। हद तो तब हो गई जब वे जनसत्ता की भाषा पर चुटकी लेने लगे। इन्हें सुनते हुए कई बार तो ऐसा लगा कि हम सुधीश पचौरी और प्रसून जोशी को सुन रहे हैं।
कमर वहीद नकवी ने कुछ महत्वपूर्ण सवाल उठाए। उन्होंने कहा कि क्या कारण है कि जो भाषा पाँच साल पहले सरल लगती थी आज वही कठिन लगने लगी है। उस समय जनसत्ता और नवभारत टाइम्स को देखता था तो लगता था कि जनसत्ता की भाषा कितनी सरल है। दरअसल कोई भाषा सरल या कठिन नहीं होती है। हमारे सामाजिक, राजनीतिक और शैक्षणिक परिवेश में भाषा के जिस स्वरूप का चलन बढ़ता है, वह सरल मालूम पड़ने लगता है। नकवी ने बताया कि जब हमलोग आज तक की भाषा तैयार कर रहे थे तो वैसे शब्दों का प्रयोग जमकर किए जो कम बोले जाते थे। कम बोले जाने का मतलब यह कतई नहीं था कि ये शब्द कठिन थे। औंधे मुँह गिरे जैसे शब्दों का प्रचलन आज तक ने ही बढ़ाया।
दरअसल भाषा के स्वरूप का बदलना और अंग्रेजी के शब्दों का घुसपैठ भूमंडलीकरण के बाद ज्यादा आसान हो गया है। मुक्त अर्थव्यवस्था में बाजार का जिस प्रकार विस्तार हुआ उससे केवल हमारी भाषा ही नहीं प्रभावित हुई बल्कि समाज का पूरा ताना-बाना दरका है। लोकतांत्रिक संस्थाओं की भूमिका कमजोर पड़ी है। बाजार को अपने पाँव पसारने के लिए हिन्दी की जरूरत तो पड़ी लेकिन अपने फायदे के हिसाब से। वस्तुओं के विज्ञापन में हिन्दी के शब्दों का धड़ल्ले से प्रयोग तो बढ़ा लेकिन उसकी अपनी अलग प्रकृति और स्वरूप है जहाँ लिपि, भाषिक संरचना और उसके अर्थों के सांस्कृतिक संदर्भों के साथ भरपूर छेड़छाड़ है। कोई कह सकता है कि यह शुध्दतावादी रवैया है। लेकिन यह याद रखना चाहिए कि दुनिया की कोई भी भाषा बाजार के भरोसे जिंदा नहीं रह सकती। यदि किसी भाषा में नए विचार और ज्ञान निरंतर नहीं आ रहे हैं तो उस भाषा के कार्यक्षेत्र को सिमटने से कोई नहीं बचा सकता। नए विचार और ज्ञान तभी किसी भाषा में उतरोत्तर आएंगे जब देश के राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक क्षेत्र में उस भाषा के लिए पर्याप्त जगह होगी। आज हिन्दी के लिए इन क्षेत्रों में कितनी जगह है सबको पता है।
आज हमारा पूरा शैक्षणिक तंत्र बाजार के गिरफ्त में है। शिक्षा की दशा-दिशा बाजार ही तय कर रहा है। हमारी पारंपरिक शिक्षा की बुनियाद पूरी तरह चरमरा गयी है। जिसे आज हम आधुनिक और पेशेवर शिक्षा कह रहे हैं उस पर देश के आभिजात्य वर्ग का कब्जा है। यदि ग्रामीण भारत के कोई विद्यार्थी किसी तरह यहाँ तक पहुँच भी जाता है तो हीन भावना से ग्रसित होना, अवसाद बढ़ते जाना और अंततः पूनम मिश्रा जैसा हश्र होना ज्यादा अस्वभाविक नहीं है।
यह बात सच है कि हिन्दी भाषा में तकनीक और विज्ञान की शिक्षा के लिए ज्यादा संभावनाएँ नहीं है। लेकिन आजाद भारत में कोई विद्यार्थी केवल इसलिए तकनीक एवं विज्ञान की शिक्षा से वंचित रह जाए कि वह अंग्रेजी नहीं जानता है? क्या यह संभव नहीं है कि अपनी भाषा के सहारे विज्ञान और तकनीक की शिक्षा तक पहुँच कायम की जाए? विज्ञान एवं तकनीक की ही बात नहीं है उच्च शिक्षा और शोध के क्षेत्र में भी साहित्य के अलावे हिन्दी के लिए कहीं जगह नहीं है। अब तो ऐसा भी होने लगा है कि प्रवेश परीक्षा में जो कॉपियाँ हिन्दी में लिखी जाती हैं या तो उन्हें दोयम दर्जे का मान लिया जाता है या जाँची ही नहीं जाती। यदि इस हालत में कोई पूनम मिश्रा आत्महत्या करती है तो क्या इसे कायरता कहेंगे?
कई राज्यों ने प्राथमिक शिक्षा अंग्रेजी में देने के निर्णय लिए हैं। ज्ञान आयोग के प्रमुख सैम पित्रोदा ने भी प्राथमिक शिक्षा अंग्रेजी में देने की सिफारिश की है। इस फैसले को मानसिक दिवालिएपन का ही शिकार कहा जाएगा। क्या कोई भाषा इतनी एकांगी और निरपेक्ष हो सकती है कि उसका अपने परिवेश से कोई संबंध न हो? हम भाषा तो बदल देंगे क्या सामाजिक व्यवहार और परिवेश भी बदल देंगे? यदि बदल भी देंगे तो यह देश भारत रहेगा या इंग्लैंड? तो फिर आजादी की क्या आवश्यकता थी? यदि बदलना संभव नहीं है तो शिक्षा में मौलिकता और रचनात्मकता का कोई मतलब होता है?
जब हम अपनी भाषा छोड़ते हैं तो केवल भाषा ही नहीं छूटती है। हमारे सामाजिक और सांस्कृतिक परिवेश में जो संस्कार और व्यवहार मिलते हैं वह भी लगातार छूटते जाता है। अपनी भाषा के साथ-साथ पूरा सांस्कृतिक संदर्भ छूटता चला जाता है। अंततः ऐसी स्थिति आती है कि अच्छे संस्कार और व्यवहार भी पिछड़े मालूम पड़ने लगते हैं। आज हमारे परिवेश में बड़ी विचित्र और हास्यास्पद स्थिति बनती जा रही है। लोगों में यह धारणा तेजी से पैठ रही है कि अंग्रेजी जान लेने का मतलब है आधुनिक बन जाना। ऐसा उनके व्यवहार से महसूस किया जा सकता है। हालाँकि इनकी आधुनिकता में मूल्य-बोध और संवेदना के लिए शायद ही कोई जगह होती है। यदि मूल्य-बोध और संवेदना के लिए कोई जगह नहीं है तो पूनम मिश्रा जैसे लोगों के लिए भी कोई जगह नहीं है। हमारे मशहूर और अत्यंत महत्वपूर्ण स्वतंत्रता सेनानी और प्रखर पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी जिन्होंने सांप्रदायिक दंगों की रोकथाम के लिए अपना साहसिक बलिदान दिया था, उन्होंने देश के गुलामी के दौर में कहा था “मुझे देश की आजादी और भाषा की आजादी में किसी एक को चुनना पड़े तो मैं निःसंकोच भाषा की आजादी को पहले चुनूंगा। देश की आजादी के बावजूद भाषा की गुलामी रह सकती है, लेकिन अगर भाषा आजाद हुई तो देश गुलाम नहीं रह सकता।”