Thursday, November 25, 2010

पटना मतलब लगातार प्रदूषित होती एक राजधानी

कहा जा रहा है कि पटना देश के उन शहरों में से एक है जिसका पिछले चार सालों में कायापलट हो गया है। खास करके नीतीश कुमार के आने के बाद। हमारे देश और समाज में कायापलट की जो अवधारणा बनी है उसमें कई विसंगितयों को देखा जा सकता है। कायापलट का मतलब है कितने आलीसान होटल बने, कितने मॉल, मल्टीप्लेक्स, रेस्तरां और सड़क पर कितनी महंगी गाड़ियां भाग रही हैं व कितनी संख्या में। फास्ट फूड़ की कितनी दुकाने चमक रही हैं, शराब की कितनी मांगें बढीं, कितने ब्रैंडेड शोरुम खुलें और जो भी हो सकता है घोर उपभोक्तावादी समाज के लिए। हद तो यह हो गई है कि लोग बिसलेरी का पानी पी रहे हैं तो इसे भी घोर सकारात्मक बदलाव के रूप में देख रहे हैं। लोग कहते मिल जाएंगे कि जीवन स्तर में सुधार आया है और लोग अपनी सेहत को लेकर जागरुक हैं। लेकिन इसके पीछे कई सवाल टकटकी लगाए खड़े हैं जिनसे हमारा सिस्टम उलझना नहीं चाहता और सावन का अंधा बना हुआ है। तो क्या इन सवालों से जूझे बिना हम भी मान लें कि पटना देश की सबसे तेज गति से विकास करते राज्य की राजधानी है। नहीं, चलिए एक बार इन सवालों से जूझकर देख ही लेते हैं। पटना देश की सबसे तेज गति से प्रदूषित होती राजधानी में से भी एक होगी। सड़क पर निकलें तो पता चलेगा कि यहां प्रदूषण रोकने के कोई नियम-कायदे नहीं हैं। ऑटो केरोसीन का इस्तेमाल कर रहे हैं वह भी प्रदूषण जांच केंद्र के सर्टिफिकेट के साथ। पटना जिला में सभी प्रकार के वाहनों की संख्या 5 लाख 81 हजार 313 है। बिहार मोटर वाहन नियमावली 1992 में संशोधन कर सभी प्रकार वाहनों को प्रदूषण जांच केंद्र पर जांच करवाकर सर्टिफिकेट लेना अनिवार्य कर दिया गया है। लेकिन वर्तमान समय में इस नियम का कोई मतलब नहीं है। अभी राजधानी में कागजी तौर पर 30 प्रदूषण जांच केंद्र हैं लेकिन काम मात्र 16 कर रहे हैं। नियम है कि सभी प्रकार की गाड़ियां प्रत्येक छह महीनें में जांच करवाकर प्रमाण-पत्र लें। मतलब एक साल में करीब 10 लाख वाहन जांच केंद्र पर जाने चाहिए। पर माजरा यह है कि सभी जांच केंद्रों पर औसतन मात्र सात वाहन ही जा रहे हैं। इस हिसाब से देखें तो 16 जांच केंद्रों पर एक साल में मात्र 52 हजार 320 वाहन ही जा रहे हैं। मतलब 5 लाख 28 हजार 893 वाहन बिना प्रदूषण जांच करवाए ही चल रहे हैं। यहां जितने प्रदूषण जांच केंद्र हैं सभी निजी हैं। प्रदूषण जांच केंद्र वालों का कहना है कि अब हमारे पास वाहन नहीं आ रहे हैं तो हम क्या कर सकते हैं। इनके भी अपने दुःख हैं। जांच केंद्र वालों का कहना है कि यह केवल खानापूर्ति के लिए है। न इसमें हमारी दिलचस्पी है न वाहनों की। प्रदूषण जांच के एवज में इन्हें मिलने वाली रकम बहुत कम है। ऐसा राज्य सरकार का परिवहन विभाग भी कहता है। प्रदूषण जांच केंद्र वाले तो कहते ही हैं। दो पहिया और तीन पहिया वाहन के लिए 30 रुपए, चार पहिया के लिए 50 रुपए और डीजल व भारी वाहन के लिए 75 रुपए है। इसमें से भी सकरार क्रमशः पांच, 10 और 15 रुपए ले लेती है। जबकि बंगाल में यह राशि 50, 75 और 100 रुपए है। और बंगाल सरकार इन रकमों में से कुछ भी नहीं लेती है। परिवहन पदाधिकारी हरिहर प्रसाद बताते हैं कि हमने सरकार से चिट्ठी लिखकर अनुरोध भी किया कि यह रकम काफी कम है, इसे बढ़ाया जाए। प्रदूषण जांच केंद्र वालों ने भी रकम बढ़ाने की मांग की लेकिन किसी ने नहीं सुना। मैनें जब ऑटोमोबाइल एसोसियशन और बिहार चेंबर ऑफ कॉमर्स के कार्यकारी सदस्य अमित मुखर्जी से पूछा कि तब तो लाखों वाहन बिना प्रदूषण जांच करवाए सड़क पर चल रहे हैं। तब उन्होंने कहा कि बिना करवाए भी चल रहे हैं और बिना जांच करवाए प्रदूषण जांच केंद्र के प्रमाण-पत्र भी लेकर चल रहे हैं। अमित मुखर्जी प्रदूषण जांच केंद्र भी चलातें हैं। मुखर्जी बताते हैं कि प्रदूषण जांच केंद्र से जो प्रमाण-पत्र दिया जाता वह केवल मल्टिकलर होता है। और वाहन चालक स्कैन करवाकर बड़ी आसानी से तारीख बदल देते हैं। सरकार को चाहिए था कि अलग से एक होलोग्राम देती जैसा कि बंगाल में है। । हमने भी मांग की और परिवहन विभाग ने भी लेकिन राज्य सरकार पर कोई असर नहीं पड़ा। पटना में मोटर फिटनेस सेंटर तो मात्र चार ही हैं। मोटर फिटनेस सेंटर का भी यही हाल है। खास बात यह है कि मोटर फिटनेस सेंटर के प्रमाण-पत्र के बिना वाहनों का रजिस्ट्रेशन नहीं होता है। तो सवाल यहां यह खड़ा होता है कि या तो बिना फिटनेस सर्टिफिकेट के रजिस्ट्रेशन होता है या फर्जी सर्टिफिकेट पर। ट्रैफिक एसपी अजित कुमार सिन्हा कहते हैं कि मेरे पास कोई आधार ही नहीं है कि असली और नकली प्रमाण-पत्र की पहचान कर सकें। अमित मुखर्जी कहते हैं यदि वाहन ईमानदारी से प्रदूषण जांच केंद्र पर जाएं तो लाखो की संख्या में सड़क से बाहर हो जाएंगे। पटना में जितनी तेजी से प्रदूषण बढ़ रहा है आने वाले समय में और खतरनाक स्थिति होने वाली है। एक तो पटना क्या पूरे बिहार में वाहनों और प्रदूषण जांच केंद्रों की संख्या में भारी असंतुलन है। पूरे बिहार में सभी प्रकार की वाहनों की संख्या 22 लाख 86 हजार 272 है वहीं प्रदूषण जांच केंद्र मात्र 60 काम कर रहे हैं। यदि सभी वाहन प्रदूषण जांच के लिए जाने भी लगेंगे तो ये केंद्र जांच करने में असमर्थ साबित होंगे। परिवहन विभाग और ट्रैफिक पुलिस यदि कुछ वाहनों को पकड़ते भी हैं तो 1000 रुपए फाइन लगाकर छोड़ देते हैं। सरकार के तरफ से निर्देश है कि जितना हो सके फाइन लगाकर राजस्व बनाया जाए। लाखों रुपए महीनों में वसूला भी जा रहा है लेकिन सवाल यह है कि क्या इससे प्रदूषण की समस्या खत्म हो जाएगी?
परिवहन विभाग के तरफ से निर्देश है कि वाहन 88 डेसीबल से ज्यादा के हॉर्न नहीं लगा सकते हैं। लेकिन यहां धड़ल्ले से बुफर और प्रेशर हॉर्न का इस्तेमाल हो रहा है। सड़क पर निकले तों बिना कान बंद किए आप पैदल चल ही नहीं सकते हैं। अनावश्यक हॉर्न का भी इस कदर इस्तेमाल कि पैदल चलने वाले मिचली खाकर सड़क पर गिर जाएं। ट्रैफिक पुलिस और परिवहन विभाग के वही तर्क हैं कि हम आखिर कैसे जाने कि कोई निर्धारित डेसीबल से ज्यादा हॉर्न बजा रहा है। इंसान जब बात करता है तो वह 30 से 40 डेसीबल के बीच होता है। वह भी लगातार बातचीत करते रहे तो कान थकने लगता है। वहीं जब बुफर हॉर्न का इस्तेमाल करते हैं तो 100 डेसीबल से भी ज्याद को शोर होता है। माजरा यह है कि जिन्हें परिवहन विभाग साइलेंस जोन घोषित कर रखा है वे भी ऐसे खतरनाक शोर को झेल रहे हैं।
ऑटो तो केरोसीन का इस्तेमाल कर ही रहे हैं पटना में केरोसीन मिला पेट्रोल का भी जमकर गोरखधंधा चल रहा है। पटना के सिपारा क्षेत्र में इंडियन ऑयल और भारत पेट्रोलियम का डिपो है। राजधानी और मगध क्षेत्रों में इसी डिपो से पेट्रोल का सप्लाइ होता है। मान लीजिए टैंकर डिपो से पेट्रोल लेकर 32 डिग्री तापमान पर चलान कटवाकर चलता है। रास्ते में यदि तापमान बढ़ गया तो पेट्रोल का वॉल्यूम भी बढ़ जाता है। एक टैंकर में 12000 लीटर पेट्रोल आता है। चार डिग्री तापमान बढ़ने पर कम-स-कम 40 लीटर पेट्रोल बढ़ जाता है। पंप मालिक पेट्रोल की मात्रा टैंकर में लगी डीप स्टिक से देखते हैं। उन्हें डीप स्टिक तक पेट्रोल चाहिए। जाहिर है तापमान बढ़ने पर पेट्रोल डीप स्टिक से ऊपर आ जाता है। अब सवाल यह भी उठता होगा कि ठंडे के मौसम में तो तापमान घट जाता है ? इससे टैंकर चालकों पर कोई फर्क नहीं पड़ता है। क्योंकि चालक चलान कटने समय का तापमान पंप मालिक को दिखा देते हैं। तापमान बढ़ने के कई कारण हो सकते हैं। पहला तो हो सकता है कि अचानक मौसम का तापमान बढ़ जाए, चालक टैंकर को सड़क पर कूदाते लाते हैं, ब्रेक का इस्तेमाल भी ज्यादा करते हैं और जानबूझकर घंटों धूप में टैंकर को खड़ा कर देते हैं। बढ़े वॉल्यूम को टैंकर चालक सिपारा में ही दलालों से बेच देते हैं। बेचने की कीमत मार्केट रेट से 10 रुपए तक कम होती है। और फिर दलाल ऊपर से इस पेट्रोल में केरोसीन मिलाकर पूरे पटना में पेट्रोल के नाम पर कम कीमत में बेचते हैं। सिपारा डिपो से प्रतिदिन 1000 टैंकर निकलते हैं। यदि हम बढ़े वॉल्यूम को 20 लीटर भी मान कर चलें तो 20 हजार लीटर पेट्रोल प्रतिदिन अवैध रूप से बेचा जा रहा है। पंप मालिक कहते हैं हम लाचार हैं। अपना स्टाफ साथ में भेजते हैं तो टैंकर चालक किसी खास पंप के लिए भी हड़ताल कर देते हैं। सिपारा में यदि दलालों को पता चल जाता है कि कोई पत्रकार आया है तो वे मारने-पीटने से भी नहीं चुकते हैं। अहम बात यह है कि सिपारा थाना भी बगल में ही है। लेकिन कोई कार्रवाई नहीं। पेट्रोल पंप मालिक कहते हैं सब कोई मिल-बांटकर खा रहा है। इस पर टैंकर चालकों का कहना है हम ऐसा नहीं करेंगे तो पेट भी नहीं भर पाएंगे। टैंकर मालिक तनख्वाह के नाम पर मात्र 1500 रुपए देते हैं। बढ़ाने के लिए कहते हैं मालिक का तर्क होता है – पता है चोरी करके कितना कमाते हो। तो चोरी करने के लिए हम मजबूर हैं। यह पटना है मेरी जान, देश की सबसे तेज गति से विकास करते राज्य की राजधानी।

भला इस बदलाव से किसका भला होगा

देश की दो सबसे महत्वाकांक्षी प्रतियोगी परिक्षाओं में बदलाव करने की तैयारी है। आईआईटी और यूपीएससी केवल छात्रों की ही नहीं अभिभावकों का भी सपना होता है। इस सपने को आकार देने में कम संसाधन वाले छात्र भी दिन-रात एक कर देते हैं। इन छात्रों और अभिभावकों के वश में जो कुछ भी होता है उसे अंजाम तक पहुंचाने में एड़ी-चोटी का दम लगा देते हैं। लेकिन हमारी पूंजीवादी सरकार को यह रास नहीं आ रही है। दोनो परिक्षाओं में जिस तरीके के बदलाव किए गए हैं उससे गरीब और ग्रामीण छात्र पूरी तरह प्रतियोगिता से बाहर हो जाएंगे। यूपीएसी में तो बदलाव इसी बार से प्रभावी हो जाएगा। आईआईटी में 2012 से करने की तैयारी है। इन बदलावों पर विचार करें तो पता चलेगा कि यह बदलाव किस तरह से ग्रामीण और गरीब छात्रों के लिए नासूर बनने वाला है और शहरियों व उच्च मध्यवर्ग के हित में है। यूपीए सरकार में कपिल सिब्बल जब से मानव संसाधन मंत्री बने हैं तब से शिक्षा व्यवस्था में परिवर्तन की बात कर रहे हैं। लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि यह परिवर्तन किसके लिए है, और क्यों है? कपिल सिब्बल ने आईआईटी खड़गपुर के निदेशक डी. आचार्य के नेतृत्व में आईआईटी में बदलाव के लिए एक समिति का गठन किया। समिति ने अपनी रिपोर्ट भारत सरकार के मानव संसाधन विभाग को सौंप दिया। रिपोर्ट में कहा गया कि संपूर्ण भारत में इंजीनियरिंग की एक परीक्षा ली जाए। इसका तर्क यह दिया गया कि इससे विद्यार्थियों पर तैयारी का ज्यादा दबाव भी नहीं बनेगा और खर्च भी कम होंगे। लेकिन जिस परीक्षा की बात की जा रही है उसके कई खतरनाक पहलू हैं। पहले जिस तरह आईआईटी में रसायन विज्ञान, भौतिकी विज्ञान और गणित की परीक्षा होती थी अब वह नहीं ली जाएगी। दरअसल, अब बारहवीं की परीक्षा परिणाम के कुल अंक के 70 फीसदी को वेटेज दिया जाएगा। और फिर एक राष्ट्रीय स्तर पर नेशनल एप्टीट्यूड टेस्ट लिया जाएगा। इस टेस्ट में प्राप्त कुल अंक के 30 फीसदी को वेटेज दिया जाएगा। और फिर मेधा सूची तैयार की जाएगी। मेधा सूची में वरीयता के आधार पर छात्रों को आईआईटी या अन्य इंजीनियरिंग कॉलेजों में प्रवेश मिलेगा। अब यहां सबसे बड़ा सवाल है बारहवीं की परीक्षा को 70 फीसदी वेटेज देने का। देश में सीबीएसई, आईसीएसई से लेकर सभी राज्यों के अपने-अपने बोर्ड हैं। 2010 में सीबीएसई की दसवीं और बारहवीं की परीक्षा में कुल 12 लाख 50 हजार विद्यार्थी शामिल हुए थे। वहीं हम बिहार बोर्ड की बात करें तो 2010 की दसवीं की परीक्षा में 10 लाख और बारहवीं की परीक्षा में छः लाख विद्यार्थी शामिल हुए। अब दोनों बोर्डों में विद्यार्थियों को मिलने वाले अंक पर एक नजर डालें तो दांतो तले उंगली दबा लेंगे। सीबीएसई में बारहवीं में 74 फीसदी से ज्यादा अंक पाने वाले 35 फीसदी छात्र हैं वहीं बिहार बोर्ड में सिर्फ 0.93 फीसदी, उत्तर प्रदेश में 0.92 फीसदी और महाराष्ट्र में 6.75 फीसदी। और आईआईटी में बारहवीं के 70 फीसदी अंक को वेटेज दिया जाना है। तो इन राज्यों से कितने छात्रों को आईआईटी में प्रवेश मिल पाएगा? बिहार विद्यालय परीक्षा समिति के अध्यक्ष एकेपी यादव कहते हैं “यह तो केवल तीन राज्य बोर्डों के बारहवीं की परीक्षा परिणाम का ग्राफ है। अन्य राज्य बोर्डों का भी कुछ ऐसा ही हाल है। वे कहते हैं हमने सख्त विरोध दर्ज करवाया है। हमने कहा कि क्या आईआईटी केवल सीबीएसई वालों के लिए है। ऐसे में तो बिहार जैसे राज्यों के छात्रों के लिए कोई जगह ही नहीं रहेगी।” नेशनल एप्टीट्यूड टेस्ट की बात करें तो इसमें भी कम विसंगतिया नहीं है। इसमें मोरल, एथिक, कम्युनिकेशन स्किल और तर्क क्षमता जैसे प्रश्न शामिल होंगे। टेस्ट का माध्यम अंग्रेजी रखी गई है। एक तो यहां ग्रामीण और गरीब छात्र मार खाएंगे जो अंग्रेजी ठीक-ठाक नहीं जानते हैं। हो सकता है किसी के पास नौलेज हो लेकिन वह जिस समाज और परिवेश में रहता है उसमें वैसा कम्यूनिकेशन स्किल विकसित न कर पाया हो जिसकी मांग होने वाली है। और जहां तक मोरल व एथिक्स का सवाल है तो हर समाज और परिवेश का मोरल और एथिक्स एक ही नहीं होता है। एएन सिन्हा समाज अध्ययन संस्थान के निदेशक प्रोफेसर डीएम दिवाकर कहते हैं “यह पूरी तरह से अर्बन बायस्ड है। पहले तो बारहवीं के परीक्षा परिणाम को इतना वेटेज नहीं देना चाहिए। यदि देना भी है तो पहले राज्य बोर्ड के स्कूलों को भी सीबीएसई के लेबल में लाया जाए। और दूसरी ओर एप्टीट्यूड टेस्ट में विविधता को समाहित किया जाए। जब-तक विविधता समाहित नहीं होंगी तब-तक बदलाव एकपक्षीय ही रह जाएगा।”
एक सुझाव यह हो सकता है कि राज्य बोर्ड क्यों नहीं छात्रों को पर्याप्त अंक देता है? एकेपी यादव कहते हैं “केवल सीबीएसई जितना अंक देने की बात नहीं है। सवाल शिक्षा और परीक्षा की गुणवत्ता का भी है। सीबीएसई में छात्रों को केवल इसलिए ज्यादा अंक नहीं मिलते हैं कि वहां अंक ज्यादा दिए जाते हैं। यहां जितनी बुनियादी सुविधाएं हैं राज्य बोर्ड किसी भी स्तर पर मुकाबला नहीं कर सकते।” बिहार बोर्ड में अब सिलेबस, प्रश्न-पत्र और मूल्यांकन लगभग सीबीएसई पैटर्न पर कर दिया गया है। ताकि बिहार बोर्ड के छात्र भी किसी स्तर पर सीबीएसई से मुकाबला कर सके। लेकिन बात केवल प्रश्न-पत्र और मूल्यांकन तक ही सीमित नहीं है। सीबीएसई प्रतिनिधि संजीव मिश्र कहते हैं “सीबीएसई का जो भी पैटर्न है वह अपने आंतरिक ढांचा और उपलब्ध साधनों के आधार पर है। आप यदि किसी दूसरे सिस्टम के किसी एक हिस्से को एडॉप्ट करते हैं तो इसका मतलब यह कतई नहीं है कि उसके परिणाम बिल्कुल वैसे ही मिल जाएंगे। क्योंकि सीबीएसई का प्रदर्शन केवल सिलेबस और प्रश्न-पत्र के कारण नहीं है। बल्कि इसका पूरा ढांचा इसे सपोर्ट करता है। सीबीएसई बोर्ड एक्टिविटी बेस्ड एजुकेशन है वहीं राज्य बोर्ड एजुकेशन बेस्ड एक्टिविटी।” अब हम बिहार की ही बात करें तो जिन हालात में प्राथमिक और माध्यमिक स्कूल हैं ऐसे में कहां से सीबीएसई के छात्रों से मुकाबला कर पाएगा। हम एक नजर बिहार की प्राथिमक और माध्यमिक शिक्षा की हालात पर नजर डालें तो भयावह तस्वीर ऊभरकर सामने आएगी। 2007-08 की डीएसई रिपोर्ट के अनुसार राज्य में 67 हजार 874 स्कूल हैं। 23 फीसदी स्कूल बिना क्लास रुम के चल रहे हैं। छः फीसदी स्कूल सिंगल क्लास रुम वाले हैं और 29 फीसदी दो क्लास रुम वाले। मात्र तीन फीसदी स्कूलों में बिजली की पहुंच है। इस मामले में इसके बाद असम और झारखंड आता है। राज्य में एक क्लास रुम और एक शिक्षक पर 120 बच्चे हैं जो कि देश के किसी भी राज्य से ज्यादा है। 48 फीसदी स्कूलों में कॉमन ट्वायलेट है वहीं मात्र 22 फीसदी स्कूलों में गर्ल्स ट्वायलेट है। शिक्षकों के अभाव से बिहार के स्कूल भयानक तरीके से जूझ रहे हैं। छः फीसदी स्कूल मात्र एक-एक शिक्षक के भरोसे चल रहे हैं वहीं 26 फीसदी स्कूल दो-दो शिक्षक के भरोसे। 41 फीसदी शिक्षक केवल इंटर पास हैं। अब इन हालात में बिहार बोर्ड लाख सीबीएसई के तर्ज पर सिलेबस बदल ले या प्रश्न-पत्र बना ले क्या फर्क पड़ता है। कपिल सिब्बल का आईआईटी में बदलाव के पक्ष में तर्क है कि इससे कोचिंग पर छात्रों की निर्भरता कम होगी। क्योंकि बारहवीं में छात्र कोर्स को छोड़कर इंजीनिरिंग की कोचिंग पर ज्यादा ध्यान देते हैं और क्लास नहीं करते हैं। इस बदलाव के बाद छात्र कोर्स पर ध्यान देंगे और क्लास भी करेंगे। इस तर्क पर एकेपी यादव कहते हैं “यह केवल सिब्बल साहब का शिगुफा है। जब स्कूल में शिक्षक नहीं हैं, योग्य शिक्षक नहीं हैं, किताबें तक नहीं मिल पा रही हैं और कहें तो बुनियादी सुविधाओं से जूझ रहे हैं वैसी स्थिति में छात्र स्कूल की क्लास की ओर रुख करेंगे यह तो एक सुखद सपना जैसा ही है। वे कहते हैं इस हालात में तो मुझे लगता है कोचिंग का महत्व और बढ़ेगा। मौजू तो यह कि ज्यादा अंक लाने के होड़ में कोचिंग की ओर तो छात्र रुख करेंगे ही दूसरी ओर एप्टीट्यूड टेस्ट के लिए अलग से कोचिंग खुल जाएंगे।” अब ऐसी स्थिति में आईआईटी की प्रवेश प्रक्रिया में बदलाव होता है तो जाहिर ग्रामीण और गरीब छात्र पिसेंगे।
वही हाल यूपीएससी की परीक्षा का है। वैकल्पिक पेपर खत्म कर यहां भी एप्टीट्यूड टेस्ट लिया जाएगा। पहले छात्र अपने मन मुताबिक विषय चुनकर वैकल्पिक पेपर की परीक्षा देते थे। अब यहां भी एथिक, मोरल, तर्क क्षमता और कम्यूनिकेशन स्किल एप्टीट्यूड टेस्ट में शामिल होगा। अब यहां भी सवाल वही है। इन टेस्टों में क्षेत्रीय विविधता शामिल होनी चाहिए। दूसरी बात यह कि जो दो-तीन या चार साल से तैयारी कर रहे थे उनका क्या होगा? प्रोफेसर डीएम दिवाकर कहते हैं यदि सरकार को बदलाव ही करने थे तो दो साल पहले बता देना चाहिए था। ताकि बदलाव को स्वीकार करने में छात्रों को मानसिक रूप से तैयार होने का मौका मिल पाता।
गांव और गरीब कथित भारतीय लोकतंत्र में लगातार हाशिए पर आते जा रहे हैं। जब कभी हमारे हुक्मराणों को वोट बैंक की याद आती है तो नरेगा और मीड-डे-मील जैसी रेवड़िया बांट दी जाती है। जैसे हमारे देश के पूंजीपतियों ने अरबो-खरबों की संपत्ति अर्जित कर कई जगह मंदिरों का निर्माण करवा दिया है। ताकि जनता का क्षोभ, विक्षोभ और विद्रोह दबा रहे। हालांकि देश की आधी से ज्यादा आबादी को इसी लायक बना दिया गया है कि नरेगा से आगे सोचे ही नहीं। हमारी सरकारें ऐसी ही योजनाओं पर दंभ भरते रहती हैं। भारत खुद को विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहते नहीं थकता है। लेकिन जिस तरीके से लोगों को मुख्यधारा से लगातार अलग किया जा रहा है वह समय के साथ और भयावह रूप धारण करेगा। कई राज्यों की शिक्षा व्यवस्था तो बिल्कुल चौपट हो गई है। यदि आपको गुणवत्ता वाली शिक्षा चाहिए तो बाजार में उपलब्ध है। बाजार से शिक्षा तभी मिलेगी जब आपके पास पर्याप्त पैसे होंगे। अन्यथा सरकार की रेवड़ियों पर जिंदा रहिए।

‘पीपली लाइव’ नहीं पीपली पैकेज

‘पीपली लाइव’ विमल राय की ‘दो बीघा जमीन’ नहीं है। शायद इसलिए भी कि अनूषा रिजवी‚ विमल राय नहीं हैं। लेकिन इस तर्क के कोई आधार तो बिल्कुल नहीं है कि ‘दो बीघा जमीन’ वाला अब समय नहीं है। खास करके मजदूर और सीमांत किसानों के मामले में। सच तो यह है कि यह समय और शातिर है। लेकिन ‘पीपली लाइव’ इस शातिर समय की त्रासदियों को केवल छू पाती है। ऐसा इसलिए कि अनूषा रिजवी और आमिर खान को ‘पीपली लाइव’ में इस समय को सेलीब्रेट करना भी अनिवार्य था। ‘पीपली लाइव’ के कथानक और कथावस्तु कोई नायाब नहीं है। भारतीय किसान और ग्राम्य समाज के जीवन व गतिविधियां हिन्दी सिनेमा में कई बार केंद्रीय विषय-वस्तु बनी हैं। केवल विषय-वस्तु ही नहीं वरन वहां की त्रासदियों और विडंबनाओं को दमदार तरीके से प्रस्तुत भी किया गया। महबूब की ‘मदर इंडिया’(1957), ‘दो बीघा जमीन’ फिर बीसवीं सदी में आएं तो आशुतोष गोवारीकर की ‘लगान’ और ‘स्वदेस’ भी भारतीय गांव और किसान पर सार्थक सिनेमा है। यह कहने में तनीक भी संकोच नहीं है कि ‘पीपली लाइव’, ‘स्वदेस’ जितना भी सार्थक नहीं है। ऐसा तब है जब विख्यात रंगकर्मी हबीब तनवीर के नया थियेटर के कलाकार इस फिल्म में हैं। लेकिन दुर्भाग्य से यह नया सिनेमा नहीं है। सवाल यह है कि आज के समय में मदर इंडिया के बिरजू (सुनील दत) या दो बीघा जमीन में बलराज साहनी के चरित्र या लगान के भुवन (आमिर खान) या फिर स्वदेस के मोहन भागर्व (शाहरुख खान) की प्रासंगिकता है अथवा पीपली लाइव के नत्था और बुधिया की। हम यह नहीं कह सकते हैं कि हमारे समाज में नत्था और बुधिया नहीं हैं। लेकिन पीपली लाइव नत्था और बुधिया के प्रति संवेदनशील नहीं है। दर्शकों को दोनो चरित्र द्रवित या आक्रोशित नहीं करते बल्कि गुदगुदाते नजर आते हैं। दर्शक दोनों चरित्रों के प्रति संवेदनशील नहीं होते हैं बल्कि उनके मन में फिल्म खत्म होने तक यह धारणा पैठ बना चुकी होती है कि दोनों की नियति ही यही है। यानी पीपली लाइव यथास्थितिवाद को अमली-जामा पहनाती है। नत्था और बुधिया इस फिल्म के नायक नहीं हैं। बल्कि ऐसे दो मुर्ख ग्रामीण हैं जो बीड़ी पीते हैं और निकम्मे हैं। देश में विकास की चल रही फैक्ट्रियों से निकले अपशिष्ट हैं। देश और व्यवस्था के लिए नत्था व बुधिया फालतु के चीज तो हैं ही तो पीपली लाइव में भी वे इसी रूप में इस्तेमाल किए गए हैं। पीपली लाइव एक ऐसी संवेदनहीन फिल्म है जहां बाप से बेटा पूछता है कि तुम आत्महत्या कब करोगे हमे ठेकेदार व थानेदार बनना है। नत्था के बेटे की उम्र इतनी भी कम नहीं है कि वह बचपना के कारण बोलता है। हमे यह नहीं भूलना चाहिए कि अभावग्रस्तता तो संवेदना को समय से पहले ही प्रौढ़ बना देती है। मदर इंडिया का बिरजु बचपन में ही लाला की शातिर चाल को समझ लेता है। वह लाला को बचपन में ही संकेत दे देता है कि आने वाले समय में संभल जाओ। लेकिन यहां नत्था की बेबसी को उसका बेटा भी मजाक बनाता है। क्या नत्था का बेटा अपने बाप और घर की बेबसी से इतना बेखबर है? और वह यहां इतना समझदार कैसे बन जाता है कि मेरा बाप आत्महत्या करेगा तो लाख रूपए मुआवजा मिलेगा। जिस बेटे के जीवन का हर पल बेबसी की कशमकश में पल रहा हो वह इतना संवेदनहीन कैसे हो सकता है? दरअसल यह खाए-पिए-अघाए मध्यवर्गीय दर्शकों को गुदगुदाने के लिए छ्योंक लगाया गया है। तो हम किस मुंह से कहें कि यह फिल्म पीपली लाइव है। हम इसे पीपली पैकेज क्यों न कहें? मीडिया में तो बढ़-चढ़कर इस फिल्म को इंडिया लाइव तक कहा गया। तो क्या हम मान लें कि भारतीय ग्रामीण नत्था और बुधिया जैसे केवल बीड़ी पीते हैं और निकम्मे जैसे नेताओं के पैर पकड़ते चलते हैं और कुछ न सुझा तो मुआवजे के लिए आत्महत्या के लिए सोचते हैं। या फिर यह मान लिया जाए कि होरी महतो जैसे लोग बिना मतलब के अनवरत जमीन खोदते रहते हैं और मर जाते हैं। अनूषा से यह पूछा जाना चाहिए कि होरी महतो लगातार खाली जमीन क्यों खोदते रहता है? पीपली लाइव में पीपली गांव का लोकेशन है पीपली का जनजीवन नहीं है। नत्था और बुधिया के इर्द-गिर्द जिस जनजीवन को दिखाया जाता है वह पीपली का नहीं है बल्कि पूंजीवादी सिनेमा का है जहां उसे केवल रुढ़ियां और अंधविश्वास ही दिखता है। तो क्यों न मीडिया इसे मीडिया लाइव कहता है?
श्याम बेनेगल ने भी 2009 और 10 में भारतीय ग्रामीण जीवन पर आधारित ‘वेलकम टु सज्जनपुर’ और ‘वेल डन अब्बा’ बनाई। इन दोनो फिल्मों में हम भारत की सफेद और स्याह तस्वीर को देख सकते हैं। ‘वेल डन अब्बा’ में तो भारत का ग्रामीण समाज, क्षेत्रीय राजनीति, मीडिया, ब्यूरोक्रेट्स और शहर व गांव के फासले अपने वास्तविक मिजाज में दिखते हैं। वहीं ‘पीपली लाइव’, मीडिया लाइव के चक्कर में कोई लाइव को कवर नहीं कर पाती है। इस फिल्म में मीडिया और खास करके समाचार चैनलों के जिस पहलू को परोसने की कोशिश की गई है वह कोई नई कोशिश नहीं है। नई कोशिश का कुछ ज्यादा मतलब नहीं है तो कम-से-कम नया ट्रीटमेंट तो होना ही चाहिए था। वह भी नहीं है। कई बार तो इस फिल्म में जो दिखाने की कोशिश की गई है वह अतिरंजित मालूम पड़ती है। दर्शकों को हंसाने के चक्कर में फिल्म कई बार हास्यास्पद मालूम पड़ती है। समाचार चैनल भारत लाइव के संवाददाता दीपक द्वारा नत्था के मल की व्याख्या हकीकत से ज्यादा दर्शकों को गुदगुदाने के लिए फार्मूला ही मालूम पड़ता है। एक तरफ जनमोर्चा दैनिक के रिपोर्टर विजय मिट्टी खोदते होरी महतो को मवाली और लफंगे के अंदाज में कहता है-“ ए अंकल क्या कर रहे हो। साला कुछ बोलता भी नहीं है।” और आगे गाली भी देता है। वहीं विजय को सबसे संवेदनशील पत्रकार के रूप में भी दिखाया जाता है। तो क्या विजय की प्रोफेशनल संवेदनशीलता इतनी एकांगी है कि व्यवहार में बिल्कुल नहीं दिखती है? मीडिया के आतंक और गैरजिम्मेदारी की बयां हिन्दी सिनेमा में जिन तरीकों से अब-तक किया जा चुका है पीपली लाइव उनसे उन्नीस ही मालूम पड़ती है। इस मामले में ‘पेज थ्री’ और ‘मुंबई मेरी जान’ ज्यादा स्वभाविक फिल्म है। जब हिन्दी सिनेमा में राजनीति की बात आती है तो ‘सब धन बाइस पसेरी’ जैसी स्थिति है। यहां हर नेता कोई ठाकुर या सामंत जैसा है। अपराधी है और जातिवादी है। यदि जाति का ठाकुर है तो सामंती और अमानवीय प्रवृत्ति का होगा और जाति का यादव है तो भ्रष्ट और अपराधी ही होगा। पीपली लाइव भी इसी फॉर्मूले को अपनाती है। राम यादव और भाई ठाकुर के रूप में वर्तमान भारतीय राजनीति के पुरे चरित्र की उल्टी करके रख दी जाती है।
यदि हम फिल्म के कुछ सकारात्मक पहलुओं की बात करें तो नत्था के अम्मा और उसकी पत्नी के नोंक-झोंक पूरी तरह से एक अभावग्रस्त परिवार के सास-बहु के नोंक-झोंक है। यह ऐसा नोक-झोक है जहां रिश्ते भारी और बोझ मालूम पड़ते हैं। अम्मा द्वारा बहु को ‘मरदमार’ और ‘डायन’ कहा जाना एक भारतीय ग्रामीण परिवार की अभावग्रस्ता के कारण ऊपजी आंतरिक और पारंपरिक कलह को दशार्ता है। फिल्म में फोटोग्राफी की सराहना तो होनी ही चाहिए। बकरी के साथ नत्था और बुधिया का पूरे परिवार के साथ वाली फोटो वाकई में ग्रामीण परिवेश की जीवंत तस्वीर है। एक दृश्य भी काफी मारक है जब पूरा मीडिया का लाव-लशकर वापस लौटता है तो पीपली मिनरल वाटर की खाली बॉटलों से पट जाता है। याद कीजिए अमरीकी राष्ट्रपति बुश ने जब भारत दौरा किया था तो वे अपने देश से पानी लेकर आए थे। हमारा सभ्य समाज भी कुछ इसी तरह सोचने लगा है कि हम गांव में गरीबों या दलितों के घर का पानी पिएंगे तो पता नही कोई संक्रमण का सामना करना पड़े। मिनरल वाटर की खाली बॉटलें फिल्म को नई ऊर्जा देती है लेकिन यह बात अलग है कि नाकाफी है। हम प्रतिभाशाली एक्टर रघुवीर यादव की बात करें तो उन्हें यहां बहुत कुछ करने के अवसर नहीं थे। जितने अवसर थे उन्होंने बेहतर किया। लेकिन रघुवीर यादव का नाम आते ही ‘शहीद-ए-मोहब्बत’, ‘अर्थ 1947’ और ‘सलाम बॉम्बे’ जैसी फिल्में याद आने लगती हैं। लेकिन रघुवीर यादव के लिए यह ‘पीपली लाइव’ थी। और ‘पीपली लाइव’ का सच यह है कि मीडिया को नंगा करने के चक्कर में स्वयं भी उतना ही नंगा दिखता है। मतलब न ‘पीपली लाइव’ न मीडिया लाइव बस पीपली पैकेज।
फिल्म में महंगाई कोई मुद्दा नहीं है। लेकिन फिल्म का सबसे लोकप्रिय गीत ‘महंगाई डायन’ महंगाई पर ही टिप्पणी है। यह गीत फिल्म की तारतम्यता को आगे नहीं बढ़ता है। क्योंकि फिल्म के कंटेंट से कोई रिश्ता नहीं है। हां महंगाई डायन गीत का ढोलक और झाल के साथ दृश्य भले ही गांव के खांटी गंवई परिवेश को जीवंत बनाता मालूम पड़ता है। ‘देश मेरा रंगरेज रे बाबू’ गीत भले ही कई विडंबनाओं को समेटे हुए है। फिल्म में कॉस्टयूम डिजाइन सराहनीय है। लोगों के पहनावे बिल्कुल पीपली जैसे लगते हैं। कुल मिलाकर पीपली एक पैकेज सिनेमा है जिसमें पीपली का दर्द नहीं है। बस पीपली एक विषय है जहां मीडिया वालों का अतिरंजित जमावड़ा कुछ दिनों के लिए है।