Monday, January 25, 2010

हिन्दी सिनेमा में हमलोग कहाँ हैं...

यदि कुछ फिल्मों को छोड़ दिया जाए तो यह बात बिल्कुल सत्य है कि वर्तमान दौर में जितनी हिन्दी फिल्में बन रही हैं उनमें न भारत का समाज है, न भारत की समस्याएँ हैं, न भारत का संघर्ष है। यह महत्वपूर्ण सवाल है कि हिन्दी सिनेमा भारतीय समाज, उसकी राजनीति, उसके संघर्ष, उसकी आस्था का कहाँ तक प्रतिनिधित्व करता है? प्रेमचंद ने कभी कहा था कि साहित्य महफिल की तवायफ नहीं है कि मांग के अनुसार काम करे। क्या यही बात कला माध्यम के रूप में सिनेमा के साथ लागू नहीं होती है? हिन्दी फिल्मकारों का एक लोकप्रिय तर्क है कि दर्शक जो पसंद करेंगे वही दिखाएँगे। इस तर्क को ही आधार बनाकर यदि कोई फिल्मकार फिल्म बनाता है तो स्वाभाविक है वह यथास्थिति से टकराने की हिम्मत नहीं रखता है। वह सिनेमा को कला के तौर पर स्वीकार नहीं करता है। सिनेमा, अब तो और हमारे यहाँ व्यवसाय मात्र बनता जा रहा है। हमारे यहाँ कला बोध को, शिक्षा के माध्यम से, प्रचार के माध्यम से, प्रसार के माध्यम से, दर्शकों में जागृत नहीं किया गया। यदि ऐसी स्थिति में दर्शक करण जौहर, डेविड धवन, सुभाष घई तथा चोपड़ा घराने की फिल्मों को पसंद कर रहे हैं तो इसमें दर्शकों पर यह तोहमत नहीं लगाया जा सकता है कि वे ऐसी ही फिल्में पसंद करते हैं। इन निर्देशकों से यह पूछा जाना चाहिए कि इनकी फिल्मों में भारत कहाँ है यदि नहीं है तो इसका औचित्य क्या है? कुछ साल पहले का यह जुमला है कि सिनेमाघरों की टिकट खिड़कियों पर या तो शाहरूख खान बिकता है या सेक्स। शाहरूख खान अभिनीत फिल्मों में यदि ‘स्वदेस’ को छोड़ दिया जाए तो किसी में भी समकालीन ज्वलंत प्रश्नों के लिए कोई जगह नहीं है। हिट होने के तमाम फार्मूलों का इस्तेमाल किया गया है। बावजूद शाहरूख खान का फिल्मों में होना ही व्यवसायिक सफलता का मानक बनता गया।
90 के बाद भारत के विभिन्न क्षेत्रों में परिवर्तन के साथ जो संक्रमण हुए उसके बुरे परिणाम अब खुलकर सामने आ रहे हैं। देश की विभिन्न संस्थाओं का अराजनीतिकरण किया गया है। इसी संदर्भ में रजनी कोठारी कहते हैं “इस सोच के मुताबिक सामाजिक सोच के मायने ही बदल जाते हैं। इसके मुताबिक सामाजिक बदलाव का लक्ष्य ऐसे समाज की रचना होनी चाहिए जिसकी प्रेरक शक्ति लोकतांत्रिक राजनीति नहीं, बल्कि प्रौद्योगिकीय ज्ञान होगी। इसके अनुसार प्रौद्योगिकीय ज्ञान राष्ट्र को शक्तिशाली और महान बनाता है और उसकी एकता को मजबूत करता है। राजनीति की जरूरत सिर्फ इसलिए है कि एक समूह के शासन को बनाए रखा जा सके, भले ही इसके लिए धार्मिक और जातीय अल्पसंख्यकों, सीमांत इलाकों और विभिन्न प्रकार के जनआंदोलनों का दिमाग दुरूस्त करने के उपाय क्यों न करने पड़े या उन्हें खरीदना ही क्यों न पड़े।” विकास के नए माडल में विषमता की खाई लगातार गहरी होती गई और जनता वोट बैंक बनती गई। कृषि की हालत इतनी त्रासद बन गई है कि किसान आत्महत्या करने पर मजबूर हैं। अर्थशास्त्री अशोक मिश्र के अनुसार देश में जो आर्थिक विकास हो रहा है उससे सिर्फ 10 से 15 प्रतिशत लोगों को ही लाभ हुआ है। बाकी के 85 प्रतिशत वृद्धि से अछूते छूट गए हैं। बाल-विवाह, दलित-शोषण, जातीय-भेदभाव तथा लैंगिक भेद आज भी समाज में कायम है। सांप्रदायिकता भी अपने तर्कों के साथ व्यापक रूप में फैल रही है। राजनीति की असफलता हर मोर्चे पर देखी जा सकती है। यदि इन तमाम बातों को छोड़कर हिन्दी सिनेमा मादक गीत-संगीत, अंग-प्रदर्शन, रोमांस, विदेशी लोकेशन आदि को प्राथमिकता देती है तो फिर यह कहना सही ही है कि हिन्दी सिनेमा केवल भारत में दर्शकों के बीच प्रदर्शित किया जाता है, न तो अब भारत में बन रहा न उसमें भारत है।
इस त्रासद माहौल में कुछ फिल्मकार ऐसे भी हैं जो अपनी फिल्मों में सामाजिक प्रतिबद्धता का अनिवार्य रूप से ख्याल रख रहे हैं। सबसे अच्छी बात तो यह है ये सारे फिल्मकार नवयुवक हैं। आशुतोष गोवरीकर ने ‘लगान’ और ‘स्वदेस’ जैसी प्रासंगिक फिल्मों का निर्माण कर उन तर्कों को खारिज किया कि हिन्दी के दर्शक अच्छी फिल्में पसंद नहीं करते हैं। ‘लगान’ तो सामाजिक और राष्ट्रीय सौहार्द का मानवीय और समन्वयकारी स्वरूप पेश करती है। कचड़ा और भुवन जैसे पात्र फिल्म की प्रासंगिकता को दुगुनी कर देते हैं। आशुतोष की फिल्म ‘स्वदेस’ भी ग्रामीण भारत के असली चेहरे को उभारती है तथा संभावनाओं की तलाश करती है। मोहन भार्गव जैसा पात्र ग्रामीणों के दर्द को संजीदगी से समझता है तथा उस पर मरहम लगाता नजर आता है। आशुतोष ‘स्वदेस’ के बारे में कहते हैं लोग राष्ट्रवाद और देशप्रेम के बीच भ्रमित हो गए हैं। जब भी पाकिस्तान के साथ कुछ होता है तभी क्यों हमारा ‘पेट्रियोटिज्म’ जाग उठता है, वह तब कहाँ होता है जब हम निजी जिंदगी में, अपने आस-पास के बदहाली से बेखबर होते हैं और कुछ नहीं सोचते। हम सोचते हैं कि यह हमारा काम नहीं है। दूसरे का काम है। यह जो अपने आस-पास से आँखें मूँदे रहने की मनोवृत्ति है, वह हमारे भीतर घर कर गई है। एक दृश्य है इसमें मोहन कहता है कि कुछ भी जब गलत होता है तो हम एक-दूसरे को ब्लेम करते हैं- इसको ऐसा नहीं करना चाहिए था, उसको वैसा नहीं करना चाहिए था......सरकार को ब्लेम करते हैं सरकार किसी और को।
फिल्म निर्देशक के रूप में मधुर भंडारकर ने भी अपने समय की त्रासदियों को अपनी फिल्मों का विषय बनाया है। इनकी लगभग सारी फिल्में वर्तमान व्यवस्था के दोहरे चरित्र को उजागर करती है। ‘चांदनी बार’, ‘पेज थ्री’, ‘कारपोरेट’, ‘टैफिक सिग्नल’ तथा फैशन उस चमक-दमक को पर्दाफाश करती है जहाँ ऊपर से तो सब कुछ ठीक दिखता है लेकिन अंदर से कितना खोखला है। ‘चांदनी बार’ वैश्याओं की जीवन गाथा को संवेदनशील तरीके से प्रस्तुत करती है तो ‘पेज थ्री’ लोकतंत्र के चौथे खंभे की हकीकतों को बयां करती है। वहीं कारपोरेट शेयर मार्केट तथा उद्योगपतियों के दाँव-पेंच को उजागर करती है। भंडारकर की लगभग सारी फिल्में स्त्रीप्रधान है यह उनकी प्रगतिशीलता की ही पहचान है। भंडारकर का कहना है- ‘‘एक निर्देशक होने के नाते मुझे कुछ तो सोसायटी को देना चाहिए। मैं अपनी फिल्मों के माध्यम से समाज को जागरूक करना चाहता हूँ। मैं ऐसी फिल्में नहीं बनाना चाहता जिसमें चार हीरो और चार हीरोइन हों, छह-सात गाने हों। स्विट्जरलैंड में शूटिंग करूँ। इस टाइप की फिल्म मैं नहीं बनाना चाहता और न ही इस तरह की उम्मीद ही लोग मुझसे रखते हैं।’’
नागेश कुकुनुर की ‘डोर’ भी सामंती सोच को कटघरे में लाती है। सुधीर मिश्रा की ‘हजारों ख्वाहिशों ऐसी’ युवाओं के सपने और उन सपनों को बिखरते दिखाती है। राजकुमार हिरानी की फिल्म मुन्ना भाई एम0बी0बी0एस0 नौकरशाहों की सोच एवं व्यवहार पर सवालिया निशान लगाती है। शेखर कपूर की बैंडिट क्वीन, राकेश ओमप्रकाश मेहरा की ‘रंग दे बसंती’, अनुराग बसु की ‘लाइफ इन मेट्रो’, निशिकांत कामत की मुंबई मेरी जान, नीरज पांडेय की फिल्म ‘अ वेडनेस डे’, सामयिक विडंबनाओं को परदे पर सफलता के साथ उकेरती हैं। वहीं अनुराग कश्यप प्रयोगशील और यथार्थपरक सिनेमाई छवियों के साथ हिन्दी सिनेमा में दस्तक देते हैं।
साल 2009 में हिन्दी फिल्म निर्देशकों ने शायद ही ऐसी कोई फिल्म नहीं बनाई जो कला माध्यम की कसौटियों पर खरी उतरती हो। आर बालकी निर्देशित और अमिताभ बच्चन अभिनित ‘पा’ से उम्मीद की जा रही थी कि प्रोजेरिया बीमारी की त्रासदी और संवेदनशीलता को रूपहले पर्दे पर प्रस्तुत करेंगे लेकिन यह भी मसाला और फार्मूला फिल्म साबित हुई। राजकुमार हिरानी की थ्री इडियट्स मसाला फिल्म होते हुए भी हमारी शैक्षणिक व्यवस्था पर करारा व्यंग्य तो करती ही है। प्रियदर्शन, चोपड़ा बैनर, करण जौहर और इम्तियाज अपने दायरों से बाहर नहीं निकल पा रहें हैं। ‘अजब प्रेम की गजब कहानी’, ‘वांटेड’, ‘लव आजकल’, ‘न्यूयार्क’, ‘ऑल दी बेस्ट’, ‘दे दनादन’ और ‘कमबख्त इश्क’ जैसी विशुद्ध मसाला फिल्में एक हद तक कमाई करने में सफल तो रहीं लेकिन हिन्दी सिनेमा के इतिहास में फालतू फिल्मों की श्रेणी में ही आएंगी।

Thursday, January 14, 2010

पुण्य प्रसून वाजपेयी का साक्षात्कार


एक तरफ गृह मंत्री पी चिदंबरम धमकी दे रहे हैं कि देश के बुद्धिजीवी नक्सलियों के साथ रोमैंटिसिज्म करना बंद करें वहीं दूसरी तरफ यूपीए सरकार में प्रमुख सहयोगी ममता बनर्जी हैं जिनका माओवादियों से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष संबंध हैं। यह क्या माजरा है ?
मैंने जब चिदंबरम साहब से पूछा कि देश के बुद्धिजीवी तो माओवादियों का समर्थन कर रहें हैं तो उन्होंने चुटकी लेते हुए कहा कि बुद्धिजीवी हैं तो ऐसा करेंगे ही। यहाँ बात सिर्फ ममता बनर्जी की नहीं है, वो तो एक प्रतिरुप मात्र हैं। अगर वो ऐसा नहीं करतीं तो कोई और करता। मेरी जानकारी के अनुसार ऐसा पहली बार है जब कांग्रेस नक्सलियों के खिलाफ खुलकर विरोध कर रही है। ऐसा इसलिए बोल रही है क्योंकि 1991 में न्यू इकॉनमी आयी जिसका मुख्य धर्म है मुनाफा कमाना। हर चीज का महत्व पैसे में सिमट गया और इसी के बदौलत सेज आया। अब सेज और नक्सली एक साथ तो नहीं चल सकता है।
हमारे जीवन में सरकार की मौजूदगी का मतलब गरीब के लिए राशन कार्ड हमलोगों के लिए पैन नंबर और लाईसेंस है। इलाज कराने के लिए आपको निजी अस्पताल जाना होगा, शिक्षा के लिए निजी स्कूल जाना होगा, सरकार की कोई योजना आपको घर नहीं दिला सकती है, रोजगार सरकार नही दिलाएगी। सरकार की तमाम योजनाएँ प्राइवेट आस्पेक्ट में चल रही हैं। सरकार और जनता का संबंध पूरी तरह से आर्थिक हो गया है। क्या सरकार की उपस्थिती इतनी ही होनी चाहिए ?
पूंजीवादी व्यवस्था में प्रतिरोध के स्वर के लिए कितनी जगह है? क्या कोई जनआंदोलन इस व्यवस्था में चल सकता है? कभी भूमि सुधार आंदोलन की बात की जाती थी आज सरकार ‘सेज’ ला रही है।
यह पूंजीवादी या सर्वहारावादी की बात नहीं है। आप अचानक नागरिक की जगह उपभोक्ता हो गए। जब हम नागरिक थे तो हमें कुछ अधिकार मिले थे, जो कल्याणकारी राज्य की मुख्य अवधारणा है, लेकिन जब हम उपभोक्ता बन गए और उपभोग नहीं कर रहें हैं तो हम न नागरिक रहे और न ही उपभोक्ता। हम एक फालतू आदमी बन गए। समाज को उपभोक्ता और गैर उपभोक्ता श्रेणियों में बांट दिया गया है। अब सारा समाज उपभोक्ता के लिए चलने लगा है। यह सारी अव्यवस्था 1991 के बाद आई जो धीरे- धीरे राजनीति में भी फैल गई। सारा खेल अब पैसे पर आकर सिमट गया है और जो सत्ता में है वही अब सत्ता में है। पहले लोंगों को आक्रोश आता था लेकिन अब व्यवस्था से उनका मोहभंग हो चुका है। अब हमारे लिए कोई जगह नहीं बची है। क्या कारण है कि छात्रसंघ का चुनाव खत्म करा दिया गया?
मसला नक्सलवाद का नहीं है, मसला उस जमीन का है जहां खनिज है। यह लड़ाई बंजर भूमि या बुंदेलखंड में नहीं लड़ी जाएगी। संयोग से इस दौर में खनिज की जरूरत और आन पड़ी है। खनिज की सीमापार आवाजाही और बढ़ गई है। कुछ दिन बाद शायद एक रिपोर्ट आएगी. जैसे मधु कोड़ा फंसा है सिंहभूम के इलाके से बाहर बॉक्साइट भर-भर के जो ट्रक जाता था। लड़ाई थी मधु कोड़ा की और अर्जुन मुंडा की। एक ट्रक का 10 रूपया और एक ट्रक का 7 रूपया। लड़ाई यह थी कि 10 रूपया कौन लेगा। होते-होते सरकार पलट गई। मधु कोड़ा के पास कितनी संपत्ति है इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि उसने लाइबेरिया में खदान खरीद रखा है। भारत में जो प्राकृतिक संसाधन है उसकी कीमत अगर लगाई जाए तो अंतराष्ट्रीय बाजार में उससे कुछ भी हो सकता है।
मंदी के इस दौर में चिदंबरम पर आईएमएफ, वर्ल्ड बैंक और अमेरिका इन सभी का प्रेशर है। भारत में खनिज सस्ता है, मजदूर सस्ते हैं। इसलिए मंदी से उबरने के लिए इन्हे वैश्विक बाजार में लाने का दबाव है,जिससे पूंजीवादी व्यवस्था गति पकड़ सके। चिदंबरम की हरकतों को देखकर लगता है कि वो इसके पक्ष में हैं। उनके बजट और उनकी इकोनॉमिक पॉलिसी को देखकर यह साफ पता चलता है।

अलग-अलग राज्यों की नक्सल गतिविधियों में आपको क्या अंतर लगता है? झारखंड में कुंदन पाहन या फिर उड़ीसा में सव्यसाची पंडा की बात की जाए तो ये उतने हाईलाईट क्यों नहीं हुए जितना कि एक साधारण कार्यकर्ता छत्रधर महतो इतनी जल्दी हाईलाईट हो जाता है? क्या उनकी भूमिका में अंतर है।
भारतीय राजनीति की एक अच्छी चीज ये है कि आपको वोट चाहिए जिसके लिए आपको जनता के पास जाना ही पड़ेगा। किसी भी राज्य में किसी भी राजनीतिक दल ने सौदेबाजी की क्योंकि ग्रामीणों तक उसकी योजनाएं तो नहीं पहुंचती वह खुद भी नहीं पहुंचता है तो एक सौदेबाजी का रास्ता चाहिए ना। इसलिए ये गठबंधन होते हैं । इस नए दौर में अचानक चिंतन बदल गया है। कल तक हम पढ़ते थे कि हमें जानकारी मिल जाए, लेकिन आज हम पढते हैं क्योंकि हमें नौकरी मिल जाए। इसको प्रोफेशनलिज्म का नाम दिया जाता है जो ठीक नहीं है । हमको रोबोटिक बनाने का काम किया जा रहा है। इसके चलते हमारे इमोशन खत्म हो गए, रिश्ते खत्म हो गए। भारत की जो जरूरत थी परिवारवाद , उसे खत्म कर दिया गया। इस दौर में सबसे ज्यादा गरीब शहरी भारतीय हैं। यहीं पर सबसे ज्यादा गांवों को खत्म कर शहरों को बसाया जा रहा है। सवाल नक्सलवाद का नहीं है। वहां की स्थितियां क्या हैं, यह ज्यादा महत्वपूर्ण है।
आपने कहा कि नक्सलवाद वहीं पनप रहा है जहां खनिज संपदा है लेकिन बिहार के संदर्भ में यह ठीक नहीं है। इसका क्या कारण है?
पहली बात तो यह कि तब बिहार और झारखंड एक था। बिहार में खनिज रहा नहीं इसलिए वहां नक्सलवाद की जड़ें कमजोर पड़ गयीं। बिहार का जो नक्सलवाद था वह भूमि या जाति पर जुड़ा हुआ था। वह इस राजनीति से गायब हो गया। इससे दो चीजों का पता चलता है। पहली स्थिति वह जिसमें राजनीति सौदेबाजी करती थी। दूसरी अब आ गई है जिसमें राजनीति को किसी सौदेबाजी की जरूरत ही नहीं है। यह मजाक की बात थोड़े ही है कि राज ठाकरे जैसे मन चाहे हड़का देता है। इसका मतलब है कि इस राजनीतिक अव्यवस्था में अब लिबरल होने की जरूरत नहीं है। इसको लगता है कि अब हर चीज का अंतिम उपाय पूंजी ही है। देश में 545 सांसद है जिसमें घोषित रूप से 300 से ज्यादा करोड़पति हैं. इस राजनीति में नया ट्रांसफॉरमेशन हुआ है। इसका प्रभाव समाज पर भी पड़ा है, लोंगों पर भी पड़ा है. पिछले दो दशकों में इसका प्रभाव भयानक रूप से देखने को मिला है।
अभी आपने कहा कि राजनीति को अब सौदेबाजी की जरूरत नहीं रह गई है। लेकिन जब हम बंगाल में देखते है तो वहां के कांग्रेसी मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर राय के खिलाफ माओवादियों ने खूनी संघर्ष छेड़ा। ज्योति बसु ने आंख के बदले आंख का नारा दिया और वे अंततः माओवादियों के सहयोग से सत्ता पर काबिज हुए। इसी तरह बंगाल की सत्ता को ममता बनर्जी पाना चाह रही हैं। ऐसा लग रहा है की यदि बंगाल की सत्ता पर काबिज होना है तो नक्सलियों से सहयोग लेना ही होगा। आप क्या सोचते हैं?उस समय लोगों ने सीपीएम पर भरोसा किया। आगे चलकर सीपीएम ने वह मार्ग छोड़ दिया और वह भी कांग्रेसमय हो गयी। अब लोगों को विकल्प के रूप में ममता नजर आ रही हैं। ममता के इस बार का चुनावी घोषणा पत्र और आपातकाल के दौरान सीपीएम के चुनावी घोषणापत्र में कोई अंतर नहीं है। जो बात सीपीएम तीन दशक पहले कह रही थी वही ममता आज कह रही हैं। दरअसल महत्वपूर्ण बात यह है जब सत्ता आपके हाथ में होगी तब आप क्या करेंगे? यदि आज ममता प्रभावी हो रही हैं, वह ईमानदार हैं, तो जनता समझेगी परखेगी। अभी सत्ता का सुख भोगते हुए ममता की सारी रणनीति बंगाल को ही लेकर है। मामला यह है कि आप सत्ता में हैं और आप सत्ता में नहीं है तो दोनों के दृष्टिकोण में अंतर होगा ही, लेकिन जब दोनों सत्ता में होते हैं तो दोनों का दृष्टिकोण एक ही जैसा क्यो हो जाता है? ये कौन सी मजबूरियां है।

क्या भारतीय राजनीति में सौदेबाजी पारस्परिक है ?
हो सकता है यह संसदीय राजनीति की जरूरत हो। अब आप ही बताइए जब कोई चोर, चोरी करते-करते पुलिस बन जाए तो वह वहां भी भ्रष्ट होगा की नहीं।
हाल ही झारखंड में गिरफ्तार हार्डकोर के नक्सली नेता और पूसा यूनिवर्सिटी के साइंटिस्ट रवि शर्मा ने कहा है कि उद्योगपति भी नक्सलियों को चंदा देते हैं। दूसरी तरफ विभिन्न राज्यों में राजनीतिक दलों से सहयोग मिल रहा है तो आखिर इनकी लड़ाई किसके खिलाफ है?
बात केवल चंदा लेने- देने की नहीं है, बात रोटी को लेकर है। हम सिर्फ यहां से बैठे-बैठे कयास लगाते हैं जबकि वे भुक्तभोगी हैं। मूल अंतर यहीं से शुरू होता है और इस अंतर को समझने के लिए हमें वहां खड़ा होना होगा।
झारखंड के पलामू में नक्सलियों द्वारा लेवी लेने की खबर आए दिन आती रहती है। वहीं दूसरी तरफ वहां के आदिवासी भूखमरी से जूझ रहे हैं। इस समस्या को नक्सलियों द्वारा व्यापक पैमाने पर क्यों नहीं उठाया जा रहा है?
आप ऐसा क्यों चाहते हैं? ये तो ठीक वैसा ही है कि मीडिया इन सवालों को क्यों नहीं उठाता है। उसकी अपनी ड्यूटी है जिसे समझने की जरूरत है। कौन लेवी ले रहा है नहीं ले रहा है यह ज्यादा महत्वपू्र्ण नहीं है। महत्वपूर्ण यह है कि अगर इस प्रदेश में सरकार है, अगर आजादी मिली हुई है, बजट इतने हजार करोड़ रूपए का है, अगर इस बजट के तहत कुछ नीतियां बनती है तो वहां के लिए क्यों नहीं बनती ? यदि इससे कोई आक्रोश पनपता है तो इसे जो नाम देना है दे दीजिए आतंकवाद कहिए या नक्सलवाद कहिये।
तो क्या नक्सलियों के पीछे जो हैं वे उपकरण बने हुए हैं?
कौन उपकरण बना है यह कहना तो कठिन है। हो सकता है वह अपनी लड़ाई लड़ रहें हों । यहां से देखने पर लगता है कि वे उपकरण बने हुए हैं। उसके पास कोई विकल्प नहीं है तो क्या करेगा। आप प्रताड़ित होते हैं और यह व्यवस्था न्याय नहीं दे पा रही है तो कहां जाएंगे। एक बड़ी बात यह भी है कि इनकी इकोनॉमी और हमारी इकोनॉमी में आकाश-पाताल का अंतर है। आजादी के 62 साल बात भी जब यह तबका बुनियादी सुविधाओं से वंचित है तो उसके आक्रोश किसी न किसी रूप में सामने आएंगे ही और इसमें बुराई क्या है। यदि इनके आक्रोश पर ही सरकार कुछ बोलती है तो आक्रोश जायज है। देश में इसपर कम से कम बातचीत तो शुरू हुई, अब कैमरे का रुख उस तरफ हुआ तो सही।

सरकार नक्सलियों को देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा बता रही है। क्या वाकई में नक्सलियों के पास इतनी ताकत आ गई है ?
पहली बार 2006 में सरकार ने नक्सलयों को आंतरिक सुरक्षा के लिए खतरा बताया। ये कहना कि इनके पास बड़ी ताकत है बकवास है। यदि सरकार चाहे तो उन्हें चंद घंटों में तहस-नहस कर सकती है। ये सब बेवकूफ बनाने की बात है। लेकिन इसका दूसरा पक्ष भी है। इनके साथ जो लोग हैं उनकी तादात सेना से भी ज्यादा है उनका क्या करेंगे? क्या उनका खात्मा कर देंगे? आप जब उन क्षेत्रों में जायेंगे तो पता चलेगा की वो किस हालत में रह रहें हैं। राजधानी एक्सप्रेस से खाना लूटा गया। जब आनंदों चैनल ने इनकी झोपड़ियों को दिखाया तो उसमे कुछ भी नहीं था, बर्तन तक नहीं था।
बंगाल में जब माओवादियों ने अगवा पुलिस ऑफिसर यतीन्द्रनाथ को बंधक बनाने के बाद रिहा किया तो उनके सीने पर प्रीजनर ऑफ वार यानी युद्धबंदी लिखा था। इसका क्या अर्थ था? क्या वे सच में युद्ध के लिए तैयार हैं?
इसका जो मतलब हम समझ पाए वो ये है की वे भी अब तैयार हैं और सरकार भी सही में उनकी घेरेबंदी कर रही है। लेकिन होता ये है की जब आप किसी को मरने जायेंगे तो काउंटर रेफ्लेक्ट होगा ही। पंजाब में भी यही हुआ था। नक्सलियों ने इस घटना के बाद कहा भी की हमारे पास युद्ध के अलावा अब कोई चारा नहीं बचा है। सत्ता वर्ग को चाहिए की वो अपने नागरिकों को भरोसे में लेकर बातचीत करे। माहौल तो आपको तैयार करना ही पड़ेगा।

कांग्रेस के नेतृत्व वाले यूपीए गठबंधन के हाथ में जब से सत्ता आई है तब से कांग्रेस लेफ्ट टू सेंटर अप्रोच लेकर चल रही है। नरेगा जैसी योजना इसका उदाहरण है। क्या आपको लगता है की यह सरकार जनकल्याणकारी राज्य की राह पर चलना चाह रही है?


बात को सिर्फ एक योजना के द्वारा नहीं माना जा सकता। सरकार सम्पूर्णता में जो नीतियाँ बना रही है उसमे बहुसंख्यक तबका कितना फिट बैठ रहा है। आप लेफ्ट टू सेंटर कीजिये या राईट टू सेंटर सरकार चलाना एक स्ट्रेटजी है और देश चलाना एक जरुरत। आज स्ट्रेटजी इतनी महत्वपूर्ण हो गयी है की जरूरतें खत्म हो गयीं हैं। आज अगर लेफ्ट फिट है तो कल मायावती फिट होंगी। यह एक शतरंज के खेल की तरह है। इसका कोई मतलब ही नहीं है। सत्ता तो यही चाहती है की आप इस खेल में फंसे रहें। आप हर चीज को पॉलिटिक्स के नजरिये से मत देखिये। खासकर पत्रकार को चाहिए की वो चीजों को सरकार की नजर से नहीं बल्कि जनता की नजर से देखे। अगर आप पॉलिटिक्स के नजरिये से मुद्दों को देखेंगे तो आप पॉलिटिकल हो जायेंगे। हम जो कहेंगे वह सौ फीसदी सही नहीं है लेकिन पॉलिटिक्स के नजरिये से कहेंगे तो वह सौ फीसदी गलत हो सकता है।
नक्सलवाद के प्रति मीडिया का रुख कैसा है ? क्या सारे पक्षों को सामने लाने के लिए पर्याप्त जगह मिल पा रही है या यहाँ भी चीजें छुपाई जा रहीं हैं ?

मीडिया एक बिजनस है। टेलीविजन तो विशुद्ध रूप से बिजनस का माध्यम है। टेलीविजन पत्रकारिता के लिए नहीं आया है। कोई भी चीज प्रोडक्ट तभी होता है जब वो अपने चरित्र को जीता है। एयरकंडीशनर ठंडी हवा देगा तभी वो एयरकंडीशनर होगा। यही उसका चरित्र है। टेलीविजन पत्रकारिता का माध्यम हो ही नहीं सकता है। यह इस मॉडल में फिट ही नहीं बैठता है।

कल को अगर केंद्र सरकार अलग-अलग राज्यों में नक्सलियों के खिलाफ कोई कार्रवाई करती है तो क्या राज्य सरकारें उसकी अनुमति देंगी?

कोई कार्रवाई नहीं होने वाली है। सब प्रोपेगंडा है। हर राज्य में अलग-अलग राजनीतिक परिस्थितियां हैं। ऐसे में कोई भी राज्य सरकार खुले रूप से अनुमति नहीं देगी। सबकी पहली जरूरत सत्ता में बने रहना है। किसी भी व्यक्ति का चरित्र उसके जॉब में मत देखिये बल्कि इससे इतर खोजिये। सरकार का चरित्र और जॉब चूँकि एक ही है इसलिए सब कुछ साफ है। सारा राजनीतिक खेल है।

2008 में कानू सान्याल ने एक इंटरव्यू के दौरान कहा था की आंध्र प्रदेश, झारखण्ड और छत्तीसगढ़ राज्यों में जो हथियारबंद आन्दोलन चल रहा है वह नक्सली आन्दोलन नहीं है बल्कि एक टेरर कैम्पेन है। एक आन्दोलन का जनक ऐसा कह रहा है इस बारे में आपकी क्या राय है?

देखिये सबसे पहली बात यह है की आज के सन्दर्भ में कानू सान्याल का कोई महत्व नहीं रहा है। आज के आन्दोलन का स्वरुप और आयाम काफी बदल चुका है। आज उनमें जबरदस्ती कुछ खोजना ठीक नहीं है। जिस समय उनकी प्रासंगिकता थी वह समय बिलकुल अलग था। आज बात सिर्फ इतनी सी है की भूखे लोग मर रहें हैं। वहां तक रोटी पहुंचा दीजिये सबकुछ अपने आप ठीक हो जायेगा। सारे वाद और विचारधारा खत्म हो जायेंगे।

Wednesday, January 13, 2010

नीम का पेड़




प्रकृति से संस्कृति का संबंध गहरा होता है। वैसे तो दुनिया की प्रत्येक संस्कृति, प्रकृति से कदमताल मिलाते हुए ही विकसित हुई है। लेकिन भारतीय संस्कृति और प्रकृति का संबंध अत्यंत गहरा है। नदी, पहाड़, जंगल, झरना से अलग यहां भी संस्कृतिक गतिविधियों की कल्पना ही नहीं की जा सकती। प्रकृति में कुछ खास उपादानों का तो हमारी संस्कृति में इतना महत्व है कि बिना इसके जीवन शुरु होना कठिन लगता है। नदियों में गंगा का, पर्वतों में हिमालय का, पक्षियों में तोता का, इसी प्रकार पेडों में नीम का जो महत्व है उसका कोई विकल्प नहीं हो सकता।
बचपन में जब दादी दातून लाने को कहती और दातून बगल के बगीचे से शीशम का ला देता तो दादी कहती थी ‘‘धत पगले दातून ये थोड़े होता है। दातून तो नीम का होता है।’’ फिर दौड़े -दौड़े जाता और नीम से तोड़ लाता था। लेकिन मन में एक कौतूहल बना रहता कि आखिर दातून नीम का ही क्यों होता है? तो एक दातून अपने मुँह में भी दाँतों तले दबा लिया। अचानक मुंह से आवाज निकली बाप रे बाप !छी बुढ़िया कहती है दातून नीम का होता है ! पूरा मुंह अजीब तीखा लगने लगता। उल्टी-उल्टी मन करने लगता था। घर में चुपके से रसोई में जाकर एक मुट्ठी चीनी मुंह में डाल लेता, तब जाकर नीम के आतंक से मुक्ति मिलती थी। लेकिन तब मुझे पता नहीं था कि ये बचपन की कोमलता के कारण है, जब मिठाईयां और टॅाफी पहली पसंद हुआ करती थी। नीम का आतंक कुछ ही समय बाद आकर्षण में तब्दील हो गया। बचपन की स्मृतियों में नीम की पत्तियां, पत्तियों का घोल ,दातून तथा उसकी शाखा के छालो के घोल के लिए जगह भी उतनी ही है जितनी कि बाबा और दादी के लिए। इंसान की स्मृतियों में नीम का पेड़ एक अहम् गवाह के रुप में होता है। हमारे परिवेश में कुछ स्थान तो नीम के पेड़ के लिए निश्चित होते हैं। देवी जी के मंदिर के पास तो नीम का पेड़ होना ही है। गाँव में कुएं के पास, चैपालों पर तथा घर के आस-पास बागवानी में भी नीम का पेड़ प्रमुखता के साथ उपस्थित रहता है। हिन्दू मान्यताओं में खास कर के जितने भी देवियों के लिए गीत हैं उनमें नीम का वर्णन बड़े रचनात्मकता के साथ मिलता है। चैत में नीम का दातून गांव के बुर्जूग आज भी तोड़ने से मना करते हैं। उनका मानना है कि चैत में देवियों का वास नीम पर हो जाता है।चैत में ऐसे भी नीम की हरियाली शबाब पर होती है। उसके फूल की खुशबू से आस-पास का पूरा परिवेश प्रसन्नचित नजर आता है।
युवा फिल्म का गीत ‘कभी नीम-नीम कभी शहद-शहद’ में नीम को शहद के विपरीत दिखलाया गया है लेकिन यह विभेद केवल स्वाद के स्तर पर ही हो सकता है । जब औषधिय गुणों की बात आएगी तो नीम ,शहद से बीस ही पड़ेगा। इस गाने में यदि नीम, शहद के विपरीत है तो इस पर सवाल उठाना ज्यादा अप्रासंगिक नहीं होगा। शहद का निर्माण जिन फूलों के मकरंदों से होता है क्या उनमें नीम के फूल का योगदान नहीं होता है ? अब कौन कहेगा कि निबौरी नीम का ही फल है ! बचपन में निबौरी खाते समय यह बात हमेशा जेहन में रहती थी कि बीज पेट में न जाए । इतनी सावधानी इसलिए रहती थी कि बीज पेट में जाने के बाद जम जाएगा। निबौरी की मिठास आज भी जीभ को ललचा देती है ।
अब जिस वृक्ष के साथ इतना सब कुछ जुड़ा हो वह साहित्यकारों को सहज ही आकर्षित कर लेगा। राही मासूम रजा के उपन्यास का ही नाम है ‘नीम का पेड़’। रजा का नीम महत्वपूर्ण गवाह के रुप में है जो अतीत को संवेदनशीलता के साथ बयां करता है । कवि केदारनाथ सिंह की कविता में भी नीम उन मधुर स्मृतियों को संजोए हुए है जो कालचक्र को पीछे घुमाने में सफल होता है।
खेत जग पड़े थे
पत्तों से फूट रही थी चैत के शुरु की
हल्की-हल्की लाली
सोचा, मौसम बढ़ियां है
चलो तोड़ लाएं नीम के दो-चार
हरे-हरे छरके

मैं तो उन्हें भूल चुका था
पर मेरे दांतों को वे अब भी
बहुत याद आते थे
गांवों में नीम के पेड़ से एक रोमांचक दृश्य बनता था। सावन में तो यह दृश्य और मनभावन लगता था। नीम के पेड़ की झूकी टहनियों में लगे सावन के झूले, झूले में झूलते हुए किशोरियों के कंठ से निकलते मौसमी गीत के स्वर, आस-पास बंधी गायों और भैंसों की जुगाली तथा रंभाना साथ में पक्षियों का कलरव ग्रामीण परिवेश के मनमोहक छटा का अनुपम दृश्य हुआ करता था। ऐसा नहीं है कि यह दृश्य अब भारत के गांवों में नहीं मिलता है। मिलता है लेकिन बहुत कम। तथाकथित विकास ,आधुनिकीकरण तथा बाजार के बढ़ते प्रभाव ने इन गतिविधियों को पिछड़ेपन का प्रतीक जैसा बना दिया। अब तो गांवों में भी लोग टूथब्रश तथा पेस्ट का इस्तेमाल करने लगे हैं। दातून गरीबों और कम पढ़े-लिखे लोगों के लिए है ऐसा मान लिया गया। दूसरी तरफ विकास की आंधी में पेड़ और जंगलों का तेजी से ह्रास हुआ। नीम भी इससे अछूता नहीं रहा। नीम की महता को हमारी व्यवस्था भूलती गयी जो कि हमारी संस्कृति में सदियों से रचा- बसा था । जबकि विदेशी नजरें नीम पर लगी हुई थी । अंततः अमेरिका ने कहा कि नीम पेटेंट कर लिया गया । मतलब नीम और उससे बने प्रत्येक उत्पाद पर अमेरिका अपने हिसाब से टैक्स लगा सकता है । अब नीम पर भारत अपना बुनियादी हक नहीं जता सकता है।
बाजार मुनाफे के लिए हर चीज को भूनाना जानता है। बाजार इस बात को अच्छी तरह समझता है कि सांस्कृतिक व धार्मिक मिथकों के साथ लोगों का कितना आत्मीय एवं विश्वसनीय लगाव होता है। आज साबुन, सैंपू, क्रीम, दवाई सबमें नीम के औषधिय गुणों के होने का दावा किया जा रहा है। नीम ‘हर्बल’का पर्याय तो बन गया।लेकिन क्या हमारी संस्कृति में नीम का महत्व बस इतना ही था?

Tuesday, January 5, 2010

हमारी व्यवस्था जिन्हें इडियट्स कहती है...


.समय के साथ शब्दों के अर्थ बदलते हैं किसी का अर्थविस्तार तो किसी का अर्थसंकोच। आज कोई जब बुद्धिजीवी बोलता है तो एक ऐसी छवि बनती है जिसमें पर्याप्त जटिलता, कुटिलता तथा बने बनाए रास्तों पर चलने वाले मुसाफिर जैसे गुण हों। वहीं इडियट का अर्थविस्तार हो गया है। दरअसल यह अर्थविस्तार आश्चर्यचकित नहीं करता है क्योंकि हमारी व्यवस्था कुछ निर्धारित मानदंडो के आधार पर ही लोंगो को इडियट घोषित करती है। लेकिन ये मानदंड कितने विवेकशील हैं महत्वपूर्ण बात यह है।
जिसे हम इडियट कहते हैं उसमें एक किस्म का पागलपन होता है, चीजों को खारिज करने का माद्दा होता है। जिसे हम पागलपन कह रहे हैं वही व्यक्ति को रचनात्मक बनाता है और खारिज करने का माद्दा, मौलिक । यह रचनात्मकता और मौलिकता स्थापित मानदंडो को चुनौती देती है जिसे लोग डाइजेस्ट करने में असहज महसूस करते हैं। लोगों को लगता है कि यह बहक गया है और तमाम तरह की चाबुकें लगायी जाने लगती हैं। उत्तर आधुनिक विचारधारा इसी चाबुक को खारिज करती है और पागलपन को पर्याप्त स्पेस देती है, पनपने के लिए।
राजकुमार हिरानी की फिल्म ‘थ्री इडियट्स’ इन्हीं चाबुकों को चुनौती देती है तथा पागलपन को परिपक्व होने तक उचित माहौल। रणछोड़ दास ( आमिर खान ) जीवन के स्टीरोयोटाइप आपाधापी के रण को छोड़ता है न कि अपनी मौलिक रचनात्मक और नवयुवा सुलभ जिज्ञासाओं और कौतुहलों के रण को। वह ज्ञान की जटिलताओं में नहीं उलझता है बल्कि मानवीय गतिविधियों से ही ज्ञान को आत्मसात करता है। रणछोड़ दास खुद को समझता है कि उसकी असली और मौलिक शक्ति क्या है? उसे हमारी शैक्षणिक व्यवस्था का अप्रासांगिक और गैररचनात्मक दबाव कतई पसंद नहीं है। वह अपने दोस्त राजु (शरमन जोशी ) और फरहान (आर माधवन) को भी असली क्षमता से रूबरू करवाता है। राजू एक निम्न मध्यवर्गीय परिवार का हिस्सा है। एक तरफ वह परिवार की आर्थिक मजबूरी के कारण तथा दूसरी तरफ अप्रासंगिक हो चुकी शैक्षणिक व्यवस्था के अमानुषिक दबाव के कारण खुल कर कुछ नहीं कर पाता है।
फरहान की रूचि तथा दक्षता फोटोग्राफी में है जबकि माता-पिता उसे इंजीनियर बनाने पर तुले हैं। फरहान फिल्म में एक जगह कहता है कि ‘साला मुझसे किसी ने पूछा तक नहीं कि तुम्हें क्या बनना है?’ क्या हमारे समाज में यह स्थिति नहीं है कि बच्चे के जन्म लेते ही अभिभावक डॉक्टर, इंजीनियर बनाने का दबाव बनाने लगते हैं। आज हमारे समाज में यह हकीकत है कि बच्चों से अभिभावकों की अपेक्षाएं आसामान छूती हैं। इनकी अपेक्षाओं को एक हद तक उनकी मजबूरियों से जस्टीफाई कर सकते हैं, लेकिन यह बच्चों पर कहर बनकर टूटती है। उनका बचपना, मौलिकता और रचनात्मकता समय के साथ कुंद होते जाते हैं और अंततः भेड़ चाल में शामिल हो जाते हैं।
चूंकि सिनेमा एक दृश्य माध्यम है इसलिए यहां संवाद से ज्यादा दृश्य और भंगिमाओं की मांग होती है। य़दि 44 साल के आमिर खान इस फिल्म में 22 साल के रणछोड़ दास के चरित्र में पूरी तरह से फिट बैठते हैं तो अपनी भंगिमाओं के कारण। आमिर खान एक काबिल अभिनेता हैं जो इससे पूर्व की फिल्में ‘तारे जमीं’ पर और ‘लगान’ में अपनी काबिलीयत दिखा चुके हैं।
निर्देशक राजकुमार हिरानी अब तक ‘थ्री इडियट्स’ सहित तीन फिल्में बना चुके हैं- ‘मुन्ना भाई एमबीबीएस’ और ‘लगे रहो मुन्ना भाई’ इससे पहले की दो फिल्में हैं। दोनों अपने आप में कामयाब और काबिलेतारीफ। ‘मुन्ना भाई एमबीबीएस’ और ‘थ्री इडियट्स’ भारतीय एजुकेशन सिस्टम को कटघरे में खड़ी करती हैं और कई सवाल छोड़ जाती हैं जिसका जबाव अब तक हमारी व्यवस्था के पास नहीं है। राजकुमार हिरानी कहते हैं कि ‘थ्री इडियट्स’ केवल शैक्षणिक व्यवस्था की विसंगतियों पर ही नहीं बल्कि अभिभावकों की गैर वाजिब अपेक्षाओं की भी खबर लेती है।
‘थ्री इडियट्स’ को देखते हुए आमिर खान की ‘तारे जमीं पर’ फिल्म बरबस याद आती है, लेकिन जल्दी ही पता चल जाता है यह फिल्म उच्च शिक्षा को कटघरे में लाती है जबकि ‘तारे जमीं पर’ प्राथमिक शिक्षा को। हिरानी ‘मुन्ना भाई एमबीबीएस’ के माध्यम से दर्शकों को जादू की झप्पी दिलाते हैं तो ‘लगे रहो मुन्ना भाई’ के माध्यम से नए संदर्भ में गांधीगिरी को परोसते हैं वहीं ‘थ्री इडियट्स’ के माध्यम से आल ईज वेल की मौलिक परिकल्पना पेश करते हैं। यह फिल्म बड़े जोरदार तरीके से बताती है कि किताब से ज्ञान नहीं मिलता है बल्कि ज्ञान से किताबें लिखी जाती हैं।