Wednesday, January 13, 2010

नीम का पेड़




प्रकृति से संस्कृति का संबंध गहरा होता है। वैसे तो दुनिया की प्रत्येक संस्कृति, प्रकृति से कदमताल मिलाते हुए ही विकसित हुई है। लेकिन भारतीय संस्कृति और प्रकृति का संबंध अत्यंत गहरा है। नदी, पहाड़, जंगल, झरना से अलग यहां भी संस्कृतिक गतिविधियों की कल्पना ही नहीं की जा सकती। प्रकृति में कुछ खास उपादानों का तो हमारी संस्कृति में इतना महत्व है कि बिना इसके जीवन शुरु होना कठिन लगता है। नदियों में गंगा का, पर्वतों में हिमालय का, पक्षियों में तोता का, इसी प्रकार पेडों में नीम का जो महत्व है उसका कोई विकल्प नहीं हो सकता।
बचपन में जब दादी दातून लाने को कहती और दातून बगल के बगीचे से शीशम का ला देता तो दादी कहती थी ‘‘धत पगले दातून ये थोड़े होता है। दातून तो नीम का होता है।’’ फिर दौड़े -दौड़े जाता और नीम से तोड़ लाता था। लेकिन मन में एक कौतूहल बना रहता कि आखिर दातून नीम का ही क्यों होता है? तो एक दातून अपने मुँह में भी दाँतों तले दबा लिया। अचानक मुंह से आवाज निकली बाप रे बाप !छी बुढ़िया कहती है दातून नीम का होता है ! पूरा मुंह अजीब तीखा लगने लगता। उल्टी-उल्टी मन करने लगता था। घर में चुपके से रसोई में जाकर एक मुट्ठी चीनी मुंह में डाल लेता, तब जाकर नीम के आतंक से मुक्ति मिलती थी। लेकिन तब मुझे पता नहीं था कि ये बचपन की कोमलता के कारण है, जब मिठाईयां और टॅाफी पहली पसंद हुआ करती थी। नीम का आतंक कुछ ही समय बाद आकर्षण में तब्दील हो गया। बचपन की स्मृतियों में नीम की पत्तियां, पत्तियों का घोल ,दातून तथा उसकी शाखा के छालो के घोल के लिए जगह भी उतनी ही है जितनी कि बाबा और दादी के लिए। इंसान की स्मृतियों में नीम का पेड़ एक अहम् गवाह के रुप में होता है। हमारे परिवेश में कुछ स्थान तो नीम के पेड़ के लिए निश्चित होते हैं। देवी जी के मंदिर के पास तो नीम का पेड़ होना ही है। गाँव में कुएं के पास, चैपालों पर तथा घर के आस-पास बागवानी में भी नीम का पेड़ प्रमुखता के साथ उपस्थित रहता है। हिन्दू मान्यताओं में खास कर के जितने भी देवियों के लिए गीत हैं उनमें नीम का वर्णन बड़े रचनात्मकता के साथ मिलता है। चैत में नीम का दातून गांव के बुर्जूग आज भी तोड़ने से मना करते हैं। उनका मानना है कि चैत में देवियों का वास नीम पर हो जाता है।चैत में ऐसे भी नीम की हरियाली शबाब पर होती है। उसके फूल की खुशबू से आस-पास का पूरा परिवेश प्रसन्नचित नजर आता है।
युवा फिल्म का गीत ‘कभी नीम-नीम कभी शहद-शहद’ में नीम को शहद के विपरीत दिखलाया गया है लेकिन यह विभेद केवल स्वाद के स्तर पर ही हो सकता है । जब औषधिय गुणों की बात आएगी तो नीम ,शहद से बीस ही पड़ेगा। इस गाने में यदि नीम, शहद के विपरीत है तो इस पर सवाल उठाना ज्यादा अप्रासंगिक नहीं होगा। शहद का निर्माण जिन फूलों के मकरंदों से होता है क्या उनमें नीम के फूल का योगदान नहीं होता है ? अब कौन कहेगा कि निबौरी नीम का ही फल है ! बचपन में निबौरी खाते समय यह बात हमेशा जेहन में रहती थी कि बीज पेट में न जाए । इतनी सावधानी इसलिए रहती थी कि बीज पेट में जाने के बाद जम जाएगा। निबौरी की मिठास आज भी जीभ को ललचा देती है ।
अब जिस वृक्ष के साथ इतना सब कुछ जुड़ा हो वह साहित्यकारों को सहज ही आकर्षित कर लेगा। राही मासूम रजा के उपन्यास का ही नाम है ‘नीम का पेड़’। रजा का नीम महत्वपूर्ण गवाह के रुप में है जो अतीत को संवेदनशीलता के साथ बयां करता है । कवि केदारनाथ सिंह की कविता में भी नीम उन मधुर स्मृतियों को संजोए हुए है जो कालचक्र को पीछे घुमाने में सफल होता है।
खेत जग पड़े थे
पत्तों से फूट रही थी चैत के शुरु की
हल्की-हल्की लाली
सोचा, मौसम बढ़ियां है
चलो तोड़ लाएं नीम के दो-चार
हरे-हरे छरके

मैं तो उन्हें भूल चुका था
पर मेरे दांतों को वे अब भी
बहुत याद आते थे
गांवों में नीम के पेड़ से एक रोमांचक दृश्य बनता था। सावन में तो यह दृश्य और मनभावन लगता था। नीम के पेड़ की झूकी टहनियों में लगे सावन के झूले, झूले में झूलते हुए किशोरियों के कंठ से निकलते मौसमी गीत के स्वर, आस-पास बंधी गायों और भैंसों की जुगाली तथा रंभाना साथ में पक्षियों का कलरव ग्रामीण परिवेश के मनमोहक छटा का अनुपम दृश्य हुआ करता था। ऐसा नहीं है कि यह दृश्य अब भारत के गांवों में नहीं मिलता है। मिलता है लेकिन बहुत कम। तथाकथित विकास ,आधुनिकीकरण तथा बाजार के बढ़ते प्रभाव ने इन गतिविधियों को पिछड़ेपन का प्रतीक जैसा बना दिया। अब तो गांवों में भी लोग टूथब्रश तथा पेस्ट का इस्तेमाल करने लगे हैं। दातून गरीबों और कम पढ़े-लिखे लोगों के लिए है ऐसा मान लिया गया। दूसरी तरफ विकास की आंधी में पेड़ और जंगलों का तेजी से ह्रास हुआ। नीम भी इससे अछूता नहीं रहा। नीम की महता को हमारी व्यवस्था भूलती गयी जो कि हमारी संस्कृति में सदियों से रचा- बसा था । जबकि विदेशी नजरें नीम पर लगी हुई थी । अंततः अमेरिका ने कहा कि नीम पेटेंट कर लिया गया । मतलब नीम और उससे बने प्रत्येक उत्पाद पर अमेरिका अपने हिसाब से टैक्स लगा सकता है । अब नीम पर भारत अपना बुनियादी हक नहीं जता सकता है।
बाजार मुनाफे के लिए हर चीज को भूनाना जानता है। बाजार इस बात को अच्छी तरह समझता है कि सांस्कृतिक व धार्मिक मिथकों के साथ लोगों का कितना आत्मीय एवं विश्वसनीय लगाव होता है। आज साबुन, सैंपू, क्रीम, दवाई सबमें नीम के औषधिय गुणों के होने का दावा किया जा रहा है। नीम ‘हर्बल’का पर्याय तो बन गया।लेकिन क्या हमारी संस्कृति में नीम का महत्व बस इतना ही था?

2 comments:

रजनीश सिंह said...
This comment has been removed by the author.
Anonymous said...

bahut accha likha hai.