Thursday, January 14, 2010
पुण्य प्रसून वाजपेयी का साक्षात्कार
एक तरफ गृह मंत्री पी चिदंबरम धमकी दे रहे हैं कि देश के बुद्धिजीवी नक्सलियों के साथ रोमैंटिसिज्म करना बंद करें वहीं दूसरी तरफ यूपीए सरकार में प्रमुख सहयोगी ममता बनर्जी हैं जिनका माओवादियों से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष संबंध हैं। यह क्या माजरा है ?
मैंने जब चिदंबरम साहब से पूछा कि देश के बुद्धिजीवी तो माओवादियों का समर्थन कर रहें हैं तो उन्होंने चुटकी लेते हुए कहा कि बुद्धिजीवी हैं तो ऐसा करेंगे ही। यहाँ बात सिर्फ ममता बनर्जी की नहीं है, वो तो एक प्रतिरुप मात्र हैं। अगर वो ऐसा नहीं करतीं तो कोई और करता। मेरी जानकारी के अनुसार ऐसा पहली बार है जब कांग्रेस नक्सलियों के खिलाफ खुलकर विरोध कर रही है। ऐसा इसलिए बोल रही है क्योंकि 1991 में न्यू इकॉनमी आयी जिसका मुख्य धर्म है मुनाफा कमाना। हर चीज का महत्व पैसे में सिमट गया और इसी के बदौलत सेज आया। अब सेज और नक्सली एक साथ तो नहीं चल सकता है।
हमारे जीवन में सरकार की मौजूदगी का मतलब गरीब के लिए राशन कार्ड हमलोगों के लिए पैन नंबर और लाईसेंस है। इलाज कराने के लिए आपको निजी अस्पताल जाना होगा, शिक्षा के लिए निजी स्कूल जाना होगा, सरकार की कोई योजना आपको घर नहीं दिला सकती है, रोजगार सरकार नही दिलाएगी। सरकार की तमाम योजनाएँ प्राइवेट आस्पेक्ट में चल रही हैं। सरकार और जनता का संबंध पूरी तरह से आर्थिक हो गया है। क्या सरकार की उपस्थिती इतनी ही होनी चाहिए ?
पूंजीवादी व्यवस्था में प्रतिरोध के स्वर के लिए कितनी जगह है? क्या कोई जनआंदोलन इस व्यवस्था में चल सकता है? कभी भूमि सुधार आंदोलन की बात की जाती थी आज सरकार ‘सेज’ ला रही है।
यह पूंजीवादी या सर्वहारावादी की बात नहीं है। आप अचानक नागरिक की जगह उपभोक्ता हो गए। जब हम नागरिक थे तो हमें कुछ अधिकार मिले थे, जो कल्याणकारी राज्य की मुख्य अवधारणा है, लेकिन जब हम उपभोक्ता बन गए और उपभोग नहीं कर रहें हैं तो हम न नागरिक रहे और न ही उपभोक्ता। हम एक फालतू आदमी बन गए। समाज को उपभोक्ता और गैर उपभोक्ता श्रेणियों में बांट दिया गया है। अब सारा समाज उपभोक्ता के लिए चलने लगा है। यह सारी अव्यवस्था 1991 के बाद आई जो धीरे- धीरे राजनीति में भी फैल गई। सारा खेल अब पैसे पर आकर सिमट गया है और जो सत्ता में है वही अब सत्ता में है। पहले लोंगों को आक्रोश आता था लेकिन अब व्यवस्था से उनका मोहभंग हो चुका है। अब हमारे लिए कोई जगह नहीं बची है। क्या कारण है कि छात्रसंघ का चुनाव खत्म करा दिया गया?
मसला नक्सलवाद का नहीं है, मसला उस जमीन का है जहां खनिज है। यह लड़ाई बंजर भूमि या बुंदेलखंड में नहीं लड़ी जाएगी। संयोग से इस दौर में खनिज की जरूरत और आन पड़ी है। खनिज की सीमापार आवाजाही और बढ़ गई है। कुछ दिन बाद शायद एक रिपोर्ट आएगी. जैसे मधु कोड़ा फंसा है सिंहभूम के इलाके से बाहर बॉक्साइट भर-भर के जो ट्रक जाता था। लड़ाई थी मधु कोड़ा की और अर्जुन मुंडा की। एक ट्रक का 10 रूपया और एक ट्रक का 7 रूपया। लड़ाई यह थी कि 10 रूपया कौन लेगा। होते-होते सरकार पलट गई। मधु कोड़ा के पास कितनी संपत्ति है इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि उसने लाइबेरिया में खदान खरीद रखा है। भारत में जो प्राकृतिक संसाधन है उसकी कीमत अगर लगाई जाए तो अंतराष्ट्रीय बाजार में उससे कुछ भी हो सकता है।
मंदी के इस दौर में चिदंबरम पर आईएमएफ, वर्ल्ड बैंक और अमेरिका इन सभी का प्रेशर है। भारत में खनिज सस्ता है, मजदूर सस्ते हैं। इसलिए मंदी से उबरने के लिए इन्हे वैश्विक बाजार में लाने का दबाव है,जिससे पूंजीवादी व्यवस्था गति पकड़ सके। चिदंबरम की हरकतों को देखकर लगता है कि वो इसके पक्ष में हैं। उनके बजट और उनकी इकोनॉमिक पॉलिसी को देखकर यह साफ पता चलता है।
अलग-अलग राज्यों की नक्सल गतिविधियों में आपको क्या अंतर लगता है? झारखंड में कुंदन पाहन या फिर उड़ीसा में सव्यसाची पंडा की बात की जाए तो ये उतने हाईलाईट क्यों नहीं हुए जितना कि एक साधारण कार्यकर्ता छत्रधर महतो इतनी जल्दी हाईलाईट हो जाता है? क्या उनकी भूमिका में अंतर है।
भारतीय राजनीति की एक अच्छी चीज ये है कि आपको वोट चाहिए जिसके लिए आपको जनता के पास जाना ही पड़ेगा। किसी भी राज्य में किसी भी राजनीतिक दल ने सौदेबाजी की क्योंकि ग्रामीणों तक उसकी योजनाएं तो नहीं पहुंचती वह खुद भी नहीं पहुंचता है तो एक सौदेबाजी का रास्ता चाहिए ना। इसलिए ये गठबंधन होते हैं । इस नए दौर में अचानक चिंतन बदल गया है। कल तक हम पढ़ते थे कि हमें जानकारी मिल जाए, लेकिन आज हम पढते हैं क्योंकि हमें नौकरी मिल जाए। इसको प्रोफेशनलिज्म का नाम दिया जाता है जो ठीक नहीं है । हमको रोबोटिक बनाने का काम किया जा रहा है। इसके चलते हमारे इमोशन खत्म हो गए, रिश्ते खत्म हो गए। भारत की जो जरूरत थी परिवारवाद , उसे खत्म कर दिया गया। इस दौर में सबसे ज्यादा गरीब शहरी भारतीय हैं। यहीं पर सबसे ज्यादा गांवों को खत्म कर शहरों को बसाया जा रहा है। सवाल नक्सलवाद का नहीं है। वहां की स्थितियां क्या हैं, यह ज्यादा महत्वपूर्ण है।
आपने कहा कि नक्सलवाद वहीं पनप रहा है जहां खनिज संपदा है लेकिन बिहार के संदर्भ में यह ठीक नहीं है। इसका क्या कारण है?
पहली बात तो यह कि तब बिहार और झारखंड एक था। बिहार में खनिज रहा नहीं इसलिए वहां नक्सलवाद की जड़ें कमजोर पड़ गयीं। बिहार का जो नक्सलवाद था वह भूमि या जाति पर जुड़ा हुआ था। वह इस राजनीति से गायब हो गया। इससे दो चीजों का पता चलता है। पहली स्थिति वह जिसमें राजनीति सौदेबाजी करती थी। दूसरी अब आ गई है जिसमें राजनीति को किसी सौदेबाजी की जरूरत ही नहीं है। यह मजाक की बात थोड़े ही है कि राज ठाकरे जैसे मन चाहे हड़का देता है। इसका मतलब है कि इस राजनीतिक अव्यवस्था में अब लिबरल होने की जरूरत नहीं है। इसको लगता है कि अब हर चीज का अंतिम उपाय पूंजी ही है। देश में 545 सांसद है जिसमें घोषित रूप से 300 से ज्यादा करोड़पति हैं. इस राजनीति में नया ट्रांसफॉरमेशन हुआ है। इसका प्रभाव समाज पर भी पड़ा है, लोंगों पर भी पड़ा है. पिछले दो दशकों में इसका प्रभाव भयानक रूप से देखने को मिला है।
अभी आपने कहा कि राजनीति को अब सौदेबाजी की जरूरत नहीं रह गई है। लेकिन जब हम बंगाल में देखते है तो वहां के कांग्रेसी मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर राय के खिलाफ माओवादियों ने खूनी संघर्ष छेड़ा। ज्योति बसु ने आंख के बदले आंख का नारा दिया और वे अंततः माओवादियों के सहयोग से सत्ता पर काबिज हुए। इसी तरह बंगाल की सत्ता को ममता बनर्जी पाना चाह रही हैं। ऐसा लग रहा है की यदि बंगाल की सत्ता पर काबिज होना है तो नक्सलियों से सहयोग लेना ही होगा। आप क्या सोचते हैं?उस समय लोगों ने सीपीएम पर भरोसा किया। आगे चलकर सीपीएम ने वह मार्ग छोड़ दिया और वह भी कांग्रेसमय हो गयी। अब लोगों को विकल्प के रूप में ममता नजर आ रही हैं। ममता के इस बार का चुनावी घोषणा पत्र और आपातकाल के दौरान सीपीएम के चुनावी घोषणापत्र में कोई अंतर नहीं है। जो बात सीपीएम तीन दशक पहले कह रही थी वही ममता आज कह रही हैं। दरअसल महत्वपूर्ण बात यह है जब सत्ता आपके हाथ में होगी तब आप क्या करेंगे? यदि आज ममता प्रभावी हो रही हैं, वह ईमानदार हैं, तो जनता समझेगी परखेगी। अभी सत्ता का सुख भोगते हुए ममता की सारी रणनीति बंगाल को ही लेकर है। मामला यह है कि आप सत्ता में हैं और आप सत्ता में नहीं है तो दोनों के दृष्टिकोण में अंतर होगा ही, लेकिन जब दोनों सत्ता में होते हैं तो दोनों का दृष्टिकोण एक ही जैसा क्यो हो जाता है? ये कौन सी मजबूरियां है।
क्या भारतीय राजनीति में सौदेबाजी पारस्परिक है ?
हो सकता है यह संसदीय राजनीति की जरूरत हो। अब आप ही बताइए जब कोई चोर, चोरी करते-करते पुलिस बन जाए तो वह वहां भी भ्रष्ट होगा की नहीं।
हाल ही झारखंड में गिरफ्तार हार्डकोर के नक्सली नेता और पूसा यूनिवर्सिटी के साइंटिस्ट रवि शर्मा ने कहा है कि उद्योगपति भी नक्सलियों को चंदा देते हैं। दूसरी तरफ विभिन्न राज्यों में राजनीतिक दलों से सहयोग मिल रहा है तो आखिर इनकी लड़ाई किसके खिलाफ है?
बात केवल चंदा लेने- देने की नहीं है, बात रोटी को लेकर है। हम सिर्फ यहां से बैठे-बैठे कयास लगाते हैं जबकि वे भुक्तभोगी हैं। मूल अंतर यहीं से शुरू होता है और इस अंतर को समझने के लिए हमें वहां खड़ा होना होगा।
झारखंड के पलामू में नक्सलियों द्वारा लेवी लेने की खबर आए दिन आती रहती है। वहीं दूसरी तरफ वहां के आदिवासी भूखमरी से जूझ रहे हैं। इस समस्या को नक्सलियों द्वारा व्यापक पैमाने पर क्यों नहीं उठाया जा रहा है?
आप ऐसा क्यों चाहते हैं? ये तो ठीक वैसा ही है कि मीडिया इन सवालों को क्यों नहीं उठाता है। उसकी अपनी ड्यूटी है जिसे समझने की जरूरत है। कौन लेवी ले रहा है नहीं ले रहा है यह ज्यादा महत्वपू्र्ण नहीं है। महत्वपूर्ण यह है कि अगर इस प्रदेश में सरकार है, अगर आजादी मिली हुई है, बजट इतने हजार करोड़ रूपए का है, अगर इस बजट के तहत कुछ नीतियां बनती है तो वहां के लिए क्यों नहीं बनती ? यदि इससे कोई आक्रोश पनपता है तो इसे जो नाम देना है दे दीजिए आतंकवाद कहिए या नक्सलवाद कहिये।
तो क्या नक्सलियों के पीछे जो हैं वे उपकरण बने हुए हैं?
कौन उपकरण बना है यह कहना तो कठिन है। हो सकता है वह अपनी लड़ाई लड़ रहें हों । यहां से देखने पर लगता है कि वे उपकरण बने हुए हैं। उसके पास कोई विकल्प नहीं है तो क्या करेगा। आप प्रताड़ित होते हैं और यह व्यवस्था न्याय नहीं दे पा रही है तो कहां जाएंगे। एक बड़ी बात यह भी है कि इनकी इकोनॉमी और हमारी इकोनॉमी में आकाश-पाताल का अंतर है। आजादी के 62 साल बात भी जब यह तबका बुनियादी सुविधाओं से वंचित है तो उसके आक्रोश किसी न किसी रूप में सामने आएंगे ही और इसमें बुराई क्या है। यदि इनके आक्रोश पर ही सरकार कुछ बोलती है तो आक्रोश जायज है। देश में इसपर कम से कम बातचीत तो शुरू हुई, अब कैमरे का रुख उस तरफ हुआ तो सही।
सरकार नक्सलियों को देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा बता रही है। क्या वाकई में नक्सलियों के पास इतनी ताकत आ गई है ?
पहली बार 2006 में सरकार ने नक्सलयों को आंतरिक सुरक्षा के लिए खतरा बताया। ये कहना कि इनके पास बड़ी ताकत है बकवास है। यदि सरकार चाहे तो उन्हें चंद घंटों में तहस-नहस कर सकती है। ये सब बेवकूफ बनाने की बात है। लेकिन इसका दूसरा पक्ष भी है। इनके साथ जो लोग हैं उनकी तादात सेना से भी ज्यादा है उनका क्या करेंगे? क्या उनका खात्मा कर देंगे? आप जब उन क्षेत्रों में जायेंगे तो पता चलेगा की वो किस हालत में रह रहें हैं। राजधानी एक्सप्रेस से खाना लूटा गया। जब आनंदों चैनल ने इनकी झोपड़ियों को दिखाया तो उसमे कुछ भी नहीं था, बर्तन तक नहीं था।
बंगाल में जब माओवादियों ने अगवा पुलिस ऑफिसर यतीन्द्रनाथ को बंधक बनाने के बाद रिहा किया तो उनके सीने पर प्रीजनर ऑफ वार यानी युद्धबंदी लिखा था। इसका क्या अर्थ था? क्या वे सच में युद्ध के लिए तैयार हैं?
इसका जो मतलब हम समझ पाए वो ये है की वे भी अब तैयार हैं और सरकार भी सही में उनकी घेरेबंदी कर रही है। लेकिन होता ये है की जब आप किसी को मरने जायेंगे तो काउंटर रेफ्लेक्ट होगा ही। पंजाब में भी यही हुआ था। नक्सलियों ने इस घटना के बाद कहा भी की हमारे पास युद्ध के अलावा अब कोई चारा नहीं बचा है। सत्ता वर्ग को चाहिए की वो अपने नागरिकों को भरोसे में लेकर बातचीत करे। माहौल तो आपको तैयार करना ही पड़ेगा।
कांग्रेस के नेतृत्व वाले यूपीए गठबंधन के हाथ में जब से सत्ता आई है तब से कांग्रेस लेफ्ट टू सेंटर अप्रोच लेकर चल रही है। नरेगा जैसी योजना इसका उदाहरण है। क्या आपको लगता है की यह सरकार जनकल्याणकारी राज्य की राह पर चलना चाह रही है?
बात को सिर्फ एक योजना के द्वारा नहीं माना जा सकता। सरकार सम्पूर्णता में जो नीतियाँ बना रही है उसमे बहुसंख्यक तबका कितना फिट बैठ रहा है। आप लेफ्ट टू सेंटर कीजिये या राईट टू सेंटर सरकार चलाना एक स्ट्रेटजी है और देश चलाना एक जरुरत। आज स्ट्रेटजी इतनी महत्वपूर्ण हो गयी है की जरूरतें खत्म हो गयीं हैं। आज अगर लेफ्ट फिट है तो कल मायावती फिट होंगी। यह एक शतरंज के खेल की तरह है। इसका कोई मतलब ही नहीं है। सत्ता तो यही चाहती है की आप इस खेल में फंसे रहें। आप हर चीज को पॉलिटिक्स के नजरिये से मत देखिये। खासकर पत्रकार को चाहिए की वो चीजों को सरकार की नजर से नहीं बल्कि जनता की नजर से देखे। अगर आप पॉलिटिक्स के नजरिये से मुद्दों को देखेंगे तो आप पॉलिटिकल हो जायेंगे। हम जो कहेंगे वह सौ फीसदी सही नहीं है लेकिन पॉलिटिक्स के नजरिये से कहेंगे तो वह सौ फीसदी गलत हो सकता है।
नक्सलवाद के प्रति मीडिया का रुख कैसा है ? क्या सारे पक्षों को सामने लाने के लिए पर्याप्त जगह मिल पा रही है या यहाँ भी चीजें छुपाई जा रहीं हैं ?
मीडिया एक बिजनस है। टेलीविजन तो विशुद्ध रूप से बिजनस का माध्यम है। टेलीविजन पत्रकारिता के लिए नहीं आया है। कोई भी चीज प्रोडक्ट तभी होता है जब वो अपने चरित्र को जीता है। एयरकंडीशनर ठंडी हवा देगा तभी वो एयरकंडीशनर होगा। यही उसका चरित्र है। टेलीविजन पत्रकारिता का माध्यम हो ही नहीं सकता है। यह इस मॉडल में फिट ही नहीं बैठता है।
कल को अगर केंद्र सरकार अलग-अलग राज्यों में नक्सलियों के खिलाफ कोई कार्रवाई करती है तो क्या राज्य सरकारें उसकी अनुमति देंगी?
कोई कार्रवाई नहीं होने वाली है। सब प्रोपेगंडा है। हर राज्य में अलग-अलग राजनीतिक परिस्थितियां हैं। ऐसे में कोई भी राज्य सरकार खुले रूप से अनुमति नहीं देगी। सबकी पहली जरूरत सत्ता में बने रहना है। किसी भी व्यक्ति का चरित्र उसके जॉब में मत देखिये बल्कि इससे इतर खोजिये। सरकार का चरित्र और जॉब चूँकि एक ही है इसलिए सब कुछ साफ है। सारा राजनीतिक खेल है।
2008 में कानू सान्याल ने एक इंटरव्यू के दौरान कहा था की आंध्र प्रदेश, झारखण्ड और छत्तीसगढ़ राज्यों में जो हथियारबंद आन्दोलन चल रहा है वह नक्सली आन्दोलन नहीं है बल्कि एक टेरर कैम्पेन है। एक आन्दोलन का जनक ऐसा कह रहा है इस बारे में आपकी क्या राय है?
देखिये सबसे पहली बात यह है की आज के सन्दर्भ में कानू सान्याल का कोई महत्व नहीं रहा है। आज के आन्दोलन का स्वरुप और आयाम काफी बदल चुका है। आज उनमें जबरदस्ती कुछ खोजना ठीक नहीं है। जिस समय उनकी प्रासंगिकता थी वह समय बिलकुल अलग था। आज बात सिर्फ इतनी सी है की भूखे लोग मर रहें हैं। वहां तक रोटी पहुंचा दीजिये सबकुछ अपने आप ठीक हो जायेगा। सारे वाद और विचारधारा खत्म हो जायेंगे।
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment