Thursday, November 25, 2010

‘पीपली लाइव’ नहीं पीपली पैकेज

‘पीपली लाइव’ विमल राय की ‘दो बीघा जमीन’ नहीं है। शायद इसलिए भी कि अनूषा रिजवी‚ विमल राय नहीं हैं। लेकिन इस तर्क के कोई आधार तो बिल्कुल नहीं है कि ‘दो बीघा जमीन’ वाला अब समय नहीं है। खास करके मजदूर और सीमांत किसानों के मामले में। सच तो यह है कि यह समय और शातिर है। लेकिन ‘पीपली लाइव’ इस शातिर समय की त्रासदियों को केवल छू पाती है। ऐसा इसलिए कि अनूषा रिजवी और आमिर खान को ‘पीपली लाइव’ में इस समय को सेलीब्रेट करना भी अनिवार्य था। ‘पीपली लाइव’ के कथानक और कथावस्तु कोई नायाब नहीं है। भारतीय किसान और ग्राम्य समाज के जीवन व गतिविधियां हिन्दी सिनेमा में कई बार केंद्रीय विषय-वस्तु बनी हैं। केवल विषय-वस्तु ही नहीं वरन वहां की त्रासदियों और विडंबनाओं को दमदार तरीके से प्रस्तुत भी किया गया। महबूब की ‘मदर इंडिया’(1957), ‘दो बीघा जमीन’ फिर बीसवीं सदी में आएं तो आशुतोष गोवारीकर की ‘लगान’ और ‘स्वदेस’ भी भारतीय गांव और किसान पर सार्थक सिनेमा है। यह कहने में तनीक भी संकोच नहीं है कि ‘पीपली लाइव’, ‘स्वदेस’ जितना भी सार्थक नहीं है। ऐसा तब है जब विख्यात रंगकर्मी हबीब तनवीर के नया थियेटर के कलाकार इस फिल्म में हैं। लेकिन दुर्भाग्य से यह नया सिनेमा नहीं है। सवाल यह है कि आज के समय में मदर इंडिया के बिरजू (सुनील दत) या दो बीघा जमीन में बलराज साहनी के चरित्र या लगान के भुवन (आमिर खान) या फिर स्वदेस के मोहन भागर्व (शाहरुख खान) की प्रासंगिकता है अथवा पीपली लाइव के नत्था और बुधिया की। हम यह नहीं कह सकते हैं कि हमारे समाज में नत्था और बुधिया नहीं हैं। लेकिन पीपली लाइव नत्था और बुधिया के प्रति संवेदनशील नहीं है। दर्शकों को दोनो चरित्र द्रवित या आक्रोशित नहीं करते बल्कि गुदगुदाते नजर आते हैं। दर्शक दोनों चरित्रों के प्रति संवेदनशील नहीं होते हैं बल्कि उनके मन में फिल्म खत्म होने तक यह धारणा पैठ बना चुकी होती है कि दोनों की नियति ही यही है। यानी पीपली लाइव यथास्थितिवाद को अमली-जामा पहनाती है। नत्था और बुधिया इस फिल्म के नायक नहीं हैं। बल्कि ऐसे दो मुर्ख ग्रामीण हैं जो बीड़ी पीते हैं और निकम्मे हैं। देश में विकास की चल रही फैक्ट्रियों से निकले अपशिष्ट हैं। देश और व्यवस्था के लिए नत्था व बुधिया फालतु के चीज तो हैं ही तो पीपली लाइव में भी वे इसी रूप में इस्तेमाल किए गए हैं। पीपली लाइव एक ऐसी संवेदनहीन फिल्म है जहां बाप से बेटा पूछता है कि तुम आत्महत्या कब करोगे हमे ठेकेदार व थानेदार बनना है। नत्था के बेटे की उम्र इतनी भी कम नहीं है कि वह बचपना के कारण बोलता है। हमे यह नहीं भूलना चाहिए कि अभावग्रस्तता तो संवेदना को समय से पहले ही प्रौढ़ बना देती है। मदर इंडिया का बिरजु बचपन में ही लाला की शातिर चाल को समझ लेता है। वह लाला को बचपन में ही संकेत दे देता है कि आने वाले समय में संभल जाओ। लेकिन यहां नत्था की बेबसी को उसका बेटा भी मजाक बनाता है। क्या नत्था का बेटा अपने बाप और घर की बेबसी से इतना बेखबर है? और वह यहां इतना समझदार कैसे बन जाता है कि मेरा बाप आत्महत्या करेगा तो लाख रूपए मुआवजा मिलेगा। जिस बेटे के जीवन का हर पल बेबसी की कशमकश में पल रहा हो वह इतना संवेदनहीन कैसे हो सकता है? दरअसल यह खाए-पिए-अघाए मध्यवर्गीय दर्शकों को गुदगुदाने के लिए छ्योंक लगाया गया है। तो हम किस मुंह से कहें कि यह फिल्म पीपली लाइव है। हम इसे पीपली पैकेज क्यों न कहें? मीडिया में तो बढ़-चढ़कर इस फिल्म को इंडिया लाइव तक कहा गया। तो क्या हम मान लें कि भारतीय ग्रामीण नत्था और बुधिया जैसे केवल बीड़ी पीते हैं और निकम्मे जैसे नेताओं के पैर पकड़ते चलते हैं और कुछ न सुझा तो मुआवजे के लिए आत्महत्या के लिए सोचते हैं। या फिर यह मान लिया जाए कि होरी महतो जैसे लोग बिना मतलब के अनवरत जमीन खोदते रहते हैं और मर जाते हैं। अनूषा से यह पूछा जाना चाहिए कि होरी महतो लगातार खाली जमीन क्यों खोदते रहता है? पीपली लाइव में पीपली गांव का लोकेशन है पीपली का जनजीवन नहीं है। नत्था और बुधिया के इर्द-गिर्द जिस जनजीवन को दिखाया जाता है वह पीपली का नहीं है बल्कि पूंजीवादी सिनेमा का है जहां उसे केवल रुढ़ियां और अंधविश्वास ही दिखता है। तो क्यों न मीडिया इसे मीडिया लाइव कहता है?
श्याम बेनेगल ने भी 2009 और 10 में भारतीय ग्रामीण जीवन पर आधारित ‘वेलकम टु सज्जनपुर’ और ‘वेल डन अब्बा’ बनाई। इन दोनो फिल्मों में हम भारत की सफेद और स्याह तस्वीर को देख सकते हैं। ‘वेल डन अब्बा’ में तो भारत का ग्रामीण समाज, क्षेत्रीय राजनीति, मीडिया, ब्यूरोक्रेट्स और शहर व गांव के फासले अपने वास्तविक मिजाज में दिखते हैं। वहीं ‘पीपली लाइव’, मीडिया लाइव के चक्कर में कोई लाइव को कवर नहीं कर पाती है। इस फिल्म में मीडिया और खास करके समाचार चैनलों के जिस पहलू को परोसने की कोशिश की गई है वह कोई नई कोशिश नहीं है। नई कोशिश का कुछ ज्यादा मतलब नहीं है तो कम-से-कम नया ट्रीटमेंट तो होना ही चाहिए था। वह भी नहीं है। कई बार तो इस फिल्म में जो दिखाने की कोशिश की गई है वह अतिरंजित मालूम पड़ती है। दर्शकों को हंसाने के चक्कर में फिल्म कई बार हास्यास्पद मालूम पड़ती है। समाचार चैनल भारत लाइव के संवाददाता दीपक द्वारा नत्था के मल की व्याख्या हकीकत से ज्यादा दर्शकों को गुदगुदाने के लिए फार्मूला ही मालूम पड़ता है। एक तरफ जनमोर्चा दैनिक के रिपोर्टर विजय मिट्टी खोदते होरी महतो को मवाली और लफंगे के अंदाज में कहता है-“ ए अंकल क्या कर रहे हो। साला कुछ बोलता भी नहीं है।” और आगे गाली भी देता है। वहीं विजय को सबसे संवेदनशील पत्रकार के रूप में भी दिखाया जाता है। तो क्या विजय की प्रोफेशनल संवेदनशीलता इतनी एकांगी है कि व्यवहार में बिल्कुल नहीं दिखती है? मीडिया के आतंक और गैरजिम्मेदारी की बयां हिन्दी सिनेमा में जिन तरीकों से अब-तक किया जा चुका है पीपली लाइव उनसे उन्नीस ही मालूम पड़ती है। इस मामले में ‘पेज थ्री’ और ‘मुंबई मेरी जान’ ज्यादा स्वभाविक फिल्म है। जब हिन्दी सिनेमा में राजनीति की बात आती है तो ‘सब धन बाइस पसेरी’ जैसी स्थिति है। यहां हर नेता कोई ठाकुर या सामंत जैसा है। अपराधी है और जातिवादी है। यदि जाति का ठाकुर है तो सामंती और अमानवीय प्रवृत्ति का होगा और जाति का यादव है तो भ्रष्ट और अपराधी ही होगा। पीपली लाइव भी इसी फॉर्मूले को अपनाती है। राम यादव और भाई ठाकुर के रूप में वर्तमान भारतीय राजनीति के पुरे चरित्र की उल्टी करके रख दी जाती है।
यदि हम फिल्म के कुछ सकारात्मक पहलुओं की बात करें तो नत्था के अम्मा और उसकी पत्नी के नोंक-झोंक पूरी तरह से एक अभावग्रस्त परिवार के सास-बहु के नोंक-झोंक है। यह ऐसा नोक-झोक है जहां रिश्ते भारी और बोझ मालूम पड़ते हैं। अम्मा द्वारा बहु को ‘मरदमार’ और ‘डायन’ कहा जाना एक भारतीय ग्रामीण परिवार की अभावग्रस्ता के कारण ऊपजी आंतरिक और पारंपरिक कलह को दशार्ता है। फिल्म में फोटोग्राफी की सराहना तो होनी ही चाहिए। बकरी के साथ नत्था और बुधिया का पूरे परिवार के साथ वाली फोटो वाकई में ग्रामीण परिवेश की जीवंत तस्वीर है। एक दृश्य भी काफी मारक है जब पूरा मीडिया का लाव-लशकर वापस लौटता है तो पीपली मिनरल वाटर की खाली बॉटलों से पट जाता है। याद कीजिए अमरीकी राष्ट्रपति बुश ने जब भारत दौरा किया था तो वे अपने देश से पानी लेकर आए थे। हमारा सभ्य समाज भी कुछ इसी तरह सोचने लगा है कि हम गांव में गरीबों या दलितों के घर का पानी पिएंगे तो पता नही कोई संक्रमण का सामना करना पड़े। मिनरल वाटर की खाली बॉटलें फिल्म को नई ऊर्जा देती है लेकिन यह बात अलग है कि नाकाफी है। हम प्रतिभाशाली एक्टर रघुवीर यादव की बात करें तो उन्हें यहां बहुत कुछ करने के अवसर नहीं थे। जितने अवसर थे उन्होंने बेहतर किया। लेकिन रघुवीर यादव का नाम आते ही ‘शहीद-ए-मोहब्बत’, ‘अर्थ 1947’ और ‘सलाम बॉम्बे’ जैसी फिल्में याद आने लगती हैं। लेकिन रघुवीर यादव के लिए यह ‘पीपली लाइव’ थी। और ‘पीपली लाइव’ का सच यह है कि मीडिया को नंगा करने के चक्कर में स्वयं भी उतना ही नंगा दिखता है। मतलब न ‘पीपली लाइव’ न मीडिया लाइव बस पीपली पैकेज।
फिल्म में महंगाई कोई मुद्दा नहीं है। लेकिन फिल्म का सबसे लोकप्रिय गीत ‘महंगाई डायन’ महंगाई पर ही टिप्पणी है। यह गीत फिल्म की तारतम्यता को आगे नहीं बढ़ता है। क्योंकि फिल्म के कंटेंट से कोई रिश्ता नहीं है। हां महंगाई डायन गीत का ढोलक और झाल के साथ दृश्य भले ही गांव के खांटी गंवई परिवेश को जीवंत बनाता मालूम पड़ता है। ‘देश मेरा रंगरेज रे बाबू’ गीत भले ही कई विडंबनाओं को समेटे हुए है। फिल्म में कॉस्टयूम डिजाइन सराहनीय है। लोगों के पहनावे बिल्कुल पीपली जैसे लगते हैं। कुल मिलाकर पीपली एक पैकेज सिनेमा है जिसमें पीपली का दर्द नहीं है। बस पीपली एक विषय है जहां मीडिया वालों का अतिरंजित जमावड़ा कुछ दिनों के लिए है।

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