Thursday, November 25, 2010

भला इस बदलाव से किसका भला होगा

देश की दो सबसे महत्वाकांक्षी प्रतियोगी परिक्षाओं में बदलाव करने की तैयारी है। आईआईटी और यूपीएससी केवल छात्रों की ही नहीं अभिभावकों का भी सपना होता है। इस सपने को आकार देने में कम संसाधन वाले छात्र भी दिन-रात एक कर देते हैं। इन छात्रों और अभिभावकों के वश में जो कुछ भी होता है उसे अंजाम तक पहुंचाने में एड़ी-चोटी का दम लगा देते हैं। लेकिन हमारी पूंजीवादी सरकार को यह रास नहीं आ रही है। दोनो परिक्षाओं में जिस तरीके के बदलाव किए गए हैं उससे गरीब और ग्रामीण छात्र पूरी तरह प्रतियोगिता से बाहर हो जाएंगे। यूपीएसी में तो बदलाव इसी बार से प्रभावी हो जाएगा। आईआईटी में 2012 से करने की तैयारी है। इन बदलावों पर विचार करें तो पता चलेगा कि यह बदलाव किस तरह से ग्रामीण और गरीब छात्रों के लिए नासूर बनने वाला है और शहरियों व उच्च मध्यवर्ग के हित में है। यूपीए सरकार में कपिल सिब्बल जब से मानव संसाधन मंत्री बने हैं तब से शिक्षा व्यवस्था में परिवर्तन की बात कर रहे हैं। लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि यह परिवर्तन किसके लिए है, और क्यों है? कपिल सिब्बल ने आईआईटी खड़गपुर के निदेशक डी. आचार्य के नेतृत्व में आईआईटी में बदलाव के लिए एक समिति का गठन किया। समिति ने अपनी रिपोर्ट भारत सरकार के मानव संसाधन विभाग को सौंप दिया। रिपोर्ट में कहा गया कि संपूर्ण भारत में इंजीनियरिंग की एक परीक्षा ली जाए। इसका तर्क यह दिया गया कि इससे विद्यार्थियों पर तैयारी का ज्यादा दबाव भी नहीं बनेगा और खर्च भी कम होंगे। लेकिन जिस परीक्षा की बात की जा रही है उसके कई खतरनाक पहलू हैं। पहले जिस तरह आईआईटी में रसायन विज्ञान, भौतिकी विज्ञान और गणित की परीक्षा होती थी अब वह नहीं ली जाएगी। दरअसल, अब बारहवीं की परीक्षा परिणाम के कुल अंक के 70 फीसदी को वेटेज दिया जाएगा। और फिर एक राष्ट्रीय स्तर पर नेशनल एप्टीट्यूड टेस्ट लिया जाएगा। इस टेस्ट में प्राप्त कुल अंक के 30 फीसदी को वेटेज दिया जाएगा। और फिर मेधा सूची तैयार की जाएगी। मेधा सूची में वरीयता के आधार पर छात्रों को आईआईटी या अन्य इंजीनियरिंग कॉलेजों में प्रवेश मिलेगा। अब यहां सबसे बड़ा सवाल है बारहवीं की परीक्षा को 70 फीसदी वेटेज देने का। देश में सीबीएसई, आईसीएसई से लेकर सभी राज्यों के अपने-अपने बोर्ड हैं। 2010 में सीबीएसई की दसवीं और बारहवीं की परीक्षा में कुल 12 लाख 50 हजार विद्यार्थी शामिल हुए थे। वहीं हम बिहार बोर्ड की बात करें तो 2010 की दसवीं की परीक्षा में 10 लाख और बारहवीं की परीक्षा में छः लाख विद्यार्थी शामिल हुए। अब दोनों बोर्डों में विद्यार्थियों को मिलने वाले अंक पर एक नजर डालें तो दांतो तले उंगली दबा लेंगे। सीबीएसई में बारहवीं में 74 फीसदी से ज्यादा अंक पाने वाले 35 फीसदी छात्र हैं वहीं बिहार बोर्ड में सिर्फ 0.93 फीसदी, उत्तर प्रदेश में 0.92 फीसदी और महाराष्ट्र में 6.75 फीसदी। और आईआईटी में बारहवीं के 70 फीसदी अंक को वेटेज दिया जाना है। तो इन राज्यों से कितने छात्रों को आईआईटी में प्रवेश मिल पाएगा? बिहार विद्यालय परीक्षा समिति के अध्यक्ष एकेपी यादव कहते हैं “यह तो केवल तीन राज्य बोर्डों के बारहवीं की परीक्षा परिणाम का ग्राफ है। अन्य राज्य बोर्डों का भी कुछ ऐसा ही हाल है। वे कहते हैं हमने सख्त विरोध दर्ज करवाया है। हमने कहा कि क्या आईआईटी केवल सीबीएसई वालों के लिए है। ऐसे में तो बिहार जैसे राज्यों के छात्रों के लिए कोई जगह ही नहीं रहेगी।” नेशनल एप्टीट्यूड टेस्ट की बात करें तो इसमें भी कम विसंगतिया नहीं है। इसमें मोरल, एथिक, कम्युनिकेशन स्किल और तर्क क्षमता जैसे प्रश्न शामिल होंगे। टेस्ट का माध्यम अंग्रेजी रखी गई है। एक तो यहां ग्रामीण और गरीब छात्र मार खाएंगे जो अंग्रेजी ठीक-ठाक नहीं जानते हैं। हो सकता है किसी के पास नौलेज हो लेकिन वह जिस समाज और परिवेश में रहता है उसमें वैसा कम्यूनिकेशन स्किल विकसित न कर पाया हो जिसकी मांग होने वाली है। और जहां तक मोरल व एथिक्स का सवाल है तो हर समाज और परिवेश का मोरल और एथिक्स एक ही नहीं होता है। एएन सिन्हा समाज अध्ययन संस्थान के निदेशक प्रोफेसर डीएम दिवाकर कहते हैं “यह पूरी तरह से अर्बन बायस्ड है। पहले तो बारहवीं के परीक्षा परिणाम को इतना वेटेज नहीं देना चाहिए। यदि देना भी है तो पहले राज्य बोर्ड के स्कूलों को भी सीबीएसई के लेबल में लाया जाए। और दूसरी ओर एप्टीट्यूड टेस्ट में विविधता को समाहित किया जाए। जब-तक विविधता समाहित नहीं होंगी तब-तक बदलाव एकपक्षीय ही रह जाएगा।”
एक सुझाव यह हो सकता है कि राज्य बोर्ड क्यों नहीं छात्रों को पर्याप्त अंक देता है? एकेपी यादव कहते हैं “केवल सीबीएसई जितना अंक देने की बात नहीं है। सवाल शिक्षा और परीक्षा की गुणवत्ता का भी है। सीबीएसई में छात्रों को केवल इसलिए ज्यादा अंक नहीं मिलते हैं कि वहां अंक ज्यादा दिए जाते हैं। यहां जितनी बुनियादी सुविधाएं हैं राज्य बोर्ड किसी भी स्तर पर मुकाबला नहीं कर सकते।” बिहार बोर्ड में अब सिलेबस, प्रश्न-पत्र और मूल्यांकन लगभग सीबीएसई पैटर्न पर कर दिया गया है। ताकि बिहार बोर्ड के छात्र भी किसी स्तर पर सीबीएसई से मुकाबला कर सके। लेकिन बात केवल प्रश्न-पत्र और मूल्यांकन तक ही सीमित नहीं है। सीबीएसई प्रतिनिधि संजीव मिश्र कहते हैं “सीबीएसई का जो भी पैटर्न है वह अपने आंतरिक ढांचा और उपलब्ध साधनों के आधार पर है। आप यदि किसी दूसरे सिस्टम के किसी एक हिस्से को एडॉप्ट करते हैं तो इसका मतलब यह कतई नहीं है कि उसके परिणाम बिल्कुल वैसे ही मिल जाएंगे। क्योंकि सीबीएसई का प्रदर्शन केवल सिलेबस और प्रश्न-पत्र के कारण नहीं है। बल्कि इसका पूरा ढांचा इसे सपोर्ट करता है। सीबीएसई बोर्ड एक्टिविटी बेस्ड एजुकेशन है वहीं राज्य बोर्ड एजुकेशन बेस्ड एक्टिविटी।” अब हम बिहार की ही बात करें तो जिन हालात में प्राथमिक और माध्यमिक स्कूल हैं ऐसे में कहां से सीबीएसई के छात्रों से मुकाबला कर पाएगा। हम एक नजर बिहार की प्राथिमक और माध्यमिक शिक्षा की हालात पर नजर डालें तो भयावह तस्वीर ऊभरकर सामने आएगी। 2007-08 की डीएसई रिपोर्ट के अनुसार राज्य में 67 हजार 874 स्कूल हैं। 23 फीसदी स्कूल बिना क्लास रुम के चल रहे हैं। छः फीसदी स्कूल सिंगल क्लास रुम वाले हैं और 29 फीसदी दो क्लास रुम वाले। मात्र तीन फीसदी स्कूलों में बिजली की पहुंच है। इस मामले में इसके बाद असम और झारखंड आता है। राज्य में एक क्लास रुम और एक शिक्षक पर 120 बच्चे हैं जो कि देश के किसी भी राज्य से ज्यादा है। 48 फीसदी स्कूलों में कॉमन ट्वायलेट है वहीं मात्र 22 फीसदी स्कूलों में गर्ल्स ट्वायलेट है। शिक्षकों के अभाव से बिहार के स्कूल भयानक तरीके से जूझ रहे हैं। छः फीसदी स्कूल मात्र एक-एक शिक्षक के भरोसे चल रहे हैं वहीं 26 फीसदी स्कूल दो-दो शिक्षक के भरोसे। 41 फीसदी शिक्षक केवल इंटर पास हैं। अब इन हालात में बिहार बोर्ड लाख सीबीएसई के तर्ज पर सिलेबस बदल ले या प्रश्न-पत्र बना ले क्या फर्क पड़ता है। कपिल सिब्बल का आईआईटी में बदलाव के पक्ष में तर्क है कि इससे कोचिंग पर छात्रों की निर्भरता कम होगी। क्योंकि बारहवीं में छात्र कोर्स को छोड़कर इंजीनिरिंग की कोचिंग पर ज्यादा ध्यान देते हैं और क्लास नहीं करते हैं। इस बदलाव के बाद छात्र कोर्स पर ध्यान देंगे और क्लास भी करेंगे। इस तर्क पर एकेपी यादव कहते हैं “यह केवल सिब्बल साहब का शिगुफा है। जब स्कूल में शिक्षक नहीं हैं, योग्य शिक्षक नहीं हैं, किताबें तक नहीं मिल पा रही हैं और कहें तो बुनियादी सुविधाओं से जूझ रहे हैं वैसी स्थिति में छात्र स्कूल की क्लास की ओर रुख करेंगे यह तो एक सुखद सपना जैसा ही है। वे कहते हैं इस हालात में तो मुझे लगता है कोचिंग का महत्व और बढ़ेगा। मौजू तो यह कि ज्यादा अंक लाने के होड़ में कोचिंग की ओर तो छात्र रुख करेंगे ही दूसरी ओर एप्टीट्यूड टेस्ट के लिए अलग से कोचिंग खुल जाएंगे।” अब ऐसी स्थिति में आईआईटी की प्रवेश प्रक्रिया में बदलाव होता है तो जाहिर ग्रामीण और गरीब छात्र पिसेंगे।
वही हाल यूपीएससी की परीक्षा का है। वैकल्पिक पेपर खत्म कर यहां भी एप्टीट्यूड टेस्ट लिया जाएगा। पहले छात्र अपने मन मुताबिक विषय चुनकर वैकल्पिक पेपर की परीक्षा देते थे। अब यहां भी एथिक, मोरल, तर्क क्षमता और कम्यूनिकेशन स्किल एप्टीट्यूड टेस्ट में शामिल होगा। अब यहां भी सवाल वही है। इन टेस्टों में क्षेत्रीय विविधता शामिल होनी चाहिए। दूसरी बात यह कि जो दो-तीन या चार साल से तैयारी कर रहे थे उनका क्या होगा? प्रोफेसर डीएम दिवाकर कहते हैं यदि सरकार को बदलाव ही करने थे तो दो साल पहले बता देना चाहिए था। ताकि बदलाव को स्वीकार करने में छात्रों को मानसिक रूप से तैयार होने का मौका मिल पाता।
गांव और गरीब कथित भारतीय लोकतंत्र में लगातार हाशिए पर आते जा रहे हैं। जब कभी हमारे हुक्मराणों को वोट बैंक की याद आती है तो नरेगा और मीड-डे-मील जैसी रेवड़िया बांट दी जाती है। जैसे हमारे देश के पूंजीपतियों ने अरबो-खरबों की संपत्ति अर्जित कर कई जगह मंदिरों का निर्माण करवा दिया है। ताकि जनता का क्षोभ, विक्षोभ और विद्रोह दबा रहे। हालांकि देश की आधी से ज्यादा आबादी को इसी लायक बना दिया गया है कि नरेगा से आगे सोचे ही नहीं। हमारी सरकारें ऐसी ही योजनाओं पर दंभ भरते रहती हैं। भारत खुद को विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहते नहीं थकता है। लेकिन जिस तरीके से लोगों को मुख्यधारा से लगातार अलग किया जा रहा है वह समय के साथ और भयावह रूप धारण करेगा। कई राज्यों की शिक्षा व्यवस्था तो बिल्कुल चौपट हो गई है। यदि आपको गुणवत्ता वाली शिक्षा चाहिए तो बाजार में उपलब्ध है। बाजार से शिक्षा तभी मिलेगी जब आपके पास पर्याप्त पैसे होंगे। अन्यथा सरकार की रेवड़ियों पर जिंदा रहिए।

No comments: