Thursday, November 25, 2010

पटना मतलब लगातार प्रदूषित होती एक राजधानी

कहा जा रहा है कि पटना देश के उन शहरों में से एक है जिसका पिछले चार सालों में कायापलट हो गया है। खास करके नीतीश कुमार के आने के बाद। हमारे देश और समाज में कायापलट की जो अवधारणा बनी है उसमें कई विसंगितयों को देखा जा सकता है। कायापलट का मतलब है कितने आलीसान होटल बने, कितने मॉल, मल्टीप्लेक्स, रेस्तरां और सड़क पर कितनी महंगी गाड़ियां भाग रही हैं व कितनी संख्या में। फास्ट फूड़ की कितनी दुकाने चमक रही हैं, शराब की कितनी मांगें बढीं, कितने ब्रैंडेड शोरुम खुलें और जो भी हो सकता है घोर उपभोक्तावादी समाज के लिए। हद तो यह हो गई है कि लोग बिसलेरी का पानी पी रहे हैं तो इसे भी घोर सकारात्मक बदलाव के रूप में देख रहे हैं। लोग कहते मिल जाएंगे कि जीवन स्तर में सुधार आया है और लोग अपनी सेहत को लेकर जागरुक हैं। लेकिन इसके पीछे कई सवाल टकटकी लगाए खड़े हैं जिनसे हमारा सिस्टम उलझना नहीं चाहता और सावन का अंधा बना हुआ है। तो क्या इन सवालों से जूझे बिना हम भी मान लें कि पटना देश की सबसे तेज गति से विकास करते राज्य की राजधानी है। नहीं, चलिए एक बार इन सवालों से जूझकर देख ही लेते हैं। पटना देश की सबसे तेज गति से प्रदूषित होती राजधानी में से भी एक होगी। सड़क पर निकलें तो पता चलेगा कि यहां प्रदूषण रोकने के कोई नियम-कायदे नहीं हैं। ऑटो केरोसीन का इस्तेमाल कर रहे हैं वह भी प्रदूषण जांच केंद्र के सर्टिफिकेट के साथ। पटना जिला में सभी प्रकार के वाहनों की संख्या 5 लाख 81 हजार 313 है। बिहार मोटर वाहन नियमावली 1992 में संशोधन कर सभी प्रकार वाहनों को प्रदूषण जांच केंद्र पर जांच करवाकर सर्टिफिकेट लेना अनिवार्य कर दिया गया है। लेकिन वर्तमान समय में इस नियम का कोई मतलब नहीं है। अभी राजधानी में कागजी तौर पर 30 प्रदूषण जांच केंद्र हैं लेकिन काम मात्र 16 कर रहे हैं। नियम है कि सभी प्रकार की गाड़ियां प्रत्येक छह महीनें में जांच करवाकर प्रमाण-पत्र लें। मतलब एक साल में करीब 10 लाख वाहन जांच केंद्र पर जाने चाहिए। पर माजरा यह है कि सभी जांच केंद्रों पर औसतन मात्र सात वाहन ही जा रहे हैं। इस हिसाब से देखें तो 16 जांच केंद्रों पर एक साल में मात्र 52 हजार 320 वाहन ही जा रहे हैं। मतलब 5 लाख 28 हजार 893 वाहन बिना प्रदूषण जांच करवाए ही चल रहे हैं। यहां जितने प्रदूषण जांच केंद्र हैं सभी निजी हैं। प्रदूषण जांच केंद्र वालों का कहना है कि अब हमारे पास वाहन नहीं आ रहे हैं तो हम क्या कर सकते हैं। इनके भी अपने दुःख हैं। जांच केंद्र वालों का कहना है कि यह केवल खानापूर्ति के लिए है। न इसमें हमारी दिलचस्पी है न वाहनों की। प्रदूषण जांच के एवज में इन्हें मिलने वाली रकम बहुत कम है। ऐसा राज्य सरकार का परिवहन विभाग भी कहता है। प्रदूषण जांच केंद्र वाले तो कहते ही हैं। दो पहिया और तीन पहिया वाहन के लिए 30 रुपए, चार पहिया के लिए 50 रुपए और डीजल व भारी वाहन के लिए 75 रुपए है। इसमें से भी सकरार क्रमशः पांच, 10 और 15 रुपए ले लेती है। जबकि बंगाल में यह राशि 50, 75 और 100 रुपए है। और बंगाल सरकार इन रकमों में से कुछ भी नहीं लेती है। परिवहन पदाधिकारी हरिहर प्रसाद बताते हैं कि हमने सरकार से चिट्ठी लिखकर अनुरोध भी किया कि यह रकम काफी कम है, इसे बढ़ाया जाए। प्रदूषण जांच केंद्र वालों ने भी रकम बढ़ाने की मांग की लेकिन किसी ने नहीं सुना। मैनें जब ऑटोमोबाइल एसोसियशन और बिहार चेंबर ऑफ कॉमर्स के कार्यकारी सदस्य अमित मुखर्जी से पूछा कि तब तो लाखों वाहन बिना प्रदूषण जांच करवाए सड़क पर चल रहे हैं। तब उन्होंने कहा कि बिना करवाए भी चल रहे हैं और बिना जांच करवाए प्रदूषण जांच केंद्र के प्रमाण-पत्र भी लेकर चल रहे हैं। अमित मुखर्जी प्रदूषण जांच केंद्र भी चलातें हैं। मुखर्जी बताते हैं कि प्रदूषण जांच केंद्र से जो प्रमाण-पत्र दिया जाता वह केवल मल्टिकलर होता है। और वाहन चालक स्कैन करवाकर बड़ी आसानी से तारीख बदल देते हैं। सरकार को चाहिए था कि अलग से एक होलोग्राम देती जैसा कि बंगाल में है। । हमने भी मांग की और परिवहन विभाग ने भी लेकिन राज्य सरकार पर कोई असर नहीं पड़ा। पटना में मोटर फिटनेस सेंटर तो मात्र चार ही हैं। मोटर फिटनेस सेंटर का भी यही हाल है। खास बात यह है कि मोटर फिटनेस सेंटर के प्रमाण-पत्र के बिना वाहनों का रजिस्ट्रेशन नहीं होता है। तो सवाल यहां यह खड़ा होता है कि या तो बिना फिटनेस सर्टिफिकेट के रजिस्ट्रेशन होता है या फर्जी सर्टिफिकेट पर। ट्रैफिक एसपी अजित कुमार सिन्हा कहते हैं कि मेरे पास कोई आधार ही नहीं है कि असली और नकली प्रमाण-पत्र की पहचान कर सकें। अमित मुखर्जी कहते हैं यदि वाहन ईमानदारी से प्रदूषण जांच केंद्र पर जाएं तो लाखो की संख्या में सड़क से बाहर हो जाएंगे। पटना में जितनी तेजी से प्रदूषण बढ़ रहा है आने वाले समय में और खतरनाक स्थिति होने वाली है। एक तो पटना क्या पूरे बिहार में वाहनों और प्रदूषण जांच केंद्रों की संख्या में भारी असंतुलन है। पूरे बिहार में सभी प्रकार की वाहनों की संख्या 22 लाख 86 हजार 272 है वहीं प्रदूषण जांच केंद्र मात्र 60 काम कर रहे हैं। यदि सभी वाहन प्रदूषण जांच के लिए जाने भी लगेंगे तो ये केंद्र जांच करने में असमर्थ साबित होंगे। परिवहन विभाग और ट्रैफिक पुलिस यदि कुछ वाहनों को पकड़ते भी हैं तो 1000 रुपए फाइन लगाकर छोड़ देते हैं। सरकार के तरफ से निर्देश है कि जितना हो सके फाइन लगाकर राजस्व बनाया जाए। लाखों रुपए महीनों में वसूला भी जा रहा है लेकिन सवाल यह है कि क्या इससे प्रदूषण की समस्या खत्म हो जाएगी?
परिवहन विभाग के तरफ से निर्देश है कि वाहन 88 डेसीबल से ज्यादा के हॉर्न नहीं लगा सकते हैं। लेकिन यहां धड़ल्ले से बुफर और प्रेशर हॉर्न का इस्तेमाल हो रहा है। सड़क पर निकले तों बिना कान बंद किए आप पैदल चल ही नहीं सकते हैं। अनावश्यक हॉर्न का भी इस कदर इस्तेमाल कि पैदल चलने वाले मिचली खाकर सड़क पर गिर जाएं। ट्रैफिक पुलिस और परिवहन विभाग के वही तर्क हैं कि हम आखिर कैसे जाने कि कोई निर्धारित डेसीबल से ज्यादा हॉर्न बजा रहा है। इंसान जब बात करता है तो वह 30 से 40 डेसीबल के बीच होता है। वह भी लगातार बातचीत करते रहे तो कान थकने लगता है। वहीं जब बुफर हॉर्न का इस्तेमाल करते हैं तो 100 डेसीबल से भी ज्याद को शोर होता है। माजरा यह है कि जिन्हें परिवहन विभाग साइलेंस जोन घोषित कर रखा है वे भी ऐसे खतरनाक शोर को झेल रहे हैं।
ऑटो तो केरोसीन का इस्तेमाल कर ही रहे हैं पटना में केरोसीन मिला पेट्रोल का भी जमकर गोरखधंधा चल रहा है। पटना के सिपारा क्षेत्र में इंडियन ऑयल और भारत पेट्रोलियम का डिपो है। राजधानी और मगध क्षेत्रों में इसी डिपो से पेट्रोल का सप्लाइ होता है। मान लीजिए टैंकर डिपो से पेट्रोल लेकर 32 डिग्री तापमान पर चलान कटवाकर चलता है। रास्ते में यदि तापमान बढ़ गया तो पेट्रोल का वॉल्यूम भी बढ़ जाता है। एक टैंकर में 12000 लीटर पेट्रोल आता है। चार डिग्री तापमान बढ़ने पर कम-स-कम 40 लीटर पेट्रोल बढ़ जाता है। पंप मालिक पेट्रोल की मात्रा टैंकर में लगी डीप स्टिक से देखते हैं। उन्हें डीप स्टिक तक पेट्रोल चाहिए। जाहिर है तापमान बढ़ने पर पेट्रोल डीप स्टिक से ऊपर आ जाता है। अब सवाल यह भी उठता होगा कि ठंडे के मौसम में तो तापमान घट जाता है ? इससे टैंकर चालकों पर कोई फर्क नहीं पड़ता है। क्योंकि चालक चलान कटने समय का तापमान पंप मालिक को दिखा देते हैं। तापमान बढ़ने के कई कारण हो सकते हैं। पहला तो हो सकता है कि अचानक मौसम का तापमान बढ़ जाए, चालक टैंकर को सड़क पर कूदाते लाते हैं, ब्रेक का इस्तेमाल भी ज्यादा करते हैं और जानबूझकर घंटों धूप में टैंकर को खड़ा कर देते हैं। बढ़े वॉल्यूम को टैंकर चालक सिपारा में ही दलालों से बेच देते हैं। बेचने की कीमत मार्केट रेट से 10 रुपए तक कम होती है। और फिर दलाल ऊपर से इस पेट्रोल में केरोसीन मिलाकर पूरे पटना में पेट्रोल के नाम पर कम कीमत में बेचते हैं। सिपारा डिपो से प्रतिदिन 1000 टैंकर निकलते हैं। यदि हम बढ़े वॉल्यूम को 20 लीटर भी मान कर चलें तो 20 हजार लीटर पेट्रोल प्रतिदिन अवैध रूप से बेचा जा रहा है। पंप मालिक कहते हैं हम लाचार हैं। अपना स्टाफ साथ में भेजते हैं तो टैंकर चालक किसी खास पंप के लिए भी हड़ताल कर देते हैं। सिपारा में यदि दलालों को पता चल जाता है कि कोई पत्रकार आया है तो वे मारने-पीटने से भी नहीं चुकते हैं। अहम बात यह है कि सिपारा थाना भी बगल में ही है। लेकिन कोई कार्रवाई नहीं। पेट्रोल पंप मालिक कहते हैं सब कोई मिल-बांटकर खा रहा है। इस पर टैंकर चालकों का कहना है हम ऐसा नहीं करेंगे तो पेट भी नहीं भर पाएंगे। टैंकर मालिक तनख्वाह के नाम पर मात्र 1500 रुपए देते हैं। बढ़ाने के लिए कहते हैं मालिक का तर्क होता है – पता है चोरी करके कितना कमाते हो। तो चोरी करने के लिए हम मजबूर हैं। यह पटना है मेरी जान, देश की सबसे तेज गति से विकास करते राज्य की राजधानी।

1 comment:

Rajeev Ranjan said...

naya kaha hai guru....phir wahi