Sunday, October 11, 2009

काशी में कुल्हड़


कहा जाता है सूरज चाहे जितना तमतमा जाए समुद्र लहराता रहेगा। वैसे ही काशी में मॉल संस्कृति चाहे जितना पाँव पसार ले, कुल्हड़ कड़कता रहेगा। जैसे सड़कों और चौराहों पर आम आदमी अनायास दिखते हैं वैसे ही काशी में कुल्हड़। इसका मतलब यह नहीं कि यहाँ केवल आम आदमी ही कुल्हड़ से मतलब रखता है। इन कुल्हड़ों से मेहनतकश और वाचाल होठों से लेकर फिरोजी एवं शबनमी होठों तक का सहमिलन होता है। विदेशी होठों को भी कुल्हड़ ही भाता है।
पेय का मजा जो कुल्हड़ में मिलता है वह काँच और धातु के बर्तन में कहाँ ? होठों और कुल्हड़ का सहमिलन बचपन का याद दिला देता है जब छुप-छुप कर मिट्टी या मिट्टी के बर्तन के टुकड़े चाटने की आदत पड़ जाती है।
जो काशी की कसौटी पर खरा उतरता है वही काशी को जी पाता है। काशी को कोई अपने हिसाब से नहीं जी सकता। यही काशी की अद्भुत पहचान है। यहाँ लगभग हर प्रकार के पेय कुल्हड़ में परोसे जाते हैं। दूध, दही, लस्सी, और चाय से लेकर कॉफी तक। इन तमाम पेयों का स्वाद कुल्हड़ की सोंधी गंध से दोगुना हो जाता है। वैसे भी कुल्हड़ से दूध और दही का पुराना संबंध है। आज भी गाँवों में, मिट्टी के बर्तनों में ही दूध उबाला जाता है। चाय और कुल्हड़ भी दोस्त बन गए। लेकिन कॉफी ? क्या कॉफी कुल्हड़ में आकर सहज महसूस करती होगी ? या कुल्हड़ स्वयं में कॉफी को पाकर गौरवान्वित महसूस करता होगा ? चाहे जो भी हो कॉफी कुल्हड़ में ही दी जाती है। यह उतना भी अनमेल नहीं है जितना कि मुलायम सिंह और समाजवाद, मार्कसवाद और नंदीग्राम, रचनाकर्म और आज के साहित्यकार। यहाँ खाद्य पदार्थों में भी कुल्हड़ का वैसा ही पैठ है ।
कुल्हड़ का उपयोग दैनिक जीवन में जितना बनारस में होता है, शायद ही किसी और जगह होता होगा। इसका कारण यहाँ की धार्मिकता हो सकती है, क्योंकि पूजा में मिट्टी के बर्तनों को पवित्र माना जाता है। फलतः इसकी पवित्रता दैनिक जीवन को भी प्रभावित की होगी।
कोई काशी पहली बार आए तो उसके लिए कुल्हड़ कौतूहल का विषय हो सकता है। उसे देखकर या उपयोग करते समय स्मृतियों और अतीत चला जाना स्वभाविक है। याद आएगा गाँव, गाँव में विवाह के विभिन्न मौके जब पंगत में बैठे लोगों के पत्तल के सामने रखे मिट्टी का वह बर्तन, जो पानी देने के लिए होता था, जिसे कुल्हड़, पूर्वा, भरूका, चुक्कड़ या रामलोटा भी कहते हैं।
घड़ा के संदर्भ में कहा जाता है कि अमीरों के लिए शौक और गरीबों के लिए फ्रिज। किंतु कुल्हड़ के साथ ऐसा कुछ भी नहीं है। शौक और मजबूरी जैसी कोई बात ही नहीं है। यहाँ दोनो वर्ग अपने पसंद और बड़े चाव से इसका उपयोग करते हैं। मानों इसके बिना पेय और खाद्य का स्वाद अधूरा रह जाता है। रामनगर की लस्सी हो या पहलवान का दूध, बनारस स्वीट्स का रसगुल्ला हो या प्रसिद्ध दुकानों की चाट या कचौड़ी के साथ मिलने वाली सब्जी सबकी गुणवत्ता और प्रसिद्धि में कुल्हड़ का भी कहीं न कहीं योगदान रहता ही है। इसके उपयोग के बाद फोड़ने का भी अपना एक अलग मजा है। आराम से जमीन पर रखकर, पैर से दबा दी जाए तो एक मासूम टूटन की आवाज कर्णप्रिय लगती है।
लालू प्रसाद यादव ने रेल मंत्री बनते ही रेलवे में डिस्पोजेबल के स्थान पर कुल्हड़ की सिफारिश की थी। कुछ महीनों तक चला भी। किन्तु विद्वत् समाज के विभिन्न तर्कों और कठिनाईयों की दुहाई ने इसे खारिज कर दिया। इन तर्कों और दुहाईयों से काशी को कोई फर्क नहीं पड़ता है।
इन कुल्हड़ों के साथ नकारात्मकता कुछ भी नहीं है। 25 से 35 रू में एक सौ की संख्या में मिल जाते हैं। विभिन्न दुकान वाले बताते हैं कि इतने रूपए के ग्लास टूट जाते हैं, साथ में धोने का भी झंझट नहीं। इसे बनाने वालों की भी कमाई हो जाती है। काश! काशी जैसा कुल्हड़ के मामले में पूरा भारत होता तो प्रदूषण के बड़े हिस्से से बचा जा सकता था।

2 comments:

हेमन्त कुमार said...

कुल्हड़ पुराण है यह ।
आभार ।

arun prakash said...

kulhad se aage kashifal kohandaa bhi hai us par aaiye