Thursday, October 22, 2009
इन जड़ी-बूटियों के बारे में मुझे भी कुछ पता नहीं है
दिल्ली केवल राजनीति, कला और शिक्षा का ही केंद्र नहीं है, यहाँ सड़क के किनारे कई क्षेत्रों में नीम-हकीमों की जड़ी-बूटी की दुकानें भी देखी जा सकती हैं। पूरी दिल्ली में जगह-जगह पर इन दुकानों का फैलाव है जो विकास पुरी कॉलनी से संचालित होती हैं। यदि इन दुकानों में जाएं तो एक नौकर बैठा मिलेगा जो अपनी जड़ी-बुटियों को संजीवनी होने का दावा करेगा। थोड़ी चालाकी से बात की जाए तो कुछ ही मिनटों पता चल जाएगा कि सच क्या है। जेएनयू के पूर्वी गेट से बेर सराय जाते हुए सड़क के बायीं तरफ एक दुकान है। चुँकि यहाँ गुप्त रोग के इलाज में ज्यादा दिलचस्पी ली जाती है इसलिए मैंने भी गुप्त रोग का बहाना बनाया।
तीन महीने से स्वप्न दोष हो रहा है। तीन महीने से है और आप आज आ रहे हैं। ओ समझ गया इसीलिए आप इतने कमजोर दिख रहे हैं। दाहिने हाथ की कलाई पकड़ते हुए उसने कहा आपके पेट में बहुत गर्मी है। आधे घंटे में वैद्य जी आ जाएंगे तब तक मैं दवाई बना रहा हूँ। आप कुछ पैसे जमा कर दीजिए। वह बिल निकालकर कुछ लिखने ही जा रहा था कि मैंने पूछ दिया कौन सी दवा है और कितने की है। दवाई तो जानते ही हैं जड़ी –बूटी वाली है। ये ऐसे ही दुर्लभ वस्तु होती है। बावजूद उतनी महंगी नहीं है। देखिए ये बीच वाली दवा है ‘मरदाना-जनाना पावर -550 ’और कीमत भी मात्र पाँच सौ पचास।
मैंने, पूछा कि तुम्हारे वैद्य जी कहाँ के रहने वाले हैं? वैद्य जी तो साहब बहुत पुराने हैं, ऐसे वे हरिद्वार के रहने वाले हैं। आप चिंता मत कीजिए हम हैं न। तुम कहाँ के रहने वाले हो? अरे साहब मैं भी वहीं के रहने वाला हूँ। वह जिस टोन में बात कर रहा था उससे पहले ही पता चल गया था कि वह बिहार का रहने वाला है। अपनी आवाज भारी करते हुए मैंने कहा सच बताओ। कुछ पल चुप रहने बाद उसने कहा हम बिहार के भागलपुर जिले के रहने वाले हैं। मैंने कहा, अच्छा तो इसीलिए एक बिहारी को ही मुर्ख बना रहे हो। नहीं-नहीं दवाई तो बिल्कुल अच्छी है आप तुरत ठीक हो जाएंगे।
जितने छोटे-छोटे डिब्बे जड़ी-बुटियों के थे उनसे कुछ ही कम देवी-देवताओं की फोटो। मैंने कहा, इन जड़ी-बूटियों के नाम जानते हो? नहीं सर हमको कुछ पता नहीं है। हम भागलपुर में पढ़ाई करते थे लेकिन बीच में ही छोड़कर दिल्ली भाग गए। हम यहाँ ढाई हजार पर नौकरी करते हैं। चौबीसो घंटे यहीं रहना होता है। दीपावली में घर चले जाएंगे। फिर से पढ़ने का मन कर रहा हैं। मैंने कहा पुलीस को भी कुछ देने पड़ते हैं? वह गंभीर होते हुए बोला सड़क के किनारे दुकान है तो पैसे तो देने ही होंगे।
ऐसी दुकानें जब देश की राजधानी में धड़ल्ले से चल रही हैं तो छोटे शहरों और कस्बों का क्या हाल होगा? यहाँ तो लोग डाक्टर से ज्यादा इन्हीं नीम हकीमों पर विश्वास करते हैं। सबसे बड़ी बात है यहाँ उन्हीं बीमारीयों के इलाज में दिलचस्पी ली जाती है जिन पर हमारे समाज में खुलकर बात नहीं की जाती।
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1 comment:
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