Sunday, November 8, 2009
संकट में खेती-किसानी
इसी समाज में कभी कहा जाता था- उत्तम खेती मध्यम बान, नीच चाकरी भीख निदान। यह पंक्ति भारतीय संस्कृति में खेती की सर्वोच्चता को रेखांकित करती है। यदि हम इतिहास में भी जाएँ तो हमारी सभ्यता और संस्कृति के विकास में कृषि की सबसे बड़ी भूमिका रही है। हमारे रीति-रिवाज और पर्व-त्योहारों का निर्धारण बहुत हद तक कृषि से ही हुआ है। मकर-संक्रांति, महाशिवरात्रि, बसंत-पंचमी और लोहड़ी जैसे त्योहारों का तो कृषि से सीधा संबंध है। ग्रामीण इलाकों में तो आज भी धान की रोपाई और कटाई के समय महिला किसानों द्वारा गाए जाने वाला लोकगीत रोमांचित करता है।
कृषि के साथ हमारे समाज में लोगों का जो अंतर्संबंध था वह पर्यावरण और प्रकृति को पोषित रखता था। हमारे पूर्वज खेती अपनी जरूरतों की पूर्ति के लिए करते थे। इन जरूरतों में उपभोक्तावादी प्रवृति नहीं थी। खेती में किसानों को किसी कीटनाशक या रासायनिक खाद की जरूरत नहीं पड़ती थी। विकास के लिए तब नदी और जंगल बाधा नहीं थे। शुद्ध हवा, शुद्ध पानी और हरियाली से पूरा पर्यावरण समृद्ध और संपन्न था। तब खेत की मिट्टी और नदी के जल से दोहन की प्रवृति नहीं थी। खेती और किसानी की प्रक्रिया में कुदरत के लिए पर्याप्त जगह थी।
आजादी के बाद देश के निर्माताओं ने महसूस किया कि कृषि के साथ उद्योगों का भी विकास किया जाए। वाकई में इसकी जरूरत भी थी और भरपूर संभावनाएँ भी। हमारे देश के कच्चे माल से ब्रिटेन के उद्योग-धंधे खूब फले-फूले थे। इसी कारण किसानों और प्राकृतिक संसाधनों का शोषण और दोहन जमकर हुआ। आजादी मिलने के बाद अपनी जरूरतों के हिसाब से और देश की प्रगति के लिए कल-कारखानों का विकास जरूरी हो गया था। इसे पंडित नेहरु आधुनिक भारत का मंदिर कहते थे। जब तक इस नवोदित देश की सत्ता नेहरु के हाथ में रही चतुर्मुखी विकास का रोमैंटिसिज्म चलता रहा। इस दौर में कृषि और उद्योग आमने-सामने नहीं खड़े थे। किसी एक की कीमत पर एक का विकास नहीं हो रहा था। बल्कि कृषि से कल-कारखानों को मदद मिल रही थी और कल-कारखानों से कृषि को। एक ऐसी समावेशी व्यवस्था बनाने की कोशिश की जा रही थी कि समाज में जो हाशिए पर है उसे भी मुख्य धारा में लाया जाए। आजादी के साथ ही भारत का बँटवारा हुआ। बँटवारे की आग में हजारों लोग झुलस गए। देश में गृह-युद्ध जैसी स्थिति बन गई थी। यह तब हो रह था जब भारत राजनीतिक रूप से पूरी तरह थका हुआ था। नेहरु का कार्यकाल राजनीतिक रूप से भयंकर उथल-पुथल का रहा। 1962 में चीन ने भारत पर एकतरफा हमला कर एक लाख वर्गकिलोमीटर जमीन हथिया लिया। 1964 में नेहरु के निधन के बाद लालबहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री बने। चीन के युद्ध से भारत उबर ही रहा था कि पाकिस्तान के साथ युद्ध में उलझना पड़ा। इन दो युद्धों के कारण भारत की अर्थव्यवस्था संकट के दौर से गुजर रही थी। कृषि की हालत पतली हो गई थी। आबादी बढ़ने के कारण खाद्यान का दबाव भी लगातार बढ़ रहा था। पैदावार में वृद्धि की सख्त जरूरत महसूस होने लगी। स्थिति यह थी कि लालबहादुर शास्त्री ने देसवासियों से आह्वान किया कि हम एक शाम कम खाएंगे।
साठ के दशक में इंदिरा गाँधी के कार्यकाल में हरित-क्रांति की शुरुआत हुई। हरित क्रांति का आधार बना बेहहतर बीज(हाई-ब्रीड) रासायनिक उर्वरक, और नई तकनीक। इसी समय श्रीमती गाँधी ने बैंकों का राष्ट्रीयकरण भी किय़ा। फलतः किसानों को सस्ते दर पर कर्ज मुहैया होने लगा। हरित क्रांति की बदौलत पैदावार में जबर्दस्त बढ़ोत्तरी हुई। पैदावार बढ़ी, कृषि में विकास दर बढ़ी और इसका सीधा फायदा किसानों और ग्रामीणों को हुआ। देखते ही देखते भारत खाद्यानों का निर्यात करने लगा। इस दौरान अनाज का कुल उत्पादन 83 मिलियन टन से बढ़कर 200 मिलियन टन हो गया। धान और गेहूँ के उत्पादन में तो रिकार्ड वृद्धि हुई। पंजाब में हरित-क्रांति ने चमत्कारी प्रभाव दिखाए। खासतौर से 1969 में जब गेहूँ का उत्पादन 1965 की तुलना में करीब 50 फीसदी और बढ़ा। गन्ने और कपास के उत्पादन में भी दो से तीन गुने की बढ़ोत्तरी हुई। गेहूँ और धान का तब 70 मिलियन टन उत्पादन होता था जो बढ़कर 187 मिलियन टन हो गया।
लेकिन इस हरित-क्रांति की कहानी का दूसरा पक्ष यह है कि दलहन के उत्पादन में कोई बढ़ोत्तरी नहीं हुई। हमारे यहाँ गरीबों के लिए दाल, प्रोटीन का मुख्य स्रोत है। 1962 में दलहन का उत्पादन 12 मिलियन टन था जो 2004 में लगभग उसी स्थिति में था और 2006 में 13.2 मिलियन टन के आसपास रहा। दलहन का उत्पादन पहले 500 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर था जो 40 सालों के बाद 598 किलोग्राम तक ही हो पाया है। दलहन पर कभी आत्मनिर्भरता नहीं बनी और भारत को बराबर आयात पर निर्भर रहना पड़ा।
हरित-क्रांति के फायदे भारत को कमोबेश अस्सी के दशक तक मिलते रहे। फिर नब्बे के दशक में शुरु हुआ आर्थिक सुधारों का दौर। इसके चलते उद्योगों और सेवा क्षेत्रों में प्रगति तो हुई लेकिन कृषि क्षेत्र में एक ठहराव सा आ गया। कहीं न कहीं हरित-क्रांति की पूरी प्रक्रिया और सरकार की नीतियाँ कटघरे में खड़ी दिखी। ऐसा लगने लगा कि हरित-क्रांति के नीति-निर्धारकों ने केवल तात्कालिक फायदे को ही ध्यान में रखा था। इसके दीर्घकालिक परिणाम के बारे में सोचा ही नहीं गया था। इसलिए यह कई मायनों में अधूरा रह गया। कृषि विशेषज्ञों का मानना है कि ग्रीन पर इतना जोर हो गया कि ग्रीन के बजाए ग्रेन क्रांति में बदल गयी। वह इसलिए, क्योंकि सिर्फ ग्रेन के बाजार को समर्थन दिया गया।
पर्यवेक्षक बताते हैं कि उस वक्त कृषि नीति में रासायनिक उर्वरक जमीन के स्वभाविक पौष्टिक तत्वों से ज्यादा महत्वपूर्ण हो गए और उन्हें प्राथमिकता मिलने लगी। हर साल जमीन से चावल, गेहूँ लेते गए और उसमें रासायनिक उर्वरक डालते गए। जो उत्पादन क्षमता थी उसे बरकरार रखने के लिए हर साल उर्वरक की मात्रा दोगुनी करनी पड़ी स्थिति यह हो गई कि उर्वरक न डालो तो उत्पादन ही नहीं होगा। वर्ष 1965-66 में रासायनिक उर्वरकों का उपयोग लगभग आठ लाख टन था जो बढ़कर 2005-06 में 205 लाख टन तक पहुँच गया।
हरित- क्रांति को यथार्थ में बदलने के लिए जीन संशोधित बीज और रासायनिक उर्वरकों ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी। लेकिन इनका पर्यावरण पर कैसा असर पड़ेगा इस पर ध्यान नहीं दिया गया। आज ज्यादा से ज्यादा फसल लेने के चक्कर में जमीन बंजर बनती जा रही है और जल विषाक्त हो रहा है। रासायनिक उर्वरकों की मांग प्रतिसाल बढ़ती जा रही है। खेती मंहगी होने का एक प्रमुख कारण यह भी है।
हरित-क्रांति का सबसे ज्यादा फायदा पंजाब को मिला था। आज सबसे ज्यादा बदहाली भी यहीं है। जमीन की उत्पादकता खत्म होने के कगार पर है। छोटे किसान कर्ज में डूबे होने के कारण आत्महत्या कर रहें हैं। कई गाँवों में नीलामी के होर्डिंग लगा दिए गए हैं। क्या इसके लिए हरित-क्रांति की लालची प्रवृत्तियाँ जिम्मेदार नहीं है ? रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों का अविवेकशील प्रयोग हरित-क्रांति प्रवृत्ति ही है। आज ग्रामीण इलाकों में नाइट्रोजन(यूरिया) का अंधाधुंध प्रयोग किया जा रहा है। मिट्टी को क्या चाहिए या किस तत्व की जरूरत है इससे किसानों को कोई मतलब नहीं है। कमी पोटाश, फास्फोटिक, जिंक और कैल्सियम की है लेकिन छिड़काव यूरिया का हो रहा है।
हरित-क्रांति मॉडल पर सबसे बड़ा सवाल यह है कि जहाँ की खेती मॉनसून पर आश्रित है और मॉनसून भी हमेशा आँख-मिचौली खेलता आया है ऐसी स्थिति में क्या यह आदर्श मॉडल साबित हो सकती है ? बिना सिंचाई व्यवस्था के कोई हरित-क्रांति कितनी क्रांति कर पाएगी ? खेती के लिए सिंचाई तो बुनियादी शर्त है। लेकिन दुर्भाग्य से आज भी भारत के चालीस फीसदी हिस्से असिंचित हैं। सिंचाई सुविधाओं के अभाव में कई किसानों को मॉनसून पर ही निर्भर रहना पड़ता है।
2002 में कृषि विकास दर शून्य से भी कम (-6.9)होने का मुख्य कारण था सूखे की स्थिति। इसके अगले साल झमाझम बारिश हुई तो कृषि में विकास दर दस फीसदी तक पहुँच गयी। जिस देश की बहुसंख्यक आबादी कृषि पर निर्भर हो उसी कृषि में इतनी अनिश्चतता से कई पोल खुलते हैं। किसानों द्वारा महाराष्ट्र में खुदकुशी की लगातार हो रही घटनाओं को देखते हुए मुंबई उच्च न्यायालय के निर्देश पर टाटा सामाजिक अनुसंधान परिषद ने इनकी जाँच कर एक विस्तृत रिर्पोट पेश की। रिर्पोट के अनुसार सिंचाई पर सार्वजनिक निवेश तेजी से घटते जा रहा है। बीज, उर्वरकों, सिंचाई, और बिजली पर सब्सिडी में कटौती से उत्पादन लागत बढ़ती जा रही है। किंतु इसके अनुपात में न पैदावार बढ़ रही है और न ही उपज का उचित मूल्य मिल रहा है।
सरकार का उपेक्षा भाव खाद्य फसलों के प्रति ज्यादा है। जबकि इन फसलों के उत्पादन में ज्यादात्तर छोटे किसानों की भागीदारी होती है। देश की साठ फीसदी खेती वर्षा सिंचित इलाके में होती है, जिसकी दशा सुधारने के लिए वर्ष 2008 में महज 370 करोड़ रुपए रखे गए। इसके बरक्स 1100 करोड़ रुपए हॉर्टिकल्चर को दिए गए जिससे ज्यादातर संपन्न किसान जुड़े हैं। साफ है सरकार को धनी किसानों का फिक्र ज्यादा है। समग्र कृषि व्यवस्था में सुधार क्या इन सौतेली नीतियों से संभव है ? इससे तो यही साबित होता है कि सरकार की नीतियों में देश की गरीब जनता नहीं है। 1981-82 में कृषि में जितने रुपए का उत्पाद हुआ उसमें गैर खाद्यान फसलों के उत्पाद का हिस्सा 51.95 प्रतिशत था जो 2000 में बढ़कर 61 प्रतिशत हो गया। पर इस बढ़ोतरी का लाभ देश के चुनिंदा परिवारों को मिला।
कृषि पर जहाँ लोगों की निर्भरता बढ़ी है वहीं कृषि उत्पादन क्षेत्रों में लगातार कमी आ रही है। अनाज उत्पादन क्षेत्रों में तेजी से कमी आ रही है। सरकारी अनुमान के मुताबिक 2010 में अनाज उत्पादन के क्षेत्र 124 मिलियन हेक्टेयर से कम होकर 121 मिलियन हेक्टेयर रह जाएंगे। जबकि जरुरत को पूरा करने लिए उत्पादन दोगुना करना होगा।
नेशनल सैंपल सर्वे ने पाया है कि चालीस फीसदी किसानों ने खेती छोड़ने की इच्छा जताई है। जहाँ सताइस फीसदी इसे घाटे का सौदा बता रहें हैं, वहीं इसे आठ फीसदी जोखिम भरा मानते हैं। अब जिस देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ कृषि हो, किसान जहाँ बहुसंख्यक तबका हो, जीवन पर्यंत बिना रिटायर हुए पीढ़ी दर पीढ़ी काम करने वाले किसानों में व्याप्त इस असंतोष को किस रूप में देखा जाए। आज भारत के कोई किसान नहीं चाहता है कि उसकी आने वाली पीढ़ी किसान हो। हर किसान अपनी संतान को खेतीबारी से दूर रखकर अन्य पेशों के लिए शिक्षित करवाना चाह रहा है। इसके लिए वह अपनी जमीन तक बेचने को तैयार हैं। छोटे किसान तो धीरे-धीरे ऐसे ही खत्म हो रहें हैं। पंजाब में तो छोटे जोत वाले किसान घाटे और कर्ज के कारण बड़े जोतों में समाते जा रहें हैं। सरकार इसलिए मूकदर्शक बनी हुई है कि वह कांट्रैक्ट फार्म को बढ़वा देना चाहती है। वह दिन दूर नहीं जब खाद्यानों पर पूरी तरह से अंबानियों और मित्तलों का कब्जा हो जाएगा। सेज इसका पहला कदम है।
आज भयावह सच यही है कि जिसे अन्य कोई
काम नहीं मिलता वही किसान है। किसानों की इस स्थिति के लिए कौन जिम्मेदार है ? अन्नदाता के घर में अन्न के अन्न के लाले पड़े हुए हैं। दरअसल विकास के जिस पश्चिमी मॉडल को सरकार आगे बढ़ा रही है उसमें कृषि और किसान के लिए कोई जगह नहीं है। उद्योग और सेवा क्षेत्रों पर सरकार जिस कदर मेहरबान है वह आँकड़ों में तो देखने को मिल रहा है लेकिन आज भी देश की साठ फीसदी आबादी कृषि पर ही आश्रित है। जिस सेवा क्षेत्र को सकल घरेलू उत्पाद का सबसे बड़ा दाता बताया जा रहा है क्या उसमें कृषि और किसानों का योगदान नहीं है? यदि कृषि का जीडीपी में योगदान घट रहा है तो यह घबराने वाली बात नहीं थी लेकिन इसमें लगे लोगों के एक बड़े हिस्से को अन्य क्षेत्रों में शिफ्ट होना चाहीए था। लेकिन अब तक ऐस नहीं हुआ। आज खेती से गुजर-बसर करने वाले लोगों की प्रति व्यक्ति आय ग्राफ भयावह स्थिति में है। जहाँ कृषि विकास दर मात्र 1.7 है वहीं सेवा क्षेत्र 15 प्रतिशत और उद्योग क्षेत्र 6 प्रतिशत की दर से आगे बढ़ रहा है। सेवा क्षेत्र की वृद्धि में भी भयंकर विषमता है। सूचना प्रौद्योगिकी में वृद्धि 40 प्रतिशत है तो छोटे-मोटे कपड़े बेचने वाले और ठेले खोमचे लगाने वालों की आमदनी में कोई खास बढ़ोतरी नहीं हुई है। उद्योग में भी जो 6 प्रतिशत की वृद्धि हो रही है वह उद्योग के संगठित क्षेत्र में नहीं हो रही है। बढ़ोत्तरी खास कर विलासिता के सामान बनाने वालों उद्योग धंधों में है। असंगठित क्षेत्र के छोटे उद्योगों में वृद्धि बहुत कम है।
पूंजीवादी व्यवस्था की हिमायती हमारी सरकार विकास के जिस गाड़ी को आगे बढ़ाना चाह रही है वहाँ भी पिछड़ते नजर आ रही है। वर्ष 2002 में आयात दो लाख 45 हजार करोड़ रुपए का था और निर्यात दो लाख नौ हजार अठारह करोड़ रुपए का। यानी व्यापार घाटा 36182 करोड़ रुपए का हुआ। वर्ष 2007-08 के अक्टूबर माह तक व्यापार घाटा 180753 करोड़ रुपए तक पहुँच गया। यह है हमारे विकास की असली कहानी।
हमारी सरकार अमेरिका और यूरोप के तर्ज पर कृषि और किसान के साथ व्यवहार कर रही है। लेकिन उसे पता होना चाहिए कि अमेरिका में केवल दो प्रतिशत और यूरोप में भी महज सात प्रतिशत लोग ही कृषि पर आश्रित हैं। यहाँ किसानों के लागत और फायदे का संतुलन भारी सब्सिडी देकर कायम रखा जाता है। यूरोपीय संघ के देशों में किसानों को 50 अरब रुपए तक की सब्सिडी दी जाती है। सब्सिडी के कारण यूरोपीय किसानों की लागत बाकी देश के किसानों से कम होती है इसलिए वे अपना माल सस्ता बेच पाते हैं।
खाद्यान के मामले में देश की आत्मनिर्भरता संकट में है। खाद्य तेलों पर आयात निर्भरता पचास फीसदी पहुँच गई है। दालों की हालत तो और खराब है। आज देश, पिछले चालीस वर्षों के सबसे बड़े कृषि संकट से गुजर रहा है।
पहले ग्रामीण क्षेत्रों के लिए जितना निवेश होता था आज उससे तीस हजार करोड़ कम हो रहा है। इससे ग्रामीण क्षेत्रों में एक लाख करोड़ की कमी , आई है। 1951 में विदर्भ में एक एकड़ जनीन पर कपास की खेती के लिए डेढ़ हजार रुपए खर्च होते थे आज इसके लिए दस हजार रुपए चाहिए। एक ओर कृषि में सार्वजनिक निवेश लगातार घट रहा है वहीं दूसरी ओर कृषि में लागत बढ़ती जा रही है। परिणामस्वरुप प्रति व्यक्ति प्रतिदिन अनाज की उपलबधता काफी कम हो गई है। वर्ष 1951 में यह 510 ग्राम थी जो 2005 में घटकर 436 ग्राम रह गई है।
ऐसी विकट स्थिति में भी यदि सरकार किसानों की फसल से ज्यादा आँकड़ों की फसल पर ध्यान दे रही है तो यह शर्मनाक स्थिति है। द हिन्दू के ग्रामीण संपादक पी साईनाथ का कहना है कि“जिस आर्थिक उन्नति की बात की जा रही है, वह जॉबलेस ग्रोथ है। भारत में ही नहीं पूरी दुनिया में ऐसा हो रहा है। हमारी ग्रोथ को नंबरों में मापना आसान नहीं है। शहरी और ग्रामीण इलाकों की तरक्की में जमीन आसमान का अतर है।” एक मशहूर अमेरीकी लेखक एडवर्ड एबी का कहना है “विकास यदि सिर्फ विकास के लिए हो रहा है तो वह कैंसर की बीमारी की तरह है। यह सबको मालूम है कि कैंसर सेल्स मल्टीप्लाई करते हैं। उससे आखिर में इंसान ही खत्म हो जाता है। जिस स्टाइल में हमारी ग्रोथ हो रही है उससे शहरों और गाँवों के निचले स्तर के 40 -30 प्रतिशत लोगों की जिंदगी और बदतर हो जाएगी। केवल गाँवों में रहने वाले टॉप टेन लोग और शहरों 15-20 प्रतिशत लोग ऐसी आलीशान जिंदगी जी रहे हैं, जो उन्होंने कभी सोची भी न होगी।”
यदि टिकाऊ विकास करना है तो सरकार को चाहिए कि कृषि को पटरी पर लाए। और यह तभी संभव है जब कुछ महत्वपूर्ण पहलुओं पर युद्ध स्तर पर काम होगा। जैसे- सिंचाई सुविधाओं का विकास हो जिससे मानसून पर निर्भरता घटे, बीज को लेकर सरकार की किसानों के पक्ष में सख्त नीति हो, बाजार में फसलों को उचित मूल्य मिले, अनाजों के सुरक्षित भंडारण की पर्याप्त व्यवस्था हो, किसानों एवं सरकारों के बीच संवाद कायम हो।
हमारे देश में कृषि पर बढ़ती जनसंख्या का भी भयानक दबाव है। जब देश आजाद हुआ था तो कुल आबादी लगभग 33 करोड़ थी वहीं आज इससे ज्यादा यहाँ गरीबों की संख्या है। बढ़ती आबादी से केवल कृषि पर खाद्यान का ही दबाव नहीं बढ़ता है बल्कि पर्यावरण और पारिस्थितिकी तंत्र भी बुरी तरह से प्रभावित होता है।
चीन के पास दुनिया का सात प्रतिशत भूभाग है जबकि हमारे पास दुनिया का 2.4 प्रतिशत भूभाग है। भारत की वार्षिक जनसंख्या वृद्धि दर 1.93 प्रतिशत है तो चीन की मात्र एक प्रतिशत। विश्व की कुल जनसंख्या का 16.7 प्रतिशत भाग भारत में रहता है। इस बड़ी जनसंख्या के भरण-पोषण के लिए देश में मात्र 141.89 मिलियन हेक्टेयर भूमि कृषि योग्य है। अब इस भयंकर असंतुलन को पाटने के लिए कोशिश की जाती है कि सालों का पैदावार एक ही फसल में ले ली जाए। यह प्रवृत्ति भूमि को बंजर ही बना सकती है।
सुविख्यात कृषि वैज्ञानिक डॉ. एस स्वामीनाथन के अनुसार “बढ़ती जनसंख्या के चलते अनुमानतः आज जो बच्चा पैदा होगा उसके लिए 6.08 हेक्टेयर भूमि उसके आवास, विद्यालय, सड़क आदि की सुविधाओं के लिए तथा 0.4 हेक्टेयर भूमि खाद्यान और फल-सब्जी उगाने के लिए आवश्यक होगी। इस गणना के आधार पर भारत में लगभग 55 लाख हेक्टेयर अतिरिक्त भूमि की आवश्यकता प्रत्येक वर्ष होगी।” क्या यह संभव है ? लेकिन जनसंखया नियंत्रण तो संभव है। सरकार को जागरुकता एवं कानून के माध्यम से जनसंख्या नियंत्रण पर काम शुरु कर देना चाहिए अन्यथा स्थिति और भयावह बनती जाएगी।
कृषि समस्याओं में भूमि का असमान वितरण या यों कहें खेती योग्य भूमि पर कुछ खास तबकों का स्वामित्व भी प्रमुख समस्या है। आजादी के 62 वर्ष बाद भी यदि भूमि सुधार कानून समग्रता में लागू नहीं किया गया तो यह हमारे लोकतंत्र के लिए शर्मनाक है। ऐसी स्थिति में यदि कोई भारतीय समाज को अर्द्धसामंती कहता है तो कुछ भी गलत नहीं है। भूमि सुधार कानून लागू न होने की वजह से अपने खून-पसीने से खेती कोई और कर रहा है और मजा कोई और मार रहा है। बंगाल और केरल की सरकारें इस कानून को सख्ती से लागू करवाने के कारण हमेशा याद की जाएंगी।
भूमि सुधार कानून बिहार में सबसे पहले बना था। भू-हदबंदी (लैण्ड-सीलिंग) से अधिक जमीन रखने वाले भूपतियों से अतिरिक्त जमीन लेकर भूमिहीनों के बीच बाँटने वाला जो कानून यहाँ 1961 में बना था जिसे चार दशक बाद भी किसी को लागू करवाने की हिम्मत नहीं हुई। आशचर्य है कि राज्य की ‘तमाम गैरमजरुआ खास ’जमीनों का पता लगाकर उन्हें गरीबों के बीच बाँटने का जो आदेश राज्य सरकार ने सन् 1954 में दिया था,आज 51 साल बाद भी उस पर अमल न हो सका। भू-हदबंदी से प्राप्त 80 हजार एकड़ जमीन गरीबों में नहीं बँट सकी क्योंकि इससे जुड़े मामले पिछले 14 सालों से विभिन्न अदालतों में लंबित है।
आजाद भारत में किसानों की समस्याओं और उनके हकों को लेकर किसान आंदोलन भी शुरु हुए। महाराष्ट्र में शरद जोशी तथा उत्तर प्रदेश में महेन्द्र सिंह टिकैत प्रमुख रूप से उभरे। लेकिन कुछ ही समय में ये नेता राजनीतिक अवसरवाद के शिकार हुए। महेन्द्र सिंह टिकैत तो आजकल पंचायतों के माध्यम से तालीबानी फरमान जारी कर रहे हैं।
अपने हकों को लेकर किसानों के एकजुट न हो पाने का प्रमुख कारण यह है कि आज भी हमारे समाज में पेशों के आधार पर कोई पहचान नहीं है। किसानों की जातीय पहचान उनकी एकजुटता में सबसे बड़ी बाधा है।
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