Tuesday, July 27, 2010

तो खत्म हो जाएंगी बोलियां

ताऊ, चाचा और काका अंकल बन गए। पिता, डैड और मां, मॉम। आज की पीढ़ी ने इन शब्दो को आत्मसात कर लिया है। कोई कह सकता है इसमें समस्या क्या है। समय के साथ बहुत कुछ बदलता है। तो क्या इस बदलाव को सहज-स्वाभाविक मान लिया जाए। दरअसल शब्द केवल शब्द नहीं होते हैं। उनका अपना एक पूरा संदर्भ होता है। ताऊ, चाचा और काका में जो भाव और संवेदना है वह अंकल में कहां से मिल पाएगा। शब्दों का निर्माण हमारे परिवेश और सामाजिक तानाबाना से होता है। हमारे तौर-तरीके, संस्कृति और परंपरा से। अंकल शब्द हमारे परिवेश से नहीं निकला है। जब हम किसी को ताऊ कहते हैं तो यह महज संबोधन नहीं होता है बल्कि रिश्तों का पूरा भाव होता है। और जब हम किसी को अंकल कहते हैं तो वह महज संबोधन होता है। एक सवाल यह भी है कि क्या हर किस्म के बदलाव को आधुनिक मान लिया जाए? क्या आधुनिकता का मतलब केवल नयापन होता है? भाषा और बोलियों के क्षेत्र में जो बदलाव हम देख रहे हैं वह एक दबाव के कारण हो रहा है। यह दबाव राजनीतिक और साम्राज्यवादी तो है ही मनोवैज्ञानिक भी है। हमारे परिवेश में मनोवैज्ञानिक दबाव सबसे ज्यादा काम कर रहा है। हालांकि इस दबाव में भ्रम और पागलपन ज्यादा है। अब कोई अपनी बोली या भाषा इसलिए नहीं बोले कि कथित रूप से पिछड़ा रह जाएगा या आधुनिकता के दौर में पीछे छूट जाएगा तो यह पागलपन ही तो है।
आज हमारी बोलियों पर गहरा संकट है। कुछ महीने पहले ग्रेट अंडमान निकोबार में बोरा, बो और होरा बो बोलने वाला कोई नहीं रहा। एक मात्र आदिवासी महिला बची थीं। वह भी नहीं रहीं। भारत में 300 भाषाएं और बोलियां हैं जिसमें 196 अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही हैं। यूनेस्को ने एक अध्ययन के बाद बताया है कि प्रत्येक 14 दिनों में एक भाषा या बोली खत्म रही है। संपूर्ण विश्व में लगभग 7000 भाषाएं या बोलियां बोली जाती हैं। यूनेस्को का कहना है कि 100 साल से कम ही समय में आधी बोलियां खत्म हो जाएंगी।
हम हिन्दी प्रदेश की ही बात करें तो आमबोलचाल की भाषा खड़ी हिन्दी नहीं बल्कि अवधी, भोजपुरी, मगही, ब्रज, मैथिली, अंगिका, व्रजिका, संथाली, मुंडारी, नागपुरी और मालवी है। आदिवासियों की बोलियों पर तो सबसे ज्यादा संकट है। जब हम आदिवासियों के विकास की बात करते हैं तो सबसे पहले उनके तौर-तरीकों को पिछड़ा घोषित कर देते हैं। आनन-फानन में शर्त रख दी जाती है कि आपको मुख्यधारा में शामिल होना है तो पूरा सामाजिक, सांस्कृतिक तेवर और कलेवर बदलने होंगे। इस बदलाव का दबाव इतना गहरा है कि हम सुदूर आदिवासी इलाकों में भी साफ देख सकते हैं। झारखंड के जिन आदिवासी इलाकों में आरएसएस और ईसाई मिशनरियों का प्रभाव है वहां उनकी मौलिकता को पूरी तरह से खारिज किया जा रहा है। एक तरफ हिन्दू बनाने का अभियान चलाया जा रहा है तो दूसरी तरफ ईसाई। एक विशुद्ध देशी वनाने का दावा कर रहा है तो दूसरा आधुनिक। हमे देखना होगा कि इस शुद्धीकरण के अभियान में आदिवासियों को कितना फायदा हो रहा है। आज यह दोनो अभियान आदिवासियों के सांस्कृतिक तनाबाना को इतना निरपेक्ष मानकर चल रहा है मानो उसका जलवायु और प्रकृति से कोई संबंध ही नहीं है। शब्द, लोकोक्ति और मुहावरों में प्रकृति, परिवेश और जलवायु की खुश्बू हम सीधे तौर पर महसूस कर सकते हैं। भारत के जिन क्षेत्रो की आबादी समुद्र के आसपास है उनकी बोलियों में समुद्री जनजीवन का साफ असर देख सकते हैं। उत्तर भारत में समुद्र न होने की वजह से हम देख सकते हैं कि समुद्र से संबंधित कोई मुहावरे नहीं मिलते हैं। हम बाजार के आगोश में आकर तमाम तरह की विविधताओं को तो मिटा रहे हैं लेकिन सवाल यह है कि क्या यह विविधता अनायास है? क्या हम भौगोलिक विविधता को भी मिटा देंगे? जाहिर है ऐसा दुःसाहस मानव जीवन के अस्तित्व के लिए खतरनाक साबित हो रहा है। भूमंडलीकरण की आंधी में जिस प्रकार विविधताएं खत्म हो रही हैं और जिस एकरूपता को कायम करने का अभियान चलाया जा रहा है उसका गहरा दुष्प्रभाव हमारी प्रकृति और जलवायु पर देखने को मिल रहा है। हम जिस अमेरिकी सामाजिक और सांस्कृतिक उपभोक्तावादी तानाबाना को भारत में स्थापित करना चाह रहे हैं क्या उससे हमारा प्राकृतिक वातावरण सुरक्षित रह पाएगा? हम विकास के नाम पर आदिवासियों को जंगल से बेदखल कर रहे हैं लेकिन उसके बाद जंगल को का क्या हश्र हो रहा है? इस बात को हमे समझना होगा कि हमारी बोलियां और तौर-तरीके बदलते हैं तो अनिवार्यतः प्रकृति से व्यवहार भी बदलते हैं। आज यदि जल, जंगल और जमीन से हमारे रिश्तें व्यवसायिक होते जा रहे हैं तो इसका सबसे बड़ा कारण यह भी है कि हम अपनी मौलिकता से कट रहे हैं और अपनी बुनियाद को जाने-अनजाने में कमजोर कर रहे हैं। अब राजस्थान के जनजीवन में जल के जितने और जिस स्वरूप में मिथ होंगे वह बिहार और उत्तर प्रदेश में नहीं होंगे। लेकिन जब हम भाषायी एकरुपता की बात करते हैं तो उससे रिश्तों में एक बदलाव आता है। जाहिर यह बदलाव उस समाज में कई तरह की वितंडाओं को साथ लेकर आता है। दक्षिण भारत में चावल से बने डिश का वहां की जलवायु से जो संबंध है वह अन्य प्रदेशों या देशों के डिश से कायम नहीं हो सकता। संस्कृति का निर्माण भूख और यौनेच्छा की बुनियाद पर होती है। और भूख व यौनेच्छा का गहरा संबंध प्रकृति से होता है। मतलब प्राकृतिक तेवर और सांस्कृति मिजाज में अंतरंग संबंध होते हैं।
राष्ट्रीय भाषा संस्थान मैसूर की रिपोर्ट में भारत के 12 आदिवासी भाषाओं को विलुप्त होने वाली सूची में रखा गया है। अंडमान की जारवा, अंडमानी जैसी भाषाएं तो हैं ही जिन्हें बोलने वाले मात्र चार व्यक्ति बचे हैं। झारखंड की कुड़खु भाषा भी शामिल है जिसे बोले वालों की संख्या लाखों में है। भारत में एक करोड़ से कम बोले जाने वाली भाषाओं की संख्या 29 है। इसमें झारखंड की छह भाषाएं हैं- खड़िया, मुंडा, कुड़खु, किसान और मलतो। एक लाख से कम 10, दस हजार से कम 118, पांच हजार से कम 92, एक हजार से कम 30, पांच सौ से कम 17 और 100 से कम छह भाषाएं हैं। 1991 की तुलना में 2001 में भारत की आदिवासी भाषाओं में झारखंड की ‘हो’ और ‘किसान’ में 11.33 और 12.96 फीसदी की कमी आई है। जबकि भाषा छोड़ने की सबसे खतरनाक प्रवृत्ति ‘कुड़खु’ भाषा समुदाय में चिन्हित की गई है। भारत की 114 मुख्य भाषाओ में 22 को ही संविधान की आठवीं अननुसूची में शामिल किया गया है। इनमें हाल फिलहाल में शामिल की गई ‘संथाली’ और ‘बोडो’ ही मात्र आदिवासी भाषाएं हैं। अनुसूची में शामिल संथाली(0.62), सिंधी, नेपाली, बोडो(0.25), मिताई(0.15) डोगरी व संस्कृत भाषाएं एक प्रतिशत से भी कम लोगों द्वारा बोली जाती है।
देश की सभी बोलियों और भाषाओं के संरक्षण तथा विकास के लिए, उनके प्रचार-प्रसार के लिए भारतीय संविधान के प्रथम अध्याय में 120, 210, 343, 344 द्वितीय अध्याय में 345 से 347 तृतीय अध्याय में 348-49 और चतुर्थ अधयाय में 350, 350ए, 350बी और 351 धाराएं हैं। लेकिन ये सभी संवैधानिक प्रावधान केवल निर्देश बनकर रह गए। समस्त आदिवासी, देशज और क्षेत्रीय लोकभाषाओं को उनके हक से वंचित रखा गया। सरकार के पास भाषाओं के संरक्षण और विकास के लिए कोई स्पष्ट नीति नहीं है।
आज की पीढ़ी अपनी बोलियों से तौबा कर रही है। माजरा यह है कि पब्लिक और कॉन्वेंट स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों पर दबाव बनाया जा रहा है कि अपनी कक्षा से बाहर भी अंग्रेजी में ही बात करें। जब हमारे शिक्षण संस्थानों से अपना सामाजिक और सांसकृतिक परिवेश ही खत्म हो जाएगा तो उस शिक्षा मतलब क्या रह जाता है? सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों पर भी एक मनोवैज्ञानिक दबाव रहता है कि कम-से-कम खड़ी हिन्दी में तो बात करें ही। हम ऐसा तो नहीं कह सकते कि आने वाले दशकों में बोलियां पूरी तरह से खत्म हो जाएंगी लेकिन संकट घनघोर है।

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