Thursday, February 18, 2010

भईया ये पाण्डेय जी की टोपी उतरती क्यों नहीं है

टेलीविजन पर एक विज्ञापन आपने देखा होगा जिसमें एक आदमी लाचार होकर कहता है भईया ये दीवार टूटती क्यों नही है तभी पृष्ठभूमि से एक आवाज आती है टूटेगी कैसे अंबुजा सिमेंट से जो बनी है। कुछ ऐसा ही पाण्डेय जी की टोपी के साथ है। यदि आप इन्हें लगातार वाच करें तो लगेगा कि इनकी टोपी सरदार जी की पगड़ी जैसी है, समाजवादियों की टोपी जैसी है, इमाम साहब की रोबीली दाढ़ी जैसी है, ठाकुर साहब की मूँछ जैसी है, जिन्हें कोई हाथ लगाने की जुर्रत करे तो जैसी की तैसी। अब सभी को ऐसा ही लगेगा इसकी कोई गारंटी तो ले नहीं सकता। संभव है किसी को हिमेश रेशमिया जैसी लगे। बात यह भी है कि किसी को अचानक कुछ लगता नहीं है। और जो अचानक लगता है उस पर ज्यादा विश्वास भी नहीं किया सकता। जब एक का लगना सब का लगना बन जाता है तो एक सार्वभौम सत्य उभरकर सामने आता है।
पाण्डेय जी सत्य हैं, पाण्डेय जी की टोपी सत्य है और यह भी सत्य है कि इनकी टोपी के ठीक नीचे इनकी नाक है। हर कोई अपनी नाक बचाना चाहता है। और जब नाक बची रहती है तभी नाक नुकीली और छुड़ीदार दिखती है। पाण्डेय जी के साथ सबसे बड़ी बात यह है कि इनकी टोपी नाक भी बचाती है। ऐसा इसलिए भी कहा जा सकता है कि किसी ने पाण्डेय जी की टोपी आज तक तिरछी नहीं देखी। जाहिर है टोपी तिरछी होगी तो नाक नंगी हो जाएगी।
हिन्दी के जाने-माने कथाकार उदय प्रकाश का कहना है कि “मैं मार्क्स, इश्वर और तंबाकु के एडिक्ट हूँ।” हालाँकि अपनी टोपी के संबंध में अभी तक पाण्डेय जी ने कुछ कहा नहीं है। कुछ महीने पहले समाजवाद के बबुआ मुलायम सिंह यादव ने कल्याण सिंह के माथे पर समाजवादी टोपी लगाने का सर्टिफिकेट दिया था। आगे चलकर उन्होंने वापस ले लिया। मतलब टोपी की राजनीति होती है तो टोपी उछाली भी जाती है। जब टोपी उछलेगी तो बहुत कुछ सामने भी आएगा। ठाकुर साहब की टोपी गई, साथ में जया प्रदा की भी। यदि पाण्डेय जी अपनी टोपी के प्रति सावधान रहते हैं तो इसमें गलत क्या है ? लोगों में इस बात को लेकर भी हैरानी है कि इनकी टोपी अभी तक बदली नहीं है। ऐसी स्थिति तब है जब पाण्डेय जी हमेशा दो-चार बातें एक साथ कहते हैं। केवल कहते ही नहीं हैं बल्कि सबका एक साथ स्वाद भी लेते हैं। तो सवाल यह उठता है कि जिनका व्यक्तिव इतना समावेशी और वैविध्यपूर्ण हो उनकी टोपी अब तक क्यों नहीं बदली ? इधर तो सुनने में यह भी आ रहा है कि पाण्डेय जी सिंबोलिक चीजों पर ज्यादा ध्यान नहीं देते हैं। इसे स्पष्ट करते हुए उन्होंने अपने एक परम मित्र को उदाहरण देकर समझाया – समय के हिसाब से एडजस्ट तो करना ही पड़ता है। अब जैसे देखिए भाजपा और कांग्रेस के अंदर भी एक साथ दो-चार बातों का पर्याप्त स्वाद लिया जाता है तो इसका मतलब यह नहीं है कि दो-चार झंडे और चुनाव चिन्ह रखा जाए। है न पाण्डेय जी का माकूल जवाब !
देवी प्रसाद मिश्र की कविता की पंक्ति है- यथार्थ दबंग है तो कहना भी जंग है/ कितने ही मोर्चे हैं कितने ही संस्तर/ कलह और झड़पे की कितनी जबानें और कितनी लड़ाइयाँ कितने ही डर और कितने समर। आज मिश्र जी की कविता यहाँ काम नहीं करेगी। कारण यह है कि पाण्डेय जी की टोपी मौसम से मुकाबला के लिए नहीं है। यदि क्रमशः कहें तो नाक बचाती है, कातिल मुस्कान छुपाती है और आँखों की गुस्ताखियों पर पर्दा डालती है। पता है किसी ने एक दिन गुस्ताखी कर पाणडेय जी की टोपी उतार दी। लोगों को कहना है कि उनकी प्रतिक्रिया कत्ल करने जैसी थी। भईया ये पाण्डेय जी की टोपी है या धोती !

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