Monday, October 5, 2009

क्या पूनम मिश्रा की आत्महत्या कायरता है

कुछ सप्ताह पहले अखबारों में खबर पढ़ने को मिली कि लखनऊ में इंजीनियरिंग की छात्रा पूनम मिश्रा ने आत्महत्या कर ली। आत्महत्या करने का कारण यह था कि वह अंग्रेजी न जानने के कारण अवसाद में जी रही थी। इसी वजह से नोयडा में एक छात्र ने आत्महत्या कर ली। राहुल देव ने बताया कि एक साल के अंदर ऐसी चार आत्महत्याएँ हुईं।
राहुल देव भारतीय जनसंचार संस्थान में आयोजित संगोष्ठी ‘हिन्दी का भविष्य: भविष्य की हिन्दी’ पर बोल रहे थे। उनका मानना था कि संकट की घंटी बज रही है लेकिन व्यवस्था बहरी बनी हुई है। हिन्दी का कार्यक्षेत्र और दायरा जितनी तेजी से सिमट रहा है वह दिन दूर नहीं जब हिन्दी इतिहास बन जाएगी। उन्होंने अपने तर्कों एवं तथ्यों के आधार पर हिन्दी के भविष्य का जो खाका खींचा वह ज्यादा चौंकाने वाला नहीं था। इस संगोष्ठी में मधुसूदन आनंद, श्रवण गर्ग और कमर वहीद नकवी भी मौजूद थे। राहुल देव अपने वक्तव्य के दौरान कई बार अहसास कराते रहे कि वे अंग्रेजी भी बहुत अच्छी जानते हैं। संस्थान के इस सत्र में उन्हें दो बार सुनने का मौका मिला। दोनों बार हिन्दी में बोलने से पहले उन्होंने यही कहा कि मुझे अंग्रेजी से विधिवत इश्क है। शायद वो जताना चाहते थे कि मैं हिन्दी की बात इसलिए नहीं करता हूँ कि अंग्रेजी नहीं जानता हूँ। या फिर हिन्दी पर बात करने का हक उन्हीं को है जो अंग्रेजी जानते हैं। राहुल देव लंबे समय से हिन्दी पत्रकारिता से जुड़े हुए हैं लेकिन विभिन्न संगोष्ठी एवं सभाओं में खुद को गर्व से अंग्रेजी का ही पत्रकार कहते हैं। राहुल देव के अंग्रेजी जानने का गर्व को किस रूप में देखा जाए। हालाँकि गर्व कोई नाकारात्मक अहसास नहीं है। लेकिन किसी का गर्व जब दूसरों को प्रताड़ित करने लगे, तो उसे न्यायसंगत नहीं कहा जाएगा। हालाँकि राहुल देव का गर्व इतना निरपेक्ष भी नहीं है कि उन्हें अपराधी ठहरा दिया जाए। दरअसल हमारी व्यवस्था की बनावट और उसकी नीतियाँ ही ऐसी हैं कि गर्व और हीनता के भाव को पनपने से कोई रोक नहीं सकता। आज जो अंग्रेजी जानने के गर्व से रोमांचित हैं वह अकारण नहीं है। देश की पूरी लोकत्तांत्रिक व्यवस्था वही सबसे फिट बैठते हैं जो अंग्रेजी जानते हैं। इस व्यवस्था में पूनम मिश्रा जैसे लोगों के लिए कितनी जगह है? पूनम मिश्रा के लिए जितनी जगह थी उतने दिन तक अस्तित्व बनाए रख सकी। कोई कह सकता है यह तो कायरता है। परिस्थितियों से टकराने का माद्दा नहीं था। तब तो विदर्भ और आंध्र प्रदेश के वे सारे किसान कायर हैं जो आत्महत्याएँ कर रहे हैं। ग्रामीण क्षेत्र के वे सारे छात्र-छात्राएँ कायर हैं जो अंग्रेजी न जानने के कारण उच्च शिक्षा से वंचित रह जा रहे हैं। पूनम मिश्रा ने तो खुद को मिटा लिया लेकिन उसी पृष्ठभूमि से आए छात्र-छात्राएँ कितना जिंदा हैं? पग-पग पर केवल एक खास भाषा न आने की वजह से जिस तरह प्रतिभाओं को नजरअंदाज किया जा रहा है, वह खतरनाक स्थिति है। पूनम ही क्यों हमलोग भी लगातार मर रहे हैं जिंदा रहने की शर्त पर। बावजूद पूनम कायर है तो हम सब भी कायर हैं।
लेकिन उस व्यवस्था के बारे में क्या कहा जाए जिसमें चंद वीर ही रह सकते हैं। क्या भारत की संघर्ष यात्रा और इतिहास इन वीरों के कारण ही है? गाँधी, नेहरू और सुभाष जिस समावेशी व्यवस्था की लड़ाई लड़े थे क्या यह वही व्यवस्था है, जिसमे लोग कायर बनने को मजबूर हैं। आजाद भारत में शायद ही किसी ने सोचा होगा कि जिन लोगों से आजाद हुए उन्हीं की भाषा का खौफ इस कदर कायम हो जाएगा कि लोग आत्महत्या करने पर मजबूर हो जाएँगे। पूनम को भी पता होगा कि उसकी आत्महत्या को लोग स्वभाविक ही लेंगे। संसद में कोई सवाल नहीं पूछने वाला है। अंग्रेजी भाषा के साम्राज्य पर कोई प्रश्न नहीं खड़ा करने वाला है बल्कि इस भाषा का रंग और सुर्ख लाल होगा।
राहुल देव के बाद ऐसा लगा कि पूनम मिश्रा की आत्महत्या पर कोई सार्थक बहस होगी। बारी आई हिन्दी दैनिक नवभारत टाइम्स के पूर्व संपादक मधुसूदन आनंद की। लेकिन मधुसूदन आनंद ने जो कहा वह स्तब्ध करने वाला था। उन्होंने कहा कि हिन्दी के स्वरूप में परिवर्तन और अंग्रेजी के हावी होने पर विलाप करने की जरूरत नहीं है। उन्होनें इस बात पर जोर देते हुए कहा कि यदि बाजार और तकनीक से हिन्दी बदल रही है तो इसे स्वीकार किया जाना चाहिए। मधुसूदन जी को सुनने के बाद ऐसा लगा कि वाकई में वे नवभारत टाइम्स के संपादक थे। ऐसे हम सब कुछ स्वीकार करने के लिए तो अभिशप्त हैं ही। देश की लगभग 80 प्रतिशत आबादी प्रतिदिन 20 रुपए से भी कम स्वीकार कर रही है। तो आनंद जी अब कह रहे हैं कि पूनम की मौत भी स्वीकार कर लो। क्योंकि यह ज्यादा अस्वभाविक नहीं है।
उनका मानना था कि आज की फिल्में और नवभारत टाइम्स जैसे अखबार दर्शकों और पाठकों के बीच लोकप्रिय है तो यह हिन्दी भाषा की सफलता है। आनंद जी के लिए लोकप्रियता और सफलता दोनों एक ही चीज है। मतलब यह कि यदि शाहरूख खान लोगों के बीच लोकप्रिय हैं तो वे एक सफल अभिनेता भी हैं। लालू प्रसाद यादव यदि लोकप्रिय हैं तो क्या एक सफल नेता भी हैं? तब तो नेता और अभिनेता की परिभाषा ही बदलनी होगी। एक संपादक के रूप में यदि मधुसूदन आनंद को नवभारत टाइम्स की भाषा नहीं खटकी तो यह शर्मनाक स्थिति है। उन्होंने खुद को साबित करने के लिए जिन उदाहरणों को पेश किया वह भी कम हास्यास्पद नहीं था। मधुसूदन आनंद ने कहा कि मेरी माँ आज सीजन, प्रोबलम, प्रोग्राम और बुक जैसे अंग्रेजी शब्दों को आसानी से समझ लेती है। आनंद जी को यह भी बताना चाहिए था कि इन शब्दों का प्रचलन क्यों बढ़ रहा है? क्या इसमे मीडिया की कोई भूमिका नहीं है? दरअसल बात केवल इन चंद शब्दों की नहीं है। मीडिया, लोगों के बीच यह धारणा पैठा चुका है कि बातचीत में अंग्रेजी के शब्दों को घुसेड़ना शहरी और बौध्दिक जीवन की पहचान है। हद तो तब हो गई जब वे जनसत्ता की भाषा पर चुटकी लेने लगे। इन्हें सुनते हुए कई बार तो ऐसा लगा कि हम सुधीश पचौरी और प्रसून जोशी को सुन रहे हैं।
कमर वहीद नकवी ने कुछ महत्वपूर्ण सवाल उठाए। उन्होंने कहा कि क्या कारण है कि जो भाषा पाँच साल पहले सरल लगती थी आज वही कठिन लगने लगी है। उस समय जनसत्ता और नवभारत टाइम्स को देखता था तो लगता था कि जनसत्ता की भाषा कितनी सरल है। दरअसल कोई भाषा सरल या कठिन नहीं होती है। हमारे सामाजिक, राजनीतिक और शैक्षणिक परिवेश में भाषा के जिस स्वरूप का चलन बढ़ता है, वह सरल मालूम पड़ने लगता है। नकवी ने बताया कि जब हमलोग आज तक की भाषा तैयार कर रहे थे तो वैसे शब्दों का प्रयोग जमकर किए जो कम बोले जाते थे। कम बोले जाने का मतलब यह कतई नहीं था कि ये शब्द कठिन थे। औंधे मुँह गिरे जैसे शब्दों का प्रचलन आज तक ने ही बढ़ाया।
दरअसल भाषा के स्वरूप का बदलना और अंग्रेजी के शब्दों का घुसपैठ भूमंडलीकरण के बाद ज्यादा आसान हो गया है। मुक्त अर्थव्यवस्था में बाजार का जिस प्रकार विस्तार हुआ उससे केवल हमारी भाषा ही नहीं प्रभावित हुई बल्कि समाज का पूरा ताना-बाना दरका है। लोकतांत्रिक संस्थाओं की भूमिका कमजोर पड़ी है। बाजार को अपने पाँव पसारने के लिए हिन्दी की जरूरत तो पड़ी लेकिन अपने फायदे के हिसाब से। वस्तुओं के विज्ञापन में हिन्दी के शब्दों का धड़ल्ले से प्रयोग तो बढ़ा लेकिन उसकी अपनी अलग प्रकृति और स्वरूप है जहाँ लिपि, भाषिक संरचना और उसके अर्थों के सांस्कृतिक संदर्भों के साथ भरपूर छेड़छाड़ है। कोई कह सकता है कि यह शुध्दतावादी रवैया है। लेकिन यह याद रखना चाहिए कि दुनिया की कोई भी भाषा बाजार के भरोसे जिंदा नहीं रह सकती। यदि किसी भाषा में नए विचार और ज्ञान निरंतर नहीं आ रहे हैं तो उस भाषा के कार्यक्षेत्र को सिमटने से कोई नहीं बचा सकता। नए विचार और ज्ञान तभी किसी भाषा में उतरोत्तर आएंगे जब देश के राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक क्षेत्र में उस भाषा के लिए पर्याप्त जगह होगी। आज हिन्दी के लिए इन क्षेत्रों में कितनी जगह है सबको पता है।
आज हमारा पूरा शैक्षणिक तंत्र बाजार के गिरफ्त में है। शिक्षा की दशा-दिशा बाजार ही तय कर रहा है। हमारी पारंपरिक शिक्षा की बुनियाद पूरी तरह चरमरा गयी है। जिसे आज हम आधुनिक और पेशेवर शिक्षा कह रहे हैं उस पर देश के आभिजात्य वर्ग का कब्जा है। यदि ग्रामीण भारत के कोई विद्यार्थी किसी तरह यहाँ तक पहुँच भी जाता है तो हीन भावना से ग्रसित होना, अवसाद बढ़ते जाना और अंततः पूनम मिश्रा जैसा हश्र होना ज्यादा अस्वभाविक नहीं है।
यह बात सच है कि हिन्दी भाषा में तकनीक और विज्ञान की शिक्षा के लिए ज्यादा संभावनाएँ नहीं है। लेकिन आजाद भारत में कोई विद्यार्थी केवल इसलिए तकनीक एवं विज्ञान की शिक्षा से वंचित रह जाए कि वह अंग्रेजी नहीं जानता है? क्या यह संभव नहीं है कि अपनी भाषा के सहारे विज्ञान और तकनीक की शिक्षा तक पहुँच कायम की जाए? विज्ञान एवं तकनीक की ही बात नहीं है उच्च शिक्षा और शोध के क्षेत्र में भी साहित्य के अलावे हिन्दी के लिए कहीं जगह नहीं है। अब तो ऐसा भी होने लगा है कि प्रवेश परीक्षा में जो कॉपियाँ हिन्दी में लिखी जाती हैं या तो उन्हें दोयम दर्जे का मान लिया जाता है या जाँची ही नहीं जाती। यदि इस हालत में कोई पूनम मिश्रा आत्महत्या करती है तो क्या इसे कायरता कहेंगे?
कई राज्यों ने प्राथमिक शिक्षा अंग्रेजी में देने के निर्णय लिए हैं। ज्ञान आयोग के प्रमुख सैम पित्रोदा ने भी प्राथमिक शिक्षा अंग्रेजी में देने की सिफारिश की है। इस फैसले को मानसिक दिवालिएपन का ही शिकार कहा जाएगा। क्या कोई भाषा इतनी एकांगी और निरपेक्ष हो सकती है कि उसका अपने परिवेश से कोई संबंध न हो? हम भाषा तो बदल देंगे क्या सामाजिक व्यवहार और परिवेश भी बदल देंगे? यदि बदल भी देंगे तो यह देश भारत रहेगा या इंग्लैंड? तो फिर आजादी की क्या आवश्यकता थी? यदि बदलना संभव नहीं है तो शिक्षा में मौलिकता और रचनात्मकता का कोई मतलब होता है?
जब हम अपनी भाषा छोड़ते हैं तो केवल भाषा ही नहीं छूटती है। हमारे सामाजिक और सांस्कृतिक परिवेश में जो संस्कार और व्यवहार मिलते हैं वह भी लगातार छूटते जाता है। अपनी भाषा के साथ-साथ पूरा सांस्कृतिक संदर्भ छूटता चला जाता है। अंततः ऐसी स्थिति आती है कि अच्छे संस्कार और व्यवहार भी पिछड़े मालूम पड़ने लगते हैं। आज हमारे परिवेश में बड़ी विचित्र और हास्यास्पद स्थिति बनती जा रही है। लोगों में यह धारणा तेजी से पैठ रही है कि अंग्रेजी जान लेने का मतलब है आधुनिक बन जाना। ऐसा उनके व्यवहार से महसूस किया जा सकता है। हालाँकि इनकी आधुनिकता में मूल्य-बोध और संवेदना के लिए शायद ही कोई जगह होती है। यदि मूल्य-बोध और संवेदना के लिए कोई जगह नहीं है तो पूनम मिश्रा जैसे लोगों के लिए भी कोई जगह नहीं है। हमारे मशहूर और अत्यंत महत्वपूर्ण स्वतंत्रता सेनानी और प्रखर पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी जिन्होंने सांप्रदायिक दंगों की रोकथाम के लिए अपना साहसिक बलिदान दिया था, उन्होंने देश के गुलामी के दौर में कहा था “मुझे देश की आजादी और भाषा की आजादी में किसी एक को चुनना पड़े तो मैं निःसंकोच भाषा की आजादी को पहले चुनूंगा। देश की आजादी के बावजूद भाषा की गुलामी रह सकती है, लेकिन अगर भाषा आजाद हुई तो देश गुलाम नहीं रह सकता।”

5 comments:

डॉ.भूपेन्द्र कुमार सिंह said...

ye to ek socha samjha kshadyantra ho raha hai Hindi ke khilaf jisme Hindi ke log hi shamil hai.
aapka lekh accha laga .Nirantarta banayeb rakhiye.aapka hi,
Dr.Bhoopendra

श्याम जुनेजा said...

prshan jatil hai. angreji ganit ki bhasha hai.hindi hamari kavita ki bhasha hai dono mein santulan bananey ki jaroorat hai.bhashaein to kisi ek samaj ki thekedari nahin hoti ye to pure vishav ki hoti hain. jisme jitna dam hoga uska utna hi varchsv hoga. angrezi aaj ke dor mei pure vishav ki bhasha hai. ise najandaz nahin kiya ja sakta lekin ye bhi sach hai apney desh mein hamari apni bhasha ki garima akshun rahni chahiye. sarkari kattartaon ke chalte ye sambhav nahin ho pa rha. hindi ko jaitl se jatiltar bnane ki sazishein sarkari str pr chal rhi hain.

गोविंद गोयल, श्रीगंगानगर said...

uf! saans ful gya.narayan narayan

शशांक शुक्ला said...

आपनी बिलकुल सही कहा है, हिंदुस्तान में हिंदी की हालत बहुत पतली हो गयी है, राहुल देव की बात नहीं है अंग्रेजी का वर्दहस्त ही आपको कहीं पर नौकरी दिलवा सकता है, सोसाइटी में इज्जत दिलवा सकता है, हां भीड़ में अंग्रेजी बोलना सज्जनता और इज्जतदार होने का पासपोर्ट है

Anonymous said...

Excellent,superb