यदि कुछ फिल्मों को छोड़ दिया जाए तो यह बात बिल्कुल सत्य है कि वर्तमान दौर में जितनी हिन्दी फिल्में बन रही हैं उनमें न भारत का समाज है, न भारत की समस्याएँ हैं, न भारत का संघर्ष है। यह महत्वपूर्ण सवाल है कि हिन्दी सिनेमा भारतीय समाज, उसकी राजनीति, उसके संघर्ष, उसकी आस्था का कहाँ तक प्रतिनिधित्व करता है? प्रेमचंद ने कभी कहा था कि साहित्य महफिल की तवायफ नहीं है कि मांग के अनुसार काम करे। क्या यही बात कला माध्यम के रूप में सिनेमा के साथ लागू नहीं होती है? हिन्दी फिल्मकारों का एक लोकप्रिय तर्क है कि दर्शक जो पसंद करेंगे वही दिखाएँगे। इस तर्क को ही आधार बनाकर यदि कोई फिल्मकार फिल्म बनाता है तो स्वाभाविक है वह यथास्थिति से टकराने की हिम्मत नहीं रखता है। वह सिनेमा को कला के तौर पर स्वीकार नहीं करता है। सिनेमा, अब तो और हमारे यहाँ व्यवसाय मात्र बनता जा रहा है। हमारे यहाँ कला बोध को, शिक्षा के माध्यम से, प्रचार के माध्यम से, प्रसार के माध्यम से, दर्शकों में जागृत नहीं किया गया। यदि ऐसी स्थिति में दर्शक करण जौहर, डेविड धवन, सुभाष घई तथा चोपड़ा घराने की फिल्मों को पसंद कर रहे हैं तो इसमें दर्शकों पर यह तोहमत नहीं लगाया जा सकता है कि वे ऐसी ही फिल्में पसंद करते हैं। इन निर्देशकों से यह पूछा जाना चाहिए कि इनकी फिल्मों में भारत कहाँ है यदि नहीं है तो इसका औचित्य क्या है? कुछ साल पहले का यह जुमला है कि सिनेमाघरों की टिकट खिड़कियों पर या तो शाहरूख खान बिकता है या सेक्स। शाहरूख खान अभिनीत फिल्मों में यदि ‘स्वदेस’ को छोड़ दिया जाए तो किसी में भी समकालीन ज्वलंत प्रश्नों के लिए कोई जगह नहीं है। हिट होने के तमाम फार्मूलों का इस्तेमाल किया गया है। बावजूद शाहरूख खान का फिल्मों में होना ही व्यवसायिक सफलता का मानक बनता गया।
90 के बाद भारत के विभिन्न क्षेत्रों में परिवर्तन के साथ जो संक्रमण हुए उसके बुरे परिणाम अब खुलकर सामने आ रहे हैं। देश की विभिन्न संस्थाओं का अराजनीतिकरण किया गया है। इसी संदर्भ में रजनी कोठारी कहते हैं “इस सोच के मुताबिक सामाजिक सोच के मायने ही बदल जाते हैं। इसके मुताबिक सामाजिक बदलाव का लक्ष्य ऐसे समाज की रचना होनी चाहिए जिसकी प्रेरक शक्ति लोकतांत्रिक राजनीति नहीं, बल्कि प्रौद्योगिकीय ज्ञान होगी। इसके अनुसार प्रौद्योगिकीय ज्ञान राष्ट्र को शक्तिशाली और महान बनाता है और उसकी एकता को मजबूत करता है। राजनीति की जरूरत सिर्फ इसलिए है कि एक समूह के शासन को बनाए रखा जा सके, भले ही इसके लिए धार्मिक और जातीय अल्पसंख्यकों, सीमांत इलाकों और विभिन्न प्रकार के जनआंदोलनों का दिमाग दुरूस्त करने के उपाय क्यों न करने पड़े या उन्हें खरीदना ही क्यों न पड़े।” विकास के नए माडल में विषमता की खाई लगातार गहरी होती गई और जनता वोट बैंक बनती गई। कृषि की हालत इतनी त्रासद बन गई है कि किसान आत्महत्या करने पर मजबूर हैं। अर्थशास्त्री अशोक मिश्र के अनुसार देश में जो आर्थिक विकास हो रहा है उससे सिर्फ 10 से 15 प्रतिशत लोगों को ही लाभ हुआ है। बाकी के 85 प्रतिशत वृद्धि से अछूते छूट गए हैं। बाल-विवाह, दलित-शोषण, जातीय-भेदभाव तथा लैंगिक भेद आज भी समाज में कायम है। सांप्रदायिकता भी अपने तर्कों के साथ व्यापक रूप में फैल रही है। राजनीति की असफलता हर मोर्चे पर देखी जा सकती है। यदि इन तमाम बातों को छोड़कर हिन्दी सिनेमा मादक गीत-संगीत, अंग-प्रदर्शन, रोमांस, विदेशी लोकेशन आदि को प्राथमिकता देती है तो फिर यह कहना सही ही है कि हिन्दी सिनेमा केवल भारत में दर्शकों के बीच प्रदर्शित किया जाता है, न तो अब भारत में बन रहा न उसमें भारत है।
इस त्रासद माहौल में कुछ फिल्मकार ऐसे भी हैं जो अपनी फिल्मों में सामाजिक प्रतिबद्धता का अनिवार्य रूप से ख्याल रख रहे हैं। सबसे अच्छी बात तो यह है ये सारे फिल्मकार नवयुवक हैं। आशुतोष गोवरीकर ने ‘लगान’ और ‘स्वदेस’ जैसी प्रासंगिक फिल्मों का निर्माण कर उन तर्कों को खारिज किया कि हिन्दी के दर्शक अच्छी फिल्में पसंद नहीं करते हैं। ‘लगान’ तो सामाजिक और राष्ट्रीय सौहार्द का मानवीय और समन्वयकारी स्वरूप पेश करती है। कचड़ा और भुवन जैसे पात्र फिल्म की प्रासंगिकता को दुगुनी कर देते हैं। आशुतोष की फिल्म ‘स्वदेस’ भी ग्रामीण भारत के असली चेहरे को उभारती है तथा संभावनाओं की तलाश करती है। मोहन भार्गव जैसा पात्र ग्रामीणों के दर्द को संजीदगी से समझता है तथा उस पर मरहम लगाता नजर आता है। आशुतोष ‘स्वदेस’ के बारे में कहते हैं लोग राष्ट्रवाद और देशप्रेम के बीच भ्रमित हो गए हैं। जब भी पाकिस्तान के साथ कुछ होता है तभी क्यों हमारा ‘पेट्रियोटिज्म’ जाग उठता है, वह तब कहाँ होता है जब हम निजी जिंदगी में, अपने आस-पास के बदहाली से बेखबर होते हैं और कुछ नहीं सोचते। हम सोचते हैं कि यह हमारा काम नहीं है। दूसरे का काम है। यह जो अपने आस-पास से आँखें मूँदे रहने की मनोवृत्ति है, वह हमारे भीतर घर कर गई है। एक दृश्य है इसमें मोहन कहता है कि कुछ भी जब गलत होता है तो हम एक-दूसरे को ब्लेम करते हैं- इसको ऐसा नहीं करना चाहिए था, उसको वैसा नहीं करना चाहिए था......सरकार को ब्लेम करते हैं सरकार किसी और को।
फिल्म निर्देशक के रूप में मधुर भंडारकर ने भी अपने समय की त्रासदियों को अपनी फिल्मों का विषय बनाया है। इनकी लगभग सारी फिल्में वर्तमान व्यवस्था के दोहरे चरित्र को उजागर करती है। ‘चांदनी बार’, ‘पेज थ्री’, ‘कारपोरेट’, ‘टैफिक सिग्नल’ तथा फैशन उस चमक-दमक को पर्दाफाश करती है जहाँ ऊपर से तो सब कुछ ठीक दिखता है लेकिन अंदर से कितना खोखला है। ‘चांदनी बार’ वैश्याओं की जीवन गाथा को संवेदनशील तरीके से प्रस्तुत करती है तो ‘पेज थ्री’ लोकतंत्र के चौथे खंभे की हकीकतों को बयां करती है। वहीं कारपोरेट शेयर मार्केट तथा उद्योगपतियों के दाँव-पेंच को उजागर करती है। भंडारकर की लगभग सारी फिल्में स्त्रीप्रधान है यह उनकी प्रगतिशीलता की ही पहचान है। भंडारकर का कहना है- ‘‘एक निर्देशक होने के नाते मुझे कुछ तो सोसायटी को देना चाहिए। मैं अपनी फिल्मों के माध्यम से समाज को जागरूक करना चाहता हूँ। मैं ऐसी फिल्में नहीं बनाना चाहता जिसमें चार हीरो और चार हीरोइन हों, छह-सात गाने हों। स्विट्जरलैंड में शूटिंग करूँ। इस टाइप की फिल्म मैं नहीं बनाना चाहता और न ही इस तरह की उम्मीद ही लोग मुझसे रखते हैं।’’
नागेश कुकुनुर की ‘डोर’ भी सामंती सोच को कटघरे में लाती है। सुधीर मिश्रा की ‘हजारों ख्वाहिशों ऐसी’ युवाओं के सपने और उन सपनों को बिखरते दिखाती है। राजकुमार हिरानी की फिल्म मुन्ना भाई एम0बी0बी0एस0 नौकरशाहों की सोच एवं व्यवहार पर सवालिया निशान लगाती है। शेखर कपूर की बैंडिट क्वीन, राकेश ओमप्रकाश मेहरा की ‘रंग दे बसंती’, अनुराग बसु की ‘लाइफ इन मेट्रो’, निशिकांत कामत की मुंबई मेरी जान, नीरज पांडेय की फिल्म ‘अ वेडनेस डे’, सामयिक विडंबनाओं को परदे पर सफलता के साथ उकेरती हैं। वहीं अनुराग कश्यप प्रयोगशील और यथार्थपरक सिनेमाई छवियों के साथ हिन्दी सिनेमा में दस्तक देते हैं।
साल 2009 में हिन्दी फिल्म निर्देशकों ने शायद ही ऐसी कोई फिल्म नहीं बनाई जो कला माध्यम की कसौटियों पर खरी उतरती हो। आर बालकी निर्देशित और अमिताभ बच्चन अभिनित ‘पा’ से उम्मीद की जा रही थी कि प्रोजेरिया बीमारी की त्रासदी और संवेदनशीलता को रूपहले पर्दे पर प्रस्तुत करेंगे लेकिन यह भी मसाला और फार्मूला फिल्म साबित हुई। राजकुमार हिरानी की थ्री इडियट्स मसाला फिल्म होते हुए भी हमारी शैक्षणिक व्यवस्था पर करारा व्यंग्य तो करती ही है। प्रियदर्शन, चोपड़ा बैनर, करण जौहर और इम्तियाज अपने दायरों से बाहर नहीं निकल पा रहें हैं। ‘अजब प्रेम की गजब कहानी’, ‘वांटेड’, ‘लव आजकल’, ‘न्यूयार्क’, ‘ऑल दी बेस्ट’, ‘दे दनादन’ और ‘कमबख्त इश्क’ जैसी विशुद्ध मसाला फिल्में एक हद तक कमाई करने में सफल तो रहीं लेकिन हिन्दी सिनेमा के इतिहास में फालतू फिल्मों की श्रेणी में ही आएंगी।
Monday, January 25, 2010
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1 comment:
गोया, हमारी सोच और दृष्टि में भी यही तड़प और बेचैनी है। आज नाम, शोहरत और प्रतिष्ठा के जायकेदार छौंक भारतीय सिनेमा को समृ़द्ध करने में जुटे हैं। कल की तारीख़ में यह गौण माने जाते थे। गणना के प्रतिमान थे-अभिनय, नृत्य, संवाद अदायगी, दृश्यों का अद्भुत सम्मिलन, रंगों का इन्द्रधनुषी रूआब और संवेदनायुक्त कथ्यशैली। ‘प्यासा’, ‘बुटपालिस’, ‘नीचा नगर’, ‘दो बीघा ज़मीन’, ‘मदर इंडिया’, ‘जागते रहो’, ‘मिर्च-मसाला’, ‘अर्द्धसत्य’ वगैरह महज नामों की फेहरिस्त भर नहीं है। इनमें भारतीय समाज रचा-बसा है। उसकी समस्याएँ, संघर्ष और स्वाधीन भारत के वो आदर्श हैं, जो आज सिनेमा से गायब है। हिन्दुस्तानी सिनेमा का क्षितिज पूर्ववर्ती समय में उज्ज्वल और प्रदीपमान रहा है। केन्द्रीय विषयवस्तु में आपसी सौहार्द, मेलजोल और त्याग-समर्पण की कथा बुनी जाती रही है। एक-एक दृश्य असलियत बयां करते मिलते हैं। भाषणबाजी और उपदेश कतई नहीं। भूख, आभाव और गरीबी-बीमारी के बावजूद उत्सव-उल्लास है। भरोसे के बिंब है, जो हर कीमत पर कठिनाईयों से पार पाने का हौसला देते हैं। जहाँ दिखते हैं, गाँव-घर-चैपाल, चूल्हा-चैका और खटिया-मचान। समय के साथ करवट लेता शहर भी शामिल है, जो उस जमाने के असंवेदनशील होते समाज और शहरी भयावहता को हू-ब-हू परदे पर चित्रित कर रहा होता है। यह केवल घोर हताशा और निराशा को ही कैमरे में कैद नहीं करता बल्कि उम्मीद के तान भी छेड़ता है। जीवन को जीने के लिए प्रेरणा का संचार करता मिलता है। आज वो दौर ख़त्म। समस्याओं और संघर्षों के ठौर भले न बदले हो, परंतु सिनेमा बदल गई है। इन बदलावों को शाब्दिक चरित्र प्रदान करने की आपकी कोशिश को साधुवाद।
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